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पुस्त। 3और रक्षण में लगने की कितनी जरूरत है, वह वाचक गण आप ही आप समझेंगे।
उपर लिखे मुजब क्षेत्र हिरण्यादि नाम गौ आदि द्रव्य के रक्षण की जरूरत है, इतना ही नहीं लेकिन खुद भगवान की पूजा का निर्माल्य भी कैसे बचाना और उसमें भी कितनी विधि रखनी और आशातना से बचना चाहिये, न बचे तो कैसा नुकसान होता है यह बात निम्न लिखित गाथाओं से मालूम हो जायगा। ___ "पुप्फाई ण्हवणाई णिम्मल्लं जं हवे जिणिंदाणं । जं ठावइ विहिपुव्वं जत्थासायणपरं ण हवे ॥१४७॥ जइवि हु जिणंगसंग णिम्मल्लं णेव हुज कइयावि । णिस्सीकं लोयगुणा ववहारगुणेहि णिम्मलं ॥१४८॥ भक्षण-पाउल्लंघण-णियंगपरिभोय-भूइकम्म परं । अविहिछावणमेवं णिम्मल्लं पंचहा वज्ज ।।१४९॥ तिरियभवहेउ भक्खणमणज्जजाईसु हविज उल्लंघो । दोहग्गं परिभोगो भूइ कम्मे आसुरी जाई ॥१५०॥ अविहिवणमबोहिलाहो हुन्जा णिदंसणाणित्थ । देवपुरंदरकुमरा सामत्थी अमरसंवरणिवा ॥१५१॥
जिनेश्वर महाराज के पुष्प वगैरा और स्नात्र का पानी विगैरेः जो निर्माल्य है वह भी विधि पूर्वक वहाँ स्थापना चाहिये कि जहाँ पर आशातना न होवे ॥१४७॥ जो कि जिनेश्वर महाराज के अङ्ग को लगा हुआ पदार्थ कमी भी निर्माल्य नहीं होता है, लेकिन लौकिक गुण और व्यावहारिक गुण की अपेक्षा से शोभा रहित होने से निर्माल्य गिना जाता है ॥१४५॥ उस निर्माल्य का भक्षण नहीं करना चाहिये १, पांव के नीचे नहीं लाना या उल्लंघन नहीं करना २, अपने शरीर के उपयोग में नहीं लेना ३, कामण टुमण वगैरा भूतिकर्म में उपयोग नहीं करना ४, अविधि से फेंकना नहीं ५, इस तरह से निर्माल्य की भी अविधि आशातना पांच तरह से वर्जन करनी चाहिये ॥१४९॥ अब इस निर्माल्य के भक्षण वगैरा