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वर्ष २ किरण १] श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ?
११ ....... श्रीमान् कोंगणि-महाधिराज है। ऐसी हालत में कुन्दकुन्दका पिछला समय अविनीतनामधेयदत्तस्य देसिगणं कोण्ड- उक्त ताम्रपत्रसे २०० वर्ष पूर्वका तो सहज ही में हो
जाता है । और इसलिये कहना होगा कि कुन्दकुन्दाकुन्दान्वय-गुणचन्द्रभटार-शिष्यस्य अभ[य] चार्य यतिवृषभ से २०० वर्ष से भी अधिक पहले णंदिभटार तस्य शिष्यस्य शीलभद्रभटार- हुए हैं। शिष्यस्य जनाणंदिभटारशिष्यस्य गुणणाद- मर्कराके इस ताम्रपत्रसे यह बात भी स्पष्ट भटार-शिष्यस्य वन्दणन्दिभटारो अष्ट- होजाती है कि कुन्दकुन्दके नियमसारकी एक अशीति-उत्तरस्य त्रयो-शतस्य सम्वत्सरस्य गाथा में * जो 'लोयविभागेसु' पद पड़ा हुआ है माघमासं......"
उसका अभिप्राय सर्वनन्दीके उक्त लोकविभाग ग्रंथ
से नहीं है और न हो सकता है; बल्कि बहुवचनान्त ___ इस ताम्रपत्रसे स्पष्ट है कि शकसंवत ३८८ में
पद होनेसे वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक जिन प्राचार्य वन्दनन्दीको जिनालयके लिये एक
ग्रंथविशेष का भी वाचक नहीं है । वह तो लोकविभागाँव दान किया गया है वे गुणनन्दीके शिष्य थे,
गविषयक कथनवाले अनेक ग्रंथों अथवा प्रकरणोंगुणनंदी जनानंदीके, जनानंदी शीलभद्रके, शीलभद्र के संकेतको लिये हुए जान पड़ता है और उसमें अभयनंदीके और अभयनंदी गुणचन्द्राचार्यके खुद कुन्दकुन्द के 'लोयपाहुड'-'संठाणपाहुड' जैस शिष्य थे । इस तरह गुणचन्द्राचार्य वन्दनंदीसे पाँच
ग्रंथ तथा दूसरे लोकानुयोग अथवा लोकालोकके
नशा पीढ़ी पहले हुए हैं और वे कोण्कुन्दके वंशज थे- विभागको लिये हुए करणानुयोग-सम्बंधी ग्रंथ उनके कोई साक्षात शिष्य नहीं थे।
भी शामिल किये जा सकते हैं। बहुवचनान्त पदअब यदि मोटे रूपसे गुणचंद्रादि छह आचार्यों के साथ होनेसे वह उल्लेख तो सर्वार्थसिद्धिके का समय १५० वर्ष ही कल्पना किया जाय, जो उस “इतरो विशेषो लोकानुयोगतो वेदितव्यः (३-२) समयकी आयुकायादिककी स्थितिको देखते हुए इस उल्लेखसे भी अधिक स्पष्ट है, जिसमें विशेष अधिक नहीं कहा जासकता, तो कुंदकुंदके वंशमें कथन के लिये 'लोकानुयोग' को देखने की प्रेरणा होनेवाले गुणचंद्रका समय शक संवत् २३८ (वि० की गई है, जोकि किसी ग्रंथ-विशेषका नाम नहीं सं० ३७३) के लगभग ठहरता है । और चूंकि गुण- किन्तु लोकविषयक ग्रंथसमूहका वाचक है । चंद्राचार्य कुंदकुंदके साक्षात शिष्य या प्रशिष्य नहीं और इसलिये 'लोयविभागेमु' इस पदका जो अर्थ थे बल्कि कुन्दकुन्द के अन्वय (वंश) में हुए हैं कई शताब्दियों पीछे केटीकाकार पद्मप्रभने “लोकऔर अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिये कम से कम विभागाभिधानपरमागमे" ऐसा एक वचनान्त ५० वर्षका समय मानलेना कोई बड़ी बात नहीं किया है वह ठीक नहीं है। उपलब्ध लोकविभाग* वह गाथा इस प्रकार है:
"चउदहभेदा भणिदातेरिच्छासुरगणा चउब्भेदा। एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादवं" ॥१७॥