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अनुभव का उत्पल
प्रेम किससे?
वाग्देवते!
मैं विद्या प्रधान हूं- यह लोक-पक्ष है। मेरा निजी पक्ष यह नहीं है। मेरी मान्यतानुसार मैं चरित्र प्रधान हूं। मैं चरित्र को जीवन का सर्वोपरि सर्वस्व मानता रहा हूं।
विद्या मुझे कम प्रिय नहीं है किन्तु उसे मैं चरित्र से अभिन्न ही मानता हूं।
एक शब्द में चरित्र का अर्थ है- ब्रह्मचर्य।
भगवान् ने आचार को ब्रह्मचर्य कहा है। जिसने ब्रह्मचर्य को खो दिया, वह आचार को नहीं निभा सकता। इस माने में वह सही है। मेरे लिए ब्रह्मचर्य का प्रश्न महत्वपूर्ण है। मेरा भला इसी में है कि मैं किसी से प्रेम न करूं या उन्हीं से करूं जो स्वयं ब्रह्मनिष्ठ हों और मुझे अपने साध्य की ओर आगे ले जाएं।
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