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આગમત में दोष दिखाते हैं कि-निर्माल्य का भक्षण करने से तिर्यञ्च गति में रुलना होता है, उल्लंघन करने से अनार्य जाति में जन्म होता है, शरीर से परिभोग करने से दूसरे जन्म में दुर्भाग्यपना होता है. भूतिकर्म में उपयोग लाने से देवता में भी अधम जाति का देव होता है ॥१५॥ निर्माल्य को भी अविधि से स्थापन करने में आइन्दे जन्म में भी बोधि नहीं मिलती हैं. इस तरह से पांचों तरह के निर्माल्य के अपमान में हानि बताई, अब उसके लिये दृष्टांत दिखाये हैं. .. अनुक्रम से ये पांचों दृष्टांत हैं. भक्षण में देवकुमार, उल्लंघन में पुरन्दर कुमार, परिभोग में श्यामा, भूतिकर्म में अमरराजा और अविधि त्याग में संवरराजा, याने इन पांचों ने उपर कहे मुजब भक्षणादि किया और इससे तिर्यञ्च भव में रुलना आदि कियाँ ॥१५१॥ इससे श्रीमान् हरिभद्रसूरि फरमाते हैं कि अच्छे सज्जन आदमी को सर्वथा अविधि का त्याग करना चाहिये क्योंकि मोक्षमार्ग वाले को आशातना का त्याग करना वही मोक्ष कारण है।
इस उपर के लेख से खुद देवद्रव्य का रक्षण करना कितना जरूरी है, वह तो मालूम हो गया होगा लेकिन आखिर की सम्बोध प्रकरण की गाथाओं से जरूर समझ में आ गया होगा कि निर्माल्य का भी विधि से उपयोग करना जरूरी है। ___देबद्रव्य के रक्षण में कितना फायदा है ? यह बात सीधे रूप से तो उपर दिखा चुके हैं, लेकिन अर्थान्तर से मी शास्त्रकार महाराज फर्माते हैं कि किसी एक साधु को उत्कृष्ट में उत्कृष्ट अनवस्थाप्य या पाराश्चिक प्रायश्चित्त करता भी हो लेकिन ऐसे मौके पर चैत्य द्रव्य का नाश होता होवे
और उसको वह अनवस्थाप्य या प्रायश्चित्त वाला बचा दे तो उनका शेष पारा० या अन० प्रायश्चित्त एक दिवस से कुछ या बारह वर्ष के तप का होवे वह भी माफ होता है, वह पाठ इस लेख के आखिर के भाग में दिया है.