Book Title: Agam Jyot 1968 Varsh 03
Author(s): Agmoddharak Jain Granthmala
Publisher: Agmoddharak Jain Granthmala

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Page 217
________________ - આગમત पापकी असली पहचान असली पापोंको पिछाणो तो सही, नवतत्व पढा कितना? असलमें करमका भेद जो नहीं जाणता है तो पाप कौन ? पुन्य कौन ? वह किस तरह पहचान सकेगा. गेहूंके कांकरेकुं जो पिछाणे नहीं तो गेहूंसें कांकरेकुं अलग कैसे करेगा ? इसी तरह कर्म जो नहीं मानता है ओर जानता है तो इसका १५८ जो भेद है उसका लक्ष नहीं देता है तो जाननेसे क्या ? १५८ प्रकृतिमें पुण्य कौन है ? पाप कोन हे ? मात्र पुण्य पाप बोल देनेसे क्या तत्त्वपाया ? ___अब आगे चलें! पापके भेदमें मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, और केवलज्ञानावरणीयकुं में हरदम बांध रहा हूं, इससे मैं पाप बांध रहा हुं अवधिज्ञानावरणीय, मन ! पर्यवज्ञाना परणीय यह भी ख्यालमें आया जब तक दसमें गुगठाणे गया नहीं, सूक्ष्मसंपराय गुणठाणा तक नहीं गया तबतक तो ज्ञानावरणीय कर्म जरुर बंधाता है. गुमडा हो गया नींदमें भी उसमें पीप होता रहेता है इसी तरहसे संसारी आत्मा मति और श्रुतज्ञान पूर्ण पाया नही है. मोहनीय कर्म भी हर समय बंधाता है हर समय ज्ञानगुणका नाश हो रहा है. दर्शनरूप जो आत्माका स्वरूप है उसका भी नाश होता है. पाप क्या चीन है ? णाणंतरायदसगं णव बीए णी-असाय मिच्छत्तं । थावर दसणंरय तिणं, कसायपणवोस तिरियदुगं ॥१॥ इग-बि-ति-चउजाइओ कुखगइ उवधाय टुंति पावस्स । अपसत्थं वण्णचउ अपढमसंघयण-संठाणा ॥२॥ पापकी बंयाशी जो प्रकृति वो इन दो गाथामें बतलाई है, अंतराय भी सब पापमें माना हे, केवलज्ञान जहां तक नहीं पाया तब तक, पापमें गिरे हुए हैं, आन्मा की दशाका भान नहीं हुवा हैं, अविरतिकुं पाप

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