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पुस्त। 3- .
परिणाम की तारतम्पता होने से कोई भी जघन्य परिणाम से देवद्रव्य की वृद्धि करने वाला सुर असुर मनुष्य से पूजित होकर कर्म रहित बनकर मोक्ष पाता है।
अब सोचिये ! जिस देबद्रव्य की वृद्धि से चरम शरीरीपना प्रत्येक बुद्धपना गणधरपना और तीर्थंकरपना मिलता है, उस देवद्रव्य की वृद्धि करनी वह हरेक भव्यात्मा की फर्ज है कि नहीं? यह देवद्रव्य की वृद्धि होती है ऐसा मत समझिये, किन्तु श्रीमान् महावीर महाराज के वख्त भी श्रेणिक महाराजा तीनों ही काल सुवर्ण के १०८ जव से भगवान का पूजन करके देवद्रव्य बढाते थे, इस सोना के जवके विषय में मेतार्य मुनिका दृष्टान्त सभी भव्य जीवों के ख्याल में है, ही देखिये वह आवश्यक का अधिकार
तत्थेव रायगिहे हिंडइ, सुवण्णकार गिहमागओ, सो य सेणियस्स सोवणियाणं जवाणमट्ठसतं करेइ, चेइयच्चणियाए परिवाडिए सेणिओ कारेइ तिसंज्झं । ___ मेतार्य मुनि वहां राजगृही में गोचरी फिरते हैं, सोनी के घर पर आये, वह सुनार श्रेणिक राजा के १०८ जब सोने के करता है क्योंकि श्रेणिक परिपाटि से चैत्य में पूजन ने लिये त्रिकाल १०८ जब करता है. .
इसी तरह से श्रीमान् महावीर महाराज के वख्त में ही सिंधु-सौवीर के महाराज उदायन राजा की मूर्ति को जीवित स्वामी श्री महावीर महाराज की प्रतिमा के लिये चण्डप्रद्योतन ने बारह हजार गांव दिये हैं, देखिये महाराज यह पाठ
विद्युन्मालिकृताय तु, प्रतिमायै महीपतिः। । प्रददौ द्वादश ग्रामसहस्रान् शासनेन सः ॥६०६॥
याने राजा चण्डप्रद्योतन ने विद्युन्माली देव की बनाई हुई जीवित