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अनुभव का उत्पल
प्रस्तुतीकरण
तुम्हारा प्रश्न है कि तुम जिस रूप में नहीं हो, उस रूप में मैं तुम्हे प्रस्तुत कर रहा हूं। क्या यह अन्याय नहीं है?
न्याय और अन्याय की चर्चा यथार्थ के स्तर पर कभी नहीं होती। वह मान्यता के स्तर पर होती है।
तुम्हारे यथार्थ रूप को जानने के लिए मेरे पास साधन ही क्या हैं ? मैं तुम्हारे उसी रूप को जानता हूं जो मेरी कल्पना द्वारा गृहीत है और मैं तुम्हारे उसी रूप को प्रस्तुत करता हूं जो मेरी मान्यता में प्रतिबिम्बित है। मेरे मित्र! तुम मुझसे इससे अधिक आशा क्यों रखते हो?
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