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( अनुभव का उत्पल)
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ब्रह्मचर्य और अहिंसा
मैं अहिंसक हूं, अहिंसा मेरा साधन है, अभेद मेरा साध्य है।
मैं सत्य-निष्ठ हूं, सत्य मेरा साधन है, पवित्रता मेरा साध्य है।
मैं ब्रह्मचारी हूं, ब्रह्मचर्य मेरा साधन है, ब्रह्म-रमण मेरा साध्य है।
अहिंसा सत्य से व्याप्त है, सत्य अहिंसा से। ब्रह्मचर्य दोनों से व्याप्त है। ब्रह्मचर्य में मेरी श्रद्धा दृढ़ होती है तो अहिंसा और सत्य का विकास होता है। ब्रह्मचर्य में शिथिलता आती है तो सत्य टूटता है और अहिंसा भी। ब्रह्मचर्य को ठीक रखे बिना मैं न सत्य-निष्ठ बन सकता हूं और न अहिंसक भी।
हिंसा और असत्य दोनों की जड़ वासना है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- वासना का उच्छेद। कार्य व्यक्त होता है, वासना छिपी रहती है। कार्य-निरोध संयम से होता है, वासना धुलती है अहिंसा से। अहिंसा यानी समता। समता यानी आत्म-दर्शन। जो अपने में, दूसरे में, सब में आत्मा को देखता है, आत्मा में परमात्मा को देखता है, वह ब्रह्मचारी बन जाता है। ब्रह्मचर्य से. अहिंसा आती है और अहिंसा से ब्रह्मचर्य। दोनों एक ही साध्य के दो पार्श्व हैं। इनमें पौर्वापर्य नहीं है।
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