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આગમત भद्रिक लोग देवद्रव्य की व्यवस्था से या देवदव्य के प्रसङ्ग से ही दूर रहते हैं, लेकिन यह दूर रहना आत्मा का उद्धार करने से दूर रहना ही है, क्योंकि जगत् में जैसे अग्नि दुरुपयोग से रखी जावे तो बडा जुल्म करती है, ऐसा प्रत्यक्ष सुनते हैं और देखते भी हैं, तथापि अग्नि का निरुपयोगीपना नही मानते हैं. लेकिन सावधानी से अग्नि सेवन करते हैं, क्योंकि उसी से ही खान पानादि बनने द्वारा जीवन का निर्वाह है. इसी तरह से इधर भी देवद्रव्य के नाश में और उपेक्षा में अपरिमित दोष है, लेकिन रक्षण में और बढाने में फल भी वैसा ही है. देखो ! श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी क्या लिखते हैं
"जिणपवयणवुदिडकरं पभावगं णाणंदसणगुणाणं । रक्वतो जिणदव्यं परित्तसंसारिओ भणिओ ॥९८॥
जिन प्रवचन की वृद्धि करने वाला और ज्ञान-दर्शन गुण की प्रभावना करने वाला ऐसा जिनद्रव्य है इससे उसकी रक्षा करने वाला जीव 'परित्त संसारी' याने बहुत कम संसार वाला होता है. ___श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी का सम्बोध प्रकरण में कहा हुआ यह वाक्य रक्षा का कैसा फल दिखाता है, वह देखिये ! उपदेश पद में भी यहो फर्माते हैं, देखिये वह पाठ
जिगपवयणवुदिडकरं पभावगं णाणदंसणगुणाणं! जिन प्रवचनवृद्धिकरं भगवदर्हदुक्तशासनोन्नतिसम्पादकम् अतएव (प्रभावक) विभावनं विस्तारहेतुः।
केषामित्याह-ज्ञानदर्शनगुणानाम् । तत्र ज्ञानगुणा वाचना पृच्छनापरावर्तना अनुप्रेक्षा-धर्मकथालक्षणाः, दर्शनगुणाश्च सम्यक्वहेतवो जिनयात्रादिमहामहरूपाः, रक्षेत्रायमाणो जिनद्रव्यं निरूपितरूपं, साधुःश्रावको वा परित्तसंसारिकः परिमितभवभ्रमणभाग भवतीति । तथाहि-जिनद्रव्ये रक्षिते सति तद्विनियोगेन चैत्यकार्येषु प्रसन्नमुत्सर्पत्सु भविनो भव्याः समुद्गतो दग्रहर्षाः निर्वाणावन्ध्यकारणबोधिवीजादिगुणभाजो भवन्तीति। तथा,