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पिअकरणे तम्भावणा भाविते अणत्य कथ्यइ मण
अकुव्वमाणे उवउत्ते जिण वयण धम्माणु रागरत्ते तम्मण्णे उभयोकाले आवस्मयं करेति से लोगोत्तरियं भावावस्मयं से मोआगमतो भावावस्सयं से भावावस्सयं। इमे एगहिआ णाणा घोसा णाणा वंज णाणा मधेजा भवंति तंजहा आवस्तयं अवस्त करणियं धुव निग्गहो विसोहीय अज्झयणं छक्कवग्गो नाओ आराहणमग्गो॥ १॥ समणेणं सावएणय अ. वस्त कायव्वं दवति जम्हा अंतो अहो निसस्लय तम्हा आवस्सय नाम ॥ से आवस्मयं ।।
अथ-शिष्यने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! लोकोत्तर भावावश्यक कौनसा है? तव गुरुने उत्तर दिया कि भो शिष्य! जो साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, एकाग्र चित्तसे एकाग्र मनसे एकाग्र अव्यवसायोंसे अर्थका उपयोग करते हुए, और आवश्यकमे पूर्ण प्रीति रखते हुए उसीकी पूर्ण भावना करते हुए अन्य कही भी मनको न करते हुए उपयोगपूर्वक जिन वचन और धर्ममें रंगे हुए जो दोनों समय आवश्यक करते है उसे लौगोतर नोआगम मावावश्यक कहते है । और आवश्यक सूत्रका, एक ही अर्थ है किन्तु नाना प्रकारके उदात्तादि घोष है और नाना प्रकारके ही इसके व्यंजन है और यह अवश्य करणीहै, ध्रुव है, निग्रह करनेवाला है, न्याय पूर्वक है, आराधक होनेका मार्ग है, और रात्रिदिवसके अतरमें दोनों काल साधु,सान्वी, श्रावक, श्राविकाओंको अवश्य करणीय है, इस लिये ही इसका नाम आवश्यक है । सो इस आवश्यक सूत्रके दो भाग है। द्वितीय भागमें साधु सावीक पट आवश्यक और इस प्रथम भागमें श्रावक श्राविकाओंके अवश्य करणीय पट् अन्याय लिखे गए हैं। और श्री श्री श्री पूज्य १००८ श्री अमरसिंहनी महाराजकी आम्नायानुसार है, क्योंकि-श्रीश्री श्री आ-'