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प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो ?
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो!
पिछले प्रवचनों में हमने संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों को लिया था और उनमें से सत्ताईस भेदों पर अब तक यथाशक्य विवेचन किया जा चुका है। आज हमें अट्ठाईसवाँ भेद लेना है, जिसका नाम है 'पन्नापरिषह' । इसका अर्थ है-प्रज्ञा यानी बुद्धि का परिषह ।
आप विचार करेंगे कि क्या बुद्धि का भी कोई परिषह होता है ? और वह होता है तो किस प्रकार ? इस विषय को भगवान महावीर ने 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय की चालीसवीं गाथा में स्पष्ट किया है। गाथा इस प्रकार है
से नूणं मए पुग्वं कम्माऽणाणफला कडा।
जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणई कण्हुई ॥ प्रज्ञा या बुद्धि की प्राप्ति पूर्व पुण्य से होती है। ज्ञानावरणीय कर्मों का उपशम या क्षय होने पर ही व्यक्ति इस जन्म में ज्ञान हासिल कर पाता है । किन्तु ज्ञान की प्राप्ति हो या न हो, मनुष्य को दोनों ही स्थितियों में समभाव रखना चाहिए । अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है तो निश्चय ही संवर-मार्ग पर बढ़ने के बदले आश्रव की ओर चल पड़ता है।
आपके हृदय में प्रश्न होगा कि ऐसा क्यों ? वह इसलिए कि अगर व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया पर इसके परिणामस्वरूप उसके मन में गर्व की भावना आ गई कि मैं अत्यन्त ज्ञानी, विद्वान् या पण्डित हूँ तो वह आश्रव की ओर बढ़ेगा यानी कर्मों का बन्धन करता चला जाएगा और अगर किसी व्यक्ति को ज्ञानावरणीय कर्मों का निविड़ बन्ध होने से ज्ञान हासिल नहीं हो पाएगा
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