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Yस्त 3-d दोहिच्चं दुग्गयं लहइ ॥१०१॥ चेइयदव्वं साहारणं च भक्खे विमूढमणसावि। परिभमइ तिरियजोणीसु अण्णाणत्तं सया लहइ ॥१०३॥ भक्खेइ जो उविक्खेइ जिणदव्वं तु सावओ। पण्णाहीणो भवे जीवो लिप्पइ पावकम्मुणा ॥१०४॥ चेइय दबविणासे रिसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजइ चउत्थभंगे मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥१०५॥ चेयदबविणासे तदयविणासणे दुविहभेए । साहू उविक्खमाणो अणंत संसारिओ भणिओ ॥१०६॥"
श्रीमान हरिभद्र सूरिजी फर्माते हैं कि जैन प्रवचन की वृद्धि करने वाला ज्ञान दर्शन गुण की प्रभावना करने वाला ऐसा जो देवद्रव्य है, उसके नाश की उपेक्षा करने वाला जीव दुर्लभवोधिपना करता है याने भवान्तर में भी उसको सम्यक्त्व भी प्राप्त होना मुश्किल है. इसी तरह १०० मी गाथा में कहा है कि बैसे द्रव्य का भक्षण करने वाला अनन्त संसारी है ऐसा ज्ञानियों ने कहा है फिर १०१ में कहते हैं कि वैसे देवद्रव्य का द्रोह करने वाला जीव दुर्भाग्य द्रोहीपणा और दुर्गति को पाता है. १०२ में चैत्यद्रव्य साधारण द्रव्य का भक्षण अज्ञानता से जो भी करता है तिर्यञ्च की योनि में जाता है और हरदम अज्ञानी रहता है. १०४ में जो श्रावक देवद्रव्य का भक्षण करे या देवद्रव्य के नाश की उपेक्षा करे वह श्रावक एसे पाप कर्म से बन्धाता है कि जिससे उसका (भव भव में) बुद्धि रहितपना होता है. १०५ में देवद्रव्य का नाश करे, साधु की हत्या करे, शासन की उड्डाह करे, या साध्वी के चतुर्थ व्रत का भङ्ग करे इन चारों में से कोई भी कार्य करे तो सम्यक्त्व की प्राप्ति में मूल में अग्नि लगाता है। १०६ चैत्यद्रव्य का नाश बेदरकारी से होबे अगर उस द्रव्य का दोनों पक्ष में से किसी भी पक्ष का नाश होवे तो वह अनन्त संसारी होता है ।
इन उपर्युक्त वाक्यों से देवद्रव्य का नाश करने में या उपेक्षा करने में कैसा दोष है ? यह वात वाचकों को स्पष्ट रीति से मालूम हो गई होगी.
देवद्रव्य के नाश में या उसकी उपेक्षा में ऐसा दोष देखकर कितनेक