________________
पुस्त। 3પૂ. ગણીવર્ય શ્રી કૈલોક્યસાગરજી મ. પાસે આ પુસ્તિકા જોઈ અને પૂ૦ આગોશ્રીની ઓજસ્વિની શૈલિમાં લખાએલ દુર્લભ તે હિંદી કૃતિને “આગમત”ના જિજ્ઞાસુ વાચકને ઉપયોગી ધારી व्यवस्थित३ सपान ४२री मी सालार मायामा मावे छ. सं.) ___ चैत्यद्रव्य याने देवद्रव्य के विषय में किसी का उज्र नहीं है, क्योंकि जो लोग चैत्यको या चैत्य में विराजमान की हुई भगवान की मूर्ति को मानने वाले हैं, उनको यह मालूम ही है और माना हुआ भी है कि चैत्य
और प्रतिमा जैसी वस्तु की हरदम हयाती के लिये और तरक्की के लिये द्रव्य की जरुरत रहती ही है, द्रव्य शब्द का माइना केवल पैसा रुपया ही नहीं है, लेकिन कोई भी चीज मन्दिर की या मूर्ति के सम्बन्ध की हो चाहे पीछे वह चीज उपयोगी हो या बिन उपयोगी हो लेकिन उसको देवद्रव्य या चैत्य द्रव्य कहा जाता है, और उस द्रव्य का किसी भी तरह से नाश करना या अपने उपयोग में लेना साधु या श्रावक कोई भी हो लेकिन उसको डुबाने वाला ही है. ऐसा नहीं समझना कि उपयोगी द्रव्य जो होवे उसका नाश करना यही दोष का कारण हो, किन्तु जो द्रव्य चैत्य में उपयोगी नहीं है, वैसे का नाश होने में दोष कैसे लगे ? क्योंकि जो द्रव्य वहां पर बिन उपयोगी है वह भी देवद्रव्य होने से नाश करने वाले को उपयोगी द्रव्य के जैसा ही दोष करने वाला है, इसलिये श्रीमान हरिभद्र सूरीजी महाराज उपदेशेपद में दोनो तरह के द्रव्य का नाश करने वाला साधु होवे तब भी उसको अनन्त संसार रुलने का कहते हैं, देखिये यह पाठ.
" चेइयदव्य-विणासे तद्दबविणासणे दुविह भेए। साहू उवेक्खमाणो अणंत संसारिओ भणिओ ॥४१५॥
याने जो चैत्य द्रव्य अपनी लापरवाही से नाश पावे वो नया हो या जूना याने उपयोगी या बिन उपयोगी दोनों तरह के चैत्यद्रव्य का नाश करने वाला तो अनन्त संसारी होवे ही, लेकिन उसकी उपेक्षा करने वाला
१०