Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir TrustPage 18
________________ परमपूज्य चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज का प्रेरक व्यक्तित्व और रचनात्मक कृतित्व - 'जैन विद्यावारिधि' सुमत प्रसाद जैन, एम्. ए. विदेशी आक्रमणों, केन्द्रीय सत्ता के अभाव और विभिन्न राज्यों में शासकों की धर्मान्धता के कारण लुप्तप्रायः दिगम्बर जैन साधुओं की परम्परा को नया जीवन प्रदान करने में परमपूज्य चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज का विशेष योगदान है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज की दृष्टि में - "दिगम्बर जैन समाज में संयम के नवप्रभात के आप ही सर्वप्रमुख सूत्रधार थे। आपने ही आधुनिक युग में भगवान महावीर के धर्म को प्रचारित तथा प्रसारित करने में और जैन संस्कृति की सुरक्षा में अभिनन्दनीय कार्य किया है।" ___आचार्यश्री जैन संस्कृति के सजग प्रहरी रहे हैं। पखण्डागम के सूत्रों में से चार-पांच हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थ नष्ट हो गया है - यह जानकर श्रुत संरक्षण के लिए परमपूज्य श्री धरसेनाचार्य की भांति ही वे चिन्तित हो गए। रात्रि में आचार्यश्री विचार करते रहे कि भगवान् महावीर की वाणी इन सूत्रों में निवद्ध थी। चार-पांच हजार श्लोक नष्ट हो गए, शेष की रक्षा किस प्रकार की जाए? दूसरे दिन ही आपने श्रावकों से कहा, हमारे मन में ऐसी इच्छा होती है कि सिद्धान्त ग्रन्थों के संरक्षण के लिए उन्हें ताम्रपत्रों पर खुदवाया जाए। संघपति ने कहा – “महागज, यह काम मैं कर दूंगा।" आचार्यश्री ने कहा – “यह कार्य सवकी तरफ से होना चाहिए।" यह कहकर महाराजश्री सामायिक पर चले गए। उनकी अनुपस्थिति में श्रद्धालु श्रावकों ने डेढ़ लाख का फंड एकत्र कर दिया। इस प्रकार से ताड़पत्रीय पटखण्डागम की प्रति को ताम्रपत्रों पर सदा-सदा के लिए सुरक्षित कर दिया गया। धर्म, साहित्य और संस्कृति की सेवा में आचार्यश्री ने स्वयं को समर्पित कर दिया। उनके महान अवदान को दृष्टिगत करते हुए राष्ट्रीय कवि श्री वालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने एक अवसर पर सत्य ही कहा था - "जैन लाग सोचते हैं किPage Navigation
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