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પુસ્તક રૂ-જુ चैत्याश्रयेण संविग्नगीतार्थसाधुभिरनवरतं सिद्धान्तव्याख्यानादिभिस्तथा तथा प्रपन्च्ययानैः सम्यगज्ञानगुणवृद्धिः सम्यग्दर्शनगुणवृद्धिश्च सम्पद्यते । इति चैत्यद्रव्यरक्षाकारिणो मोक्षमार्गानुकूलस्य प्रतिक्षणं मिथ्यावादिदोषोच्छेदस्य युज्यंत एव परीत्तसंसारिकबमिति ॥४१७॥ मूलगाथा सम्बोध प्रकरण जैसी होने से अर्थ उसी मुजब जानना.
टीकाकार मुनिचन्द्र सूरिजी फर्माते हैं कि भगवान अरिहंत महाराज के शासन की उन्नति करने वाला और इसी से ही वाचना पृच्छना परावर्तना अनुपेक्षा ओर धर्मकथा रूप ज्ञान का और जिनेश्वर महाराज के यात्रादिक महा महोत्सव रूप दर्शन गुण का विस्तार हेतु भूत द्रव्य है, उसकी साधु या श्रावक रक्षा करे तो थोड़े ही भव में मोक्ष जाता है, क्योंकि जिन द्रव्य से मन्दिर के कार्य बड़े उन्नति में आवे और वह उन्नति देखकर भव्य जीव निर्वाण का मुख्य कारण जो बोधिबीजादि उनको देने वाला बड़ा हर्ष होवे
और चैत्य के कारण से ही संविग्न गीतार्थ साधुओं का आना होवे और उसके पास विस्तार से सिद्धान्त के व्याख्यानादि सुनने से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की वृद्धि होती है, इसी से चैत्यद्रव्य की रक्षा करने वाला मोक्षमार्ग के अनुकूल है और वह रक्षा करने वाला समय समय मिथ्यात्वादि दोष का नाश करने वाला होता है और इसी से कम भव में मोक्ष जाता है ।
देवद्रव्य का रक्षण करने से ऊपर कहे मुजब बहुत फायदा है, इसी से ही तो चैत्यद्रव्व का क्षेत्र हिरण्य, गाँव गौएं आदि के बचाव के लिये साधु को भी प्रयत्न करना ऐसा पञ्चकल्प भाष्यकार महाराज भी फर्माते हैं । और उसी उपर वादी शंका करता है कि सर्वथा परिग्रह से विरक्त त्रिविध त्रिविध परिग्रह के त्यागी महात्मा को इस कार्य से देवद्रव्य के बहाने से भी परिग्रह की रक्षा दोष क्यों नहीं लगेगा ? ऐसी की हुई शङ्का के समाधान में भी भाष्यकार महाराज साफ २ फर्माते हैं कि देवद्रव्य के रक्षण में सर्व