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पुस्त। 3
इस उपर के पाठ को सोचते मालूम होगा कि जो साधु भगवान् की द्रव्य पूजा करे उसको अपने पास द्रव्य नहीं होने से मन्दिर का ही द्रव्य वापरना पडे और यह दोष बडा है ऐसा गिन (मान) कर श्री महा निशीथसूत्र में फर्माया है कि:
सेभयवं जे णं केइ साहू वा साहुणी वा निग्गंथे अणगारे दबत्थयं कुज्जा से णं किमालवेज्जा ?, गोयमा! जे णं केइ साहू वा साहुणी वा निग्गंथे अणगारे दव्यत्ययं कुजा, से णं अजएइ वा असंजए वा देवभोइए वा दबच्चगेइ वा जाव णं उम्मग्गपइट्ठिएइ वा दुरुज्झियसीलेइ वा कुसीलेइ वा सच्छंदयारिएइ वा आलवेज्जा॥३८॥
हे भगवान ! जो कोई भी साधु साध्वी निर्ग्रन्थ अनगार द्रव्यस्तव करे उसको क्या कहना ? भगवान फर्माते हैं कि हे गौतम ! जो कोई भी साधु या साध्वी निर्ग्रन्थ अनगार द्रव्यस्तव करे तो उसको अयत असंजत देवभोजी देवार्चक यावत् एकान्त सन्मार्ग पतित शील रहित कुशील और स्वच्चन्द कहना ॥३८॥
याने जो निर्ग्रन्थ होकर भगवान का पूजन करे तव भी वह देवभोजी है याने देवभोजी होना यह साधु के लिये बडा में बडा दोष है और इसी से श्रीमान् हरिभद्र सूरिजी चैत्य वास को और देवादि द्रव्य के भोग अधमाधम दिखाते हैं।
(चाल)
પ્રકાશક : શ્રી આગદ્ધારક ગ્રંથમાળા વતી શાહ રમણલાલ જેચંદભાઈ
४१५४ ००१२, भु. ४५७०४. भु : श्री. यन्ति सास, संत नि. प्रेस, पी। २७,
ઘેલાભાઈની વાડી, અમદાવાદ,