Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 63
________________ लेवे तो चतुर्य अतिचार है। यदि पर विवाहका प्रथमवत् ही अर्थ किया जाए तो वह अर्थ सूत्रानुसार संवटित नहीं होता है क्योंकि जिस बातका श्रावकने नियम ही नहीं किया है तो भला उसका अतिचार कहांसे होगा? किन्नु जो स्वदारसंतोष व्रत है उसमें उक्त लिखा हुआ अर्थ युक्तिपूर्वक सिद्ध है, इस लिये किसीके उपविवाहको छीन कर उसे स्वयं. विवाह कर लेना सोई चतुर्थ अतिचार है। फिर (कामभोगेसु तिब्वामिलासा) काम भोगों में तीन अभिलाषा को हो तथा कामभोग आसेवनके लिये ओषधियोंका सेवन करना स्नान, व्यायाम, कामकी आशा पर तथा मादक द्रव्य ग्रहण करने यह पंचम अतिचार है। विकार केवल मोहनीय कर्मकी प्रबलतासे उदय होता है उसे वैराग्यादि द्वारा उपशम करना सुपुरुषोंका लक्षण है, न कि-उदय करना, इस लिए यदि उक्त प्रकारके अतिचार आसेवन किए हों तो (तस्स ) उनका (मिच्छा मि दुक्कडं ) अतिचार रूप पाप, मिथ्या हो॥ भावार्थ-श्रावकका चतुर्थ अनुवत स्वदारा संतोप है जिसका अर्थ यही है कि अपनी स्त्री पर संतोष करना तथा परस्त्री वेश्या आदिका परित्याग करना, क्योंकि कामको उपशान्ति केवल संनोष पर ही निर्भर है अन्य पदार्थों पर नहीं. सो परदारा वृत्ति अर्थात् स्वदारा मतोषी पुरुष देव देवीके साथ मेथुनका त्याग द्विकरण तीन योगसे करे और मनुष्य वा नियंग सम्बन्धि एक करण एक ही योगसे करे और जिसके सर्वथा ही मैथुन सेवनका परित्याग होवे निस भांगे करे उसी भागेकी आलोचना करे, किन्तु इस व्रतके जो पांच अतिचार है उनका स्वरूप पदार्थमै लिख दिया है, कितु जो प्रथम अर्थ विधवा प्रमुखका वा वेश्यादिका करने है वह अर्थ युक्तिपूर्वक सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि स्वदार संनोपी व्रतके ग्रहण करने पर ही उक्त वेश्यादिका परित्याग होता है, इस लिए जो अर्थ श्री आचार्य श्री पूज्यपाद सोहनलालजी महारानने प्रतिपादन किया है वहीं अर्थ युक्तिसाधित है ॥

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