________________
આગમત द्रव्य को बढाने में कितना बड़ा फल है ? क्योंकि जैन शासन में सिवाय तीर्थङ्कर पने के दूसरा बड़ा पद ही नहीं है और वह पद इस चैत्यद्रव्य की वृद्धि से मिलता है. ऐसी शङ्का नहीं करनी कि तीर्थंकर नाम कर्म बांधने के लिये शास्त्रकारों ने अरिहन्त आदि २० पदों का आराधन ही कहा है लेकिन वहां देवद्रव्य वृद्धि का उल्लेख नहीं है, ऐसी शंका नहीं करने का कारण यह है कि अरिहंतादि २० पद जिनकी आराधना से तीर्थंकर गोत्र का बन्ध और निकाचन होना माना है. उसमें अरिहन्त पद की आराधना मुख्य है और देवद्रव्य की वृद्धि मुख्यता से श्री अरिहन्त भगवान की भक्ति के लिये ही है, तो अरिहन्त की भक्ति के अध्यवसाय से देवद्रव्य बनाने वाला जीव तीर्थंकर पना पावे उसमें कौनसे ताज्जुब की बात है ? और इससे हो शास्त्रकार महाराज हरिभद्र सूरिजी देवद्रव्य वृद्धि करने वाले जीव को तीर्थकर नाम गोत्र का बन्ध दिखाते हैं. वह अतिशयोक्ति नही है । देवद्रव्य बढाने वाला उत्कृष्टाध्यवसाय में होवे तब तीर्थंकर पना पावे, लेकिन मध्यम या मन्द परिणाम होवे तब भी चैत्य और चैत्यद्रव्य का उपकार करने वाला गणधर पदवी और प्रत्येक बुद्ध पना पाता है, देखियेयह पाठ
चेइयकुलगणसंधे उवयारं कुणइ जो अणासंसी । पत्तेयबुद्ध गणहर तित्थयरो वा तओ होइ ॥४१९॥
इस गाथा में श्रीमान् हरिभद्र सूरिजी फर्माते हैं कि पौद्गलिक इच्छा विनाका जीव चैत्य, कुलगण और संघ को जो सहारा देता है वह प्रत्येक बुद्धपना पाता है या गणधरपना पाता है या आखिर में तीर्थंकर भी होता है, आखिर में श्री हरिभद्र सूरिजी महाराज दिखाते हैं कि कम से कम परिणाम वाला भी देवद्रव्य वृद्धि करने वाला जीव सुर असुर और मनुष्य का पूज्य होकर कर्म रहित होकर मोक्ष जाता है देखो यह गाथा ।
परिणामविसेसेणं एत्तो अण्णयर भावमहिगम्म । सुरमणुयासुरमहिओ सिज्झति धुयकिलेसो ॥४२०॥