Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संबी मोमानमार बोमवाहा. CHE श्री वर्द्धमानाय नमः ॥ श्री आवश्यक सूत्र ॥ ॥ प्रथम भाग ॥ (श्रावक प्रतिक्रमण) ANORAM हिंदी पदार्थ और भावार्थ कर्ता, जैन मुनिश्रीउपाध्याय आत्मारामजी (पंजावी बार प्रकाशक, क) श्रीमान लाला मुन्शीराम जिलेदार (कयनाल). पूर निमिष्टर कशोरीलाल गार बी.एस.सी.(गलासगो) स्टेट इंजनीयर, रयास्त फरीदकोट (पंजाव). श्री महावीरनिर्वाणाव्द २४४१ ॥ ई स. १९१५ ॥ प्रथमावृत्ति. प्रत १०००. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदावाद यह पुस्तक टकशालमें धी युनियन प्रिन्टींग प्रेस कंपनी लोमोटेडमें मोतीलाल सामळदासने छापा. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FORE WORD, This treatise hins been very kindly written by Upadbyaya Shroe Atma Ramji; to moet the longfelt want of tho Jain community for having a wellcompiled Hindi Avashyala Sutra (Jain prayer book“), at thọ request of S:-S: Jain Sabha, Purjab. The contints will assure the Jhin public of its superiority in true and idiomatic Hindi translation to such other publications. The reader will admin the true sense of the well considered commentary where ever required. The S. S. Jain Snbha Punjab, some time ago, resolved to get it published for the use of the Jain public and sent the inanuscript to Ajmer for consultation. It was by that time that Lala Munshi Ram Zilladar and M. Kishori Tual Gaui B. Sc. State Engineer, Faridkotz undertook to get-it published at their own expenses out of deep love for Jain religion. The S. S. Jain Sabha Punjab is very much indebted to the author, Upadhyaya Shree Atma Ramji as well as to the publishers. This publıcation will do immense good to the community as regards its daily prayers (fe ) and I am sure that the reader will be benefitted by its poi usal. The book is to some extent new in its style etc, and is worth reading as well as committing to memory for those who hold a religious bent of mind. S. S. Jain Sabha is also thankful to Lala Munshi Lal M. A., Government Pensioner, Lahore, for the labour of love he took in rendering this book into pure Hindi. KASUR. PERMAN AND B. A. Dist. Lahore } Pleader, Chief Court,-Punjab. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Opinion of Shriman Lala Munshi Lal Ji, W. A Government Pensioner, Lahore I have gone through the Hindi of the book named Avashyaka Sutia, written by Jain Muni Shri Upadhyaya Atma Ram Ji. The book is, indeed, a very useful one for the Sadhus and the Shrawakas. It lays down rules for the performance of daily worship and puts stress on the fact that our contemplation of the Supreme soul should be pure and uncontaminated and that we should lead a life of virtue and truth and be compassionate to all creatures. Such books are really worthy of being read and pationised by the general public. MUNSHI LAL M. A, Government Pensioner, LAHORE Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' अर्हम्. लेखककी प्रस्तावना ॥ t प्रिय महोदयवर ! आत्मोन्नति के लिये नित्य क्रिया करनी आव। श्यकीय है- क्योंकि इसके द्वारा जीव अपनी उच्च पदवीके योग्य हो जाता 1 है; - सो प्राणी मात्र के हित के लिये श्री अर्हन् देवने धर्मक्रिया वर्णन की हैं, जिनके धारण करनेसे इस लोक और परलोकमें जीव सुदर फलको अनुभव करता है। अपितु अंगसूत्र व उपांग सूत्र, च्छेद सूत्र, मूल सूत्र, कालिक सूत्र, उत्कालिक सूत्र इत्यादि सूत्रोंसे व्यतिरिक्त श्री भगवान् वर्द्धमान स्वामीने आवश्यक क्रियाओंको प्रतिपादन करनेवाला आवश्यक सूत्र रचा है जिसमें साधु सान्वी श्रावक श्राविकाओं के नित्य कर्मका सुंदर प्रकार से वर्णन किया गया है, जिसके षट् अध्याय है - जैसेकि - सामायिक १, चतुर्विंशनि स्तव २, वदना ३, प्रतिक्रमण ४, कायोत्सर्ग ५, प्रत्याख्यान ६, यही षटू आवश्यक अवश्य करणीय है जिनका फल श्री उत्तराध्ययन सूत्रके २९ वें अध्यायमें निम्न प्रकारसे लिखा है तथा च पाठः ॥ सामाइएणं भंते जीवे किं जणयइ सामाइएणं सावज जोगं विरइं जणयइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० ८ ॥ अर्थ - हे भगवन् ! सामायिक करनेसे जीव क्या फल उत्पन्न करता है ? हे गौतम! सामायिकके करनेसे जीव सावद्य ( पापके ) योगोंकी निवृत्ति करता है, क्योंकि समतारूप (सामायिक ) के करनेसे पापकें योगोंकी निवृत्ति होती है । फिर आत्मा सम्वरमें प्रवेश करके पापकर्मोंके बधनसे छूट जाता है | यह प्रथम आवश्यकका फल वर्णन किया || अथ द्वितीय आवश्यक विषय ॥ चडवीसत्यएणं मंते जीवे किं जणयइ । चउवीसत्यएणं दंसण विसोदिं जणयइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० ९ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-हे भगवन् ! चतुर्विंशति स्तव (लोगस्स उज्जोयगरे )के पठन करनेसे जीव क्या फल उत्पन्न करता है ? हे गौतम ! चतुर्विंशति स्तवका पाठ करनेसे जीव सम्यक्त्वकी विशुद्धि करता है क्योंकि-चतुर्विंशति तीर्थकरोकी स्तुति करनेसे जीव शुद्ध श्रद्धायुक्त हो जाता है ॥ अथ वंदना आवश्यक विषय ॥ वंदणएणं भत्ते जीवे किंजणयइ वंदणएणं नीया गोयं कम्मं खवेइ उच्चा गोयं कम्मं णिबंधइ सोहग्गं चणं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वनेइ दाहिण भावं चणं जणयइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० १०॥ ___ अर्थ-वंदना करनेसे हेभगवन् ! जीवको क्या लाभ होता है ? वंदना करनेसे हे गौतम : आत्मा ऐसे कर्मोंका नाश कर देता है जिनसे नीच घरानेमें जन्म हो, और ऐसे कौंको उपार्जन करता है जिनसे उच्च घरानमें जन्म हो, फिर लोग उससे प्रीति करने लगते है और इसका परिणाम यह होता है कि वह अविकारी वा माननीय पुरुष समझा जाता है, और सब लोग उसकी भलाई चाहते हैं तथा उसके अनुकूल हो जाते है । __ अथ *प्रतिक्रमण आवश्यक विपय ॥ पडिक्कमणेणं भने जीवे किं जणयइ पडिकमा - न्यानाग सूत्रके पंचम स्थानके द्वितीय उद्देशमें आसबके पच द्वार लिखे है जैसेकि-मिथ्यात्व १, अविरति २, प्रमाद ३, कषाय ४, योग ५। और पंच सम्बर के द्वार हैं जैसेकि-सम्यक्त्व १, विरति २, अप्रमाद ३, अकषाय ४, और अयोग ५॥ इनको धारण करना और पहिले पाचोंको दूर करना इसका नाम भी प्रतिक्रमण है। तथा ठाणागजीके पचम स्थानमें पाच प्रकारसे प्रति. सपा और भी वर्णन किया है ॥ यथा-पचविहे पडिक पणे ५० तं० आसबदार पदिकमणे , मिच्छत पहिकमा २, कसाय पडिकमणे ३, जोग पडिक ४, माघ पदिकमणे ५, तथा पटम म्याने, बिहे पटिक्कमणे पं० त० र पटियमणे , पासवण परिचमणे ., इत्तरिते ३, आवक्वहिते ४, कि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णेणं वयच्छिद्दाई पिहेइ पिहिय वयच्छिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबल चरित्ते असु पवयण मायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विदरइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० ११ ॥ अर्थ-प्रतिक्रमण करनेसे हे भगव ! जीव क्या फल उपार्जन करता है? प्रतिक्रमणके करनेसे हे गोतम ! जीव व्रतोंके छिद्रोंको ढांप देता है। फिर वह जीव निरास्त्रवी हो जाता है और उसका चारित्र भी नि>प हो जाता है । वह अष्ट प्रवचन दया मातासे भी युक्त हो जाता है अर्थात् ५ समिति ३ गुप्ति करके युक्त हो जाता है, और संयमके योगोंमें तत्पर हो जाता है, फिर संयमको बड़ी सावधानीसे पालन करता है ॥ ___ अब कायोत्सर्ग आवश्यक विषय ॥ काउसग्गेणं भत्ते जोवे किं जणयइ काउसग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोदेइ विसुद्ध पायच्छित्तेय जीवे निव्वुयहियए ओहरिय भरुव्व भारवहे पसस्थज्झाणो वगए सुहं सुहेणं विहरइ॥ उ० सू० अ० २९ सू० १२॥ चिमिच्छा ५, सोमणतित्ते ६, अर्थात् आस्रवद्वारोंसे निवृत्ति १, मिथ्यात्व और कषाय योग अशुभ भावोंसे भी निवृत्ति करना उसका नाम भी प्रतिक्रमण है। तथा षट् प्रकारसे भी प्रतिक्रमण वर्णन किया गया है जैसकि-विष्टा मूत्रके पश्चात् ईपिया पहियादिको पढकर लोगस्सका ध्यान किया जाता है वह भी प्रतिक्रमण है और जो देवसी राईसीको प्रतिक्रमण किया जाता है वह भी प्रतिक्रमण है यावत् जीव पर्यन्त महाव्रतरूप प्रतिक्रमण वा अनशन व्रतको धारण करना वह भी पापसे निवृत्ति रूप प्रतिक्रमण है। मिथ्याचरणसे पीछे हटना वह भी प्रतिक्रमण है और जो शया करनेके पीछे ध्यानादिक क्रिया की जाती है उसका नाम भी प्रतिक्रमण है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ දි अर्थ --- कायोत्सर्ग ( ध्यान ) के करनेसे हे भगवन् ! जीवको क्या फल होता है ? हे गौतम ! कायोत्सर्गके करनेसे भूतकाल और वर्तमान कालके अतिचारोंकी शुद्धि होती है, फिर अतिचारोंकी शुद्धि होनेपर जीव स्वस्थ चित्तवाला हो जाता है, जैसेकि - भारवाहक भारको उतारकर स्वस्थ चित्त हो जाता है, अतः फिर वह सुदर ध्यानयुक्त होकर सुखपूर्वक विचरता है ॥ अथ प्रत्याख्यान आवश्यक विषय ॥ पञ्चक्खाणं भंते जीवे किं जणयइ पञ्चक्खाणेणं आसव दाराई निरुभइ पञ्चक्खाणेणं इच्छानि रोहं जणयइ इच्छानि रोहंग एयणं जीवे सब दव्वेसु विणीय तण्डे सीयलभूए विहरइ ॥ उ०सू०अ०२९ सू०१३॥ अर्थ - प्रत्याख्यान करनेसे हे भगवन् ! जीवको क्या लाभ होता है ? हे गौतम ! प्रत्याख्यान करनेसे जीव आस्रवके मार्गोको ढाप देता है और इच्छाका निरोध कर देता है । फिर जब इच्छाका निरोध हो गया तत्र सर्व द्रव्योंसे उस जीवकी निवृत्ति हो जानी है अपितु निवृत्ति होनेपर फिर वह जीव शान्तिरूप होकर विचरता है | • सो यह पट् आवश्यक अवश्य करणीय है क्योकि इनके करनेसे आत्मा अपने निज स्वभावमे प्रवेश करने लग जाता है । पुनः श्री अनुयोग द्वारजी सूत्रमें आवश्यक सूत्रके चार निक्षेप किए है जैसेकि - नामावश्यक १ $ योगाभ्यास भी इसका एक अंश है || सूत्रकर्ताने सर्व जीवोंको सुगम रूप उदाहरणोंसे प्रतिबोधित किया जैसेकि हम स्थानपर भारवाहकका उदाहरण || + जो प्रतिक्रमणमें टघुत्रत गुर्जर भाषामें लिखे गये हैं वे इस देशके प्रथम है किन्तु जो बड़े व्रत के अतिचार है उनसे भी ध्यान किया जा सक्ता है || Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनावश्यक २ द्रव्यावश्यक ३ भावावश्यक ४ । सो भावावश्यक उभय (दोनों) काल अवश्य ही करणीय है किन्तु शोकसे लिखना पड़ता है कि अनेक विपत्तियोंके कारण सूत्रज्ञान अल्प हो गया, फिर मतभिन्नता के कारण बहुधा आवश्यक सूत्रमें अनेक गच्छधारियोंने अपनी २ आम्नायानुकूल अनेक प्रकारके पाठ संग्रह कर दिए, किसीने संस्कृतमें, किसीने प्राकृत में और किसीने गुर्जर भाषामें । फल इसका यह हुआ कि गच्छ २ का आवश्यक सूत्र वन गया, और कतिपय जनोंने तो इसकी वृद्धि करनेका ही ध्यान रक्खा कि- आवश्यक सूत्रकी लोक सख्या अतीव हो । सो इसका परिणाम भी यही निकला कि लोगोंने दोनों समय आवश्यक सूत्र (पडिकमणा) करना ही छोड़ दिया, क्योंकि यह स्वाभाविक ही बात है कि नित्यकर्मका पाठ अल्प हुआ करता है जिसको बालसे वृद्ध पर्यन्त सुखपूर्वक पठन कर सके । इस लिए यह आवश्यक सूत्र दोनों समय सुखपूर्वक पठन हो सक्ता है और इसके पठन करनेसे अपने करणीय कार्यों का पूर्ण बोध हो जाता है । और इसको करते समय चार वस्तुओं का ध्यान अवश्य ही कर लेना चाहिए, जैसे कि - द्रव्य शुद्ध १, जो आवश्यक करने के सावन योग्य हैं जैसे कि - आसन, रजोहरण, रजोहरणी, मुखपत्ति, अन्य वस्त्रादि शुद्ध होने चाहिए || क्षेत्र शुद्ध२, स्थान भी शुद्ध होना चाहिये जैसे कि - जिस स्थानमें असमाधि होवे वहां पर आवश्यक भी शुद्ध नहीं हो सकेगा, इस लिए शुद्ध स्थान की भी आवश्यकता है | काल शुद्ध ३, जो आवश्यक करनेका समय है वह उल्लंघन न करना चाहिये ॥ भावशुद्ध ४, अन्तःकर से पडिकमणा करना चाहिए जैसे कि श्री अनुयोग द्वारजी सूत्रमें भावावश्यक विषय निम्न प्रकारसे लिखा है- तथा च पाठः ॥ लेकिंत्तं लोगोत्तरिअं भावावस्तयं जणं समणे वा समणी वा सावयो वा साविआ वा तच्चित्ते तम्मण्णे तल्लेस्ले तदज्झवस्तिते तदज्झवसाणे तदोवउत्ते तद N Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिअकरणे तम्भावणा भाविते अणत्य कथ्यइ मण अकुव्वमाणे उवउत्ते जिण वयण धम्माणु रागरत्ते तम्मण्णे उभयोकाले आवस्मयं करेति से लोगोत्तरियं भावावस्मयं से मोआगमतो भावावस्सयं से भावावस्सयं। इमे एगहिआ णाणा घोसा णाणा वंज णाणा मधेजा भवंति तंजहा आवस्तयं अवस्त करणियं धुव निग्गहो विसोहीय अज्झयणं छक्कवग्गो नाओ आराहणमग्गो॥ १॥ समणेणं सावएणय अ. वस्त कायव्वं दवति जम्हा अंतो अहो निसस्लय तम्हा आवस्सय नाम ॥ से आवस्मयं ।। अथ-शिष्यने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! लोकोत्तर भावावश्यक कौनसा है? तव गुरुने उत्तर दिया कि भो शिष्य! जो साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, एकाग्र चित्तसे एकाग्र मनसे एकाग्र अव्यवसायोंसे अर्थका उपयोग करते हुए, और आवश्यकमे पूर्ण प्रीति रखते हुए उसीकी पूर्ण भावना करते हुए अन्य कही भी मनको न करते हुए उपयोगपूर्वक जिन वचन और धर्ममें रंगे हुए जो दोनों समय आवश्यक करते है उसे लौगोतर नोआगम मावावश्यक कहते है । और आवश्यक सूत्रका, एक ही अर्थ है किन्तु नाना प्रकारके उदात्तादि घोष है और नाना प्रकारके ही इसके व्यंजन है और यह अवश्य करणीहै, ध्रुव है, निग्रह करनेवाला है, न्याय पूर्वक है, आराधक होनेका मार्ग है, और रात्रिदिवसके अतरमें दोनों काल साधु,सान्वी, श्रावक, श्राविकाओंको अवश्य करणीय है, इस लिये ही इसका नाम आवश्यक है । सो इस आवश्यक सूत्रके दो भाग है। द्वितीय भागमें साधु सावीक पट आवश्यक और इस प्रथम भागमें श्रावक श्राविकाओंके अवश्य करणीय पट् अन्याय लिखे गए हैं। और श्री श्री श्री पूज्य १००८ श्री अमरसिंहनी महाराजकी आम्नायानुसार है, क्योंकि-श्रीश्री श्री आ-' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रकार कहने लगे - कौन है मृत्युकी इच्छा करनेवाला और हीन लक्षणोंका धनी, जिसने मुज्झ शयन किये हुएके चरणकमलोंका स्पर्श किया है ? इस प्रकार शैलक ऋषिके भयानक वचन सुनकर पंथकजी भयको प्राप्त हुए और विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर निम्न प्रकारसे विज्ञप्ति करने लगे किहे भगवन्! मैं पंथक नामक साधु प्रतिक्रमण कर रहा हूं, मैने देवसि सम्बन्धि पडिक्कमणा कर लिया है और चातुर्मासी सम्बन्धि प्रतिक्रमणकी क्षमावना करके आपको वंदना कर रहा हूं, इसी लिए ही मैने आपके चरणकमलोंका स्पर्श क्रिया है, अतः हे भगवन् ! मेरे अपराधको क्षमा कीजिये, आप क्षमा करने योग्य हैं, मैं फिर ऐसा अपराध नहीं करूंगा | इस प्रकारके शीतल वचनों करके शेलक ऋषिनीको शान्त किया ॥ तात्पर्य यह है कि नित्यम् प्रति प्रतिक्रमण करनेकी प्रथा न होने पर भी दो प्रतिक्रमण किए जाते थे । जब प्रतिक्रमण अवश्य करनेकी प्रथा है तत्र तो चातुर्मासी और सम्वत्सरीको दो प्रतिक्रमण अवश्य ही करने सूत्रों से सिद्ध है तथा यही आम्नाय श्री पूज्य* अमरसिंहजी महाराजकी है, और पंचम आवश्यक अर्थात् पक्षीको १२ लोगस्स उज्जोय गरेका ध्यान, चातुर्मासीको २०, और सम्वत्सरीको ४० लोगस्सका ध्यान करना, क्योकि यह कथन पंत्र व्यवहारानुकूल है और चातुर्मासी वा सम्वत्सरीको प्रथम देवसी प्रतिक्रमण फिर चातुर्मासी वा सम्वत्सरी प्रतिक्रमण करने चाहियें | इस लिए हीं मैने श्रीश्रीश्री १००८ परमपूज्य आचार्यवर्य श्री सोहनलालजी महाराजकी आज्ञासे तथा श्रीश्रीश्री १००८ गणावच्छेदक वा स्थविर पदविभूषित श्री स्वामी गणपतिरायजी महाराजकी आज्ञासे पड़ावश्यकका हिंदी भाषायुक्त अर्थ लिवा है । आशा है भव्य जन विधिपूर्वक आवउयक सूत्रके पठनपाठनसे अपने अमूल्य मानुष जन्मको सफल करेंगे ॥ उपाध्याय जैन मुनि आत्माराम ॥ * श्री पूज्य अमरसिंहजी महाराजका नाम वर्तमानकालने विख्यात होजैसे ही पुनः २ लिखा गया है | Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ आवश्यक करनेकी विधि ॥ सुंदर स्थानमें पवित्रतापूर्वक एक आसनपर स्थिति करके श्री सीमंदर स्वामीजीको वंदना करके या वर्तमान में अपने गुरुओं को वदना नमस्कार, तिक्खुत्तोके पाठसे तीन वार करके फिर, चौवीसत्था करनेकी आज्ञा लेकर निम्न लिखित पाठ पढे । अरिहंतो महदेवो, फिर, इच्छाकारण, फिर, तरसोत्तरीका पाठ पढके एक लोगस्सका ध्यान करे, फिर नमो अरिहंताण कहके ध्यान पारे, फिर एक चउविसत्था उदात्त स्वरसे पढ़े, फिर वामा जानु ऊंचा करके दाहिण जानु भूमिपर रखकर दो नमोत्थुण के पाठ पढ़े - प्रथम सिद्धों का द्वितीय अरिहंतोंका, फिर तिक्खुत्तोके पाठसे वंदना करके प्रतिक्रमण करनेकी आज्ञा लेकर प्रथम- आवस्सही इच्छाकारण, यह पाठ पढे, फिर नवकार मंत्र, फिर, करेमि भत्ते सामाइय, फिर, इच्छामि ठामि का पाठ, फिर, तस्सोत्तरी करनेका पाठ, फिर, ध्यान करे । ध्यानमें ९९ वे अतिचार और इच्छामि आलोइय पर्यन्त व्यान करे । ध्यानमें - जो मे देवसि (राईसि) अइयारकउ चिंतनुं - ऐसे कहे, फिर नमो अरिहताण कहके ध्यान पूर्ण करे। फिर तिक्खुतोके पाठसे वदना करके लोगस्स उज्जोयगरेका पाठ पढ़े। फिर वदना करके इच्छामि खमासमणोका पाठ दो वार पढ़े। फिर तिक्खुतोके पाठसे चतुर्थ आवश्यककी आज्ञा लेकर वही सर्व अनिचार पढे। फिर तिक्खुतोके पाठसे वदना करके श्रावक सूत्र पठन करे । फिर दो वार इच्छामि खमासमणोका पाठ पढके यथाशक्ति पंचपदों को वंदना नमस्कार करके फिर अनंत चौवीसीका पाठ पढ़े। फिर सर्व जीवों को खमावना करके आवस्सही इच्छाकारेण, नमोकार मंत्र, करेमि भत्तेका पाठ, इच्छामि ठामि काउस्सग्ग, फिर तस्सोत्तरीका पाठ पठन करके कायोत्सर्ग 8 किन्तु सर्व पाठोंके अंतमें जो मे देवसि अइयारकर तस्स मिच्छामि दुक, ऐसे कहे ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे । नित्यम् प्रति ४ लोगस्सका ध्यान करे, फिर नमो अरिहंताणं पढ़कर एक लोगस्स उज्जोयगरेका पाठ और दो वार इच्छामि खमासमणोका पाठ , पढ़कर, फिर तिकवुत्तोके पाठसे वंदना नमस्कार करके यथाशक्ति प्रत्या ख्यान करे। यदि गुरु प्रत्याख्यान करवाएं तो वोसिरामि आप कह लेवे। फिर पूर्व विधिपूर्वक दो नमोत्युणके पाठको पढ़े और समय धर्म ध्यानमें व्यतीत करे । जव सामायिक पूर्ण हो गइ ज्ञात करे तब "इच्छाकारण" इत्यादि सूत्र पढके "तस्सोत्तरी करणेणं" के पाठको पठन करे। तत्पश्चात् एक "लोगस्त उज्जोयगरे'का ध्यान करे, फिर "नमो अरिहंताणं" ऐसे कहके ध्यान पार करे। एक लोगस्स उज्जोयगरेके पाठको उच्च खरसे पढ़े। फिर प्राग्वत् दो नमोत्युणं पढ़के नवमा सामायिक व्रत इस सूत्रको पढे। एतावन् मात्र सूत्रोंके पठन करनेसे सामायिककी आचना हो जाती है। फिर चतुदेश नियम धारण करे जिनके करनेसे महान् काँका आलव निरोध होता है, सो सर्वथा आत्रकका निरोध हो जानेपर जीव मोसाधिकारी बन जाते हैं। ॥ इति विधि समाप्त ॥ -- - - * पक्षिको १२, चातुर्माप्तिको २०, सम्वत्सरीको ४० का ध्यान करना चाहिये ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमोत्थूर्ण समणस्स भगवतो महावीरस्सणं ॥ श्रावक प्रतिक्रमण | तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि नम॑सामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेंइयं पज्जुवासामि मत्यरण वंदामि ॥१॥ हिंदी पदार्थ - ( तिक्खुत्तो) तीन वार ( आयाहिणं) गुरु महारा-. जजीकी दक्षिण ओरसे लेकर ( पयाहिण) प्रदक्षिणा ( करेमि ) करता हूं ( वदामि ) स्तुति करता हू (नमसामि ) नमस्कार करता हूं (सक्कारेमि ) सत्कार देता हू (सम्माणेमि ) सन्मान देता हू । गुरुदेव कैसे है (कलां) कल्याणकारी (मंगल ) मगलकारी (देवयं ) धर्मदेव ( चेइय ) ज्ञानवत, यह चारो ही नाम गुरु महाराजके है, सो मै (पज्जुवासाभि ) ऐसे गुरु महाराजकी मन वचन काया करके सेवा करता हूं और ( मत्थएण ) मस्तक करके ( वदामि ) वदना करता हू ॥ भावार्थ -- उक्त सूत्रमें यह वर्णन है कि गुरु महाराजके दक्षिण पासेसे लेकर तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करे और गुरु महाराजको सन्मानादि भली प्रकार से देवे, मस्तक नमाकर वंदना करे, किन्तु ( तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं) यह दो सूत्र वदनाके विधि विधान कर्ता है, अपितु (करेमि ) जो कि संस्कृत भाषा में 'करोमि' शब्द उत्तम पुरुषका एक वचन है, वहांसे ही वदना करनेका मूल सूत्र जानना । और इस सूत्र के द्वारा गुरु 8 चिति सज्ञाने धातुसे तद्धितका व्य प्रत्यय लगकर चैत्य शब्द बनता है और प्राकृतमें चेइय ऐसे रूप होता है किन्तु चेइय शब्द द्वितीयाका एक वचन ही है ॥ 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजकी तीन वार वंदना करके चतुर्विंशति स्तवकी आज्ञा लेकर सम्यक्त्वके विशुद्धयर्थे निम्न लिखित सूत्र पढ़े ॥ अथ मूल सूत्रम् ॥ अरिहंतो महदेवो जावज्जीवाय सुसाहु सुगुरुणं जिणपण्णत्तं तत्तं एसम्मत्तं मे गहिवं पंचेंदिय संवरणो तह नवविह वंभचेर गुत्तिधरो चउविह कसा. यमुको इय अठारस्त गुणेहिं संयुत्तो पंचमहव्यय जुत्तो पंचविह आयार पालण समत्यो पंच समिओ त्तिगुत्तो छत्तीस्त गुणो गुरु होइ सो गुरु मज्झं ॥१॥ हिंदी पदार्थ-(अरिहतो ) अई पूनाया धातुसे जो शतृ प्रत्ययान्त होकर अर्हत् शब्द बनता है, तिसका नाम प्रारुन भाषामें अरिहत है। यथा अई ऐसा धातु है फिर ( सल्लड्वय॑ल्लुटोवाऽनितौ ) शाकटायन व्याकरणके इस सूत्रसे अई पूजाया धातुको शतृ प्रत्यय हो गया। फिर शकार ऋकारकी इत्संज्ञा करके पुन' (यस्येत्संज्ञा तस्य लोप) अर्थात् लोप करके अर्हत ऐसे रूप बन गया। फिर (शत्रानश)प्रारून व्याकरणके इस सूत्रसे शत् प्रत्ययके तकारको न्न आदेश हो गया तब अर्हन्त ऐसे हुआ । फिर (उच्चाहति) प्राकृत व्याकरणके इस सूत्रसे अरिहंत अरुहंत अरहंत ऐसे तीन रूप सिद्ध हुए। अपितु यह शब्द प्रारुन भाषामें अनंत हो गया। फिर (अत से?) इस सूत्रसे ( अरिहनो) यह रूप हुआ सो अरिहंत (मह) मेरे (देवो) देव है (जावज्जी पाय ) यावत्का ल मेरी आयु है, फिर तावकाल ही (सुसाहु) तुसा तु जो हैं सो (सुगुरुणं) मेरे गुरु हैं (निणपपणतं ) जिनेन्द्र देवका प्रतिपादन किया हुआ जो (तत्त) तत्व है सोई + मे मड मम मह मह म अम्ह अम्ई डसा || प्रा० अ०८ पा० ३ १०११३॥ अस्मदोडता पटक पचनेन सहितत्य एतेन वादेशा भवति । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मरा धर्म है (ए सम्मत्तं ) यही सम्यक्त्व (मे) मेरे (गहिय ) गृहीत है अर्थात् देव गुरु धर्मकी जो पूर्ण निष्टा है सो मेरा सम्यक्त्व है । और गुरु मेरे वह है जो ( पाटिय सवरणो ) पाच इंद्रिय यथा श्रोत्र, घाण, चक्षु, रस, स्पर्श, इनको जो वश करनेवाले है ( तह) तथा ( नवविह) नवविधिके (वभर गुतिधरो ) ब्रह्मचर्यकी गुप्तिके धरनेवाले जैसे कि जिस स्थानमें स्त्री पशु नपुसकका निवास होवे ऐसे स्थानको छोड देवे मूषक बिलाव (माजीर) का दृष्टान्न १, स्त्रीका व्याख्यान न करे नींबूका दृष्टान्त २, स्त्रीसे संघट्टा भी (स्पर्श भी ) न करे उष्ण भूमिका में घृतका दृष्टान्त ३, स्त्रीके सागोपागको भी न देखे नेत्रोंके रोगीको सूर्यको हेतु ४, पूर्व क्रीडाकी स्मृति न करे तक्र वा सुदर अनिष्ट वार्ताओका दृष्टान्त १, स्त्रीके समीपकी वस्तीको भी छोड़ देवे जसे वादल गरजते हुए समय मयूरके नृत्य करनेका दृष्टान्त ६. प्रणीत आहारको भी न आसेवन करे जीर्ण वस्त्रका दृष्टान्त ७, फिर अतीव आहार भी न करे स्वल्प भाजनमें बहुत वस्तुका दृष्टान्त ८, शरीरका भी शृंगार न करे मलीन वस्त्रमें रत्नका दृष्टान्त ९, सो जो गुरु उक्त विवि ब्रह्मचर्य पालनेवाले हैं और (चडविह कसायमुको) चतुर्थिधिकी कपायों से भी मुक्त हैं जैसे क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ ( इय अहारस्स घुणेहिं सयुत्तो) इन १८ गुणों करके जो संयुक्त है, फिर (पंच महव्वय जुत्तो ) पांच महाव्रतों करके सयुक्त है जैसे कि अहिंसा १ सत्य २ दत्त ३ ब्रह्मचर्य ४ अपरिग्रह ५ इनको पालनेवाले, फिर (पंचविह) पाच विधिके (आयारपालण समत्यो ) आचार पालणम समर्थ हैं लेकि ज्ञानाचार १ दर्शनाचार २ चारित्राचार ३ तपाचार ४ वलवीर्याचार १ फिर (पंच समिओ) पाच समित करके भी युक्त हैं जैसे कि ( इर्या समित) विना देखे न चलना (भाषा समित) विना विचारे न बोलना (एषणा समित) निर्दो गहार लेना (आयार भडमत्त निक्खेवणा समित) विना यत्न वस्तुका न रखना न उठाना (उच्चार पासवण खेल सिंघाण जल्ल मल परिठावगिया Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समित) पूरीष, मूत्र, थूक, श्लेष्म, स्वेद, मलादि जो गेरने योग्य वस्तु है उनको विना यत्न न गेरना, फिर (त्तिगुत्तो) त्रिगुप्त जैसोक मन, वचन, काया सो जो ३६ (छत्तीस गुणो होई सो गुरु मज्झ) गुणों करके युक्त है वे ही मेरे गुरु हैं। भावार्थ--इस सूत्रमें यह वर्णन है कि देव गुरु धर्मका पूर्ण स्वरूप ज्ञात करके फिर समग्र प्रकारसे देव गुरु धर्मोपरि निश्चय करना यही सम्यक्त्व है और वही धर्म सत्य है जो सत्य पदार्थोंका सम्यक् प्रकारसे उपदेश है। पुनः अहिंसा सत्य परोपकार ब्रह्मचर्य क्षमा दया दान तप भाव मृदुता ऋजुभाव इत्यादि पदार्थोंका पूर्ण नीतिसे वर्णन करनेवाला है ॥ देव वही है जो राग द्वेषादि अंतरंग शत्रुओंसे मुक्त होकर सर्वज्ञ वा सर्वदर्शी हैं। गुरुका स्वरूप मूल सूत्रके पदार्थमें किंचित् मात्र लिख चुका हूं जैसेकि-अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, इनको धारण करनेवाले, मन, वचन, कायाको वश करनेवाले, क्रोध मान माया लोभको त्यागनेवाले, ज्ञान दर्शन चरित्रके पालनेवाले, पाच इन्द्रियोंको दमन करनेवाले, वैराग्य मुद्रा सौम्य प्रवृत्ति इत्यादि गुण करके जो युक्त है वही गुरु है। सो देव गुरु धर्मका पूर्ण विधिसे आराधन होना चाहिये ॥ इस सूत्रको पढ़के फिर श्रावक निम्न लिखित सूत्रको पठन करे। अथ मूल सूत्रम् ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इरियावहियं पडिकमामि इच्छं इच्छामि पडिकमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणकमणे बीयक'मणे हरियकमणे उसा उत्तिंग पणग दग मट्टीमकड़ा संताणा संकमणे जे मे जीवा विराहिया एगिदिया वेइदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचिंदिया अभिहया व Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'त्तिया लेसिया संघाइया संघट्टिया परियाविया किलामिया उद्दविया ठाणा उठाणं संकामिया जीवियाउ ववरोविया जो मे देवसि अइयार कओ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ २ ॥ हिदी पदार्थ-(इच्छाकारण) आपकी इच्छापूर्वक (सदिसह) वा आपकी आज्ञानुसार ( भगवन् ) हे महा भाग्यवान् (इरियावहिय ) जो चलनेके समय हिंसादि क्रिया हुई है सो उस क्रियासे मै ( पडिकमामि) पीछे हटता हु अर्थात् हिंसादि क्रियाओंसे निवृत्ति करता हू। तब गुरु कहने लगे (पडिक्कमह) हे शिष्य ! सावध क्रियाओंसे शीघ्र ही पीछे हटो । तव शिप्यने कहा (इच्छ) आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है और मै भी यही ( इच्छामि ) इच्छा करता हू । यह सर्व सूत्र सामायिक कर्ताके विनयके ही सूचक है किन्तु आलोचनाके निम्न लिखित सूत्र है-(इरिया वहियाए) मार्गमें चलते समय जो मेरेसे विना उपयोग ( विराहणाए) विराधना हुई हो अर्थात् विना उपयोग चलते समय किसी भी जीवकी विराधना यदि हुई हो तो मै उस विराधनासे (पडिक्कमिउ) निवृत्ति करता है क्योंकि विराधना (गमणागमणे) आने जानेसे ही होती है सो यदि गमनागमनसे (पाणकमणे) प्राणी उपरि आक्रमण हो गया हो, इसी प्रकार (बीयकमणे) बोजोपरि (हरियकमणे)हरिउपरि (उसा) ओसोपरि ( उतिंग) कीड़ियोके भवनोपरि (पणग) पांच प्रकारको वनस्पति ( दग) पाणी (मट्टी) वा सचित मृत्तिका उपरि (मक्कडा ) कोई जीव विशेष (सताणा ) वा जालोपरि (संकमणे) आक्रमण हुआ हो (जे) जो (मे) मेरेसे (नीवा ) जीवोंका उक्त विधिसे नाश हुआ हो जैसे कि-(एगिदिया) एकेन्द्रिय जीव पृथिवी पाणी अनि वायु वनस्पति (वेइंदिया) द्विइंद्रियं जीव जैसे गड़ों पाचं वर्णकी सूक्ष्म वनस्पति होती है जैसे कि निगोदादि, सो पांच पर्ण निम्न प्रकारसे हैं: कृष्ण १ पीत २ रक्त ३ हरित ४ श्वेत ५॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लादि (तेइंदिया) त्रिइंद्रिय जीव जैसे कुंयुवा, जूं , लीखादि (चउरिंदिया) चतुरिंद्रिय जीव जैसे मत्सरादि ( पचिंदिया) पंचेद्रिय जीव जेसकि-जलचर, स्थलचर, खेचर, सर्व जातिके पचेंद्रिय इत्यादि जीवोंकी विराधनाके कारण शास्त्र वर्णन करते हैं जैसे कि-(अभिहया) सन्मुख आते हुए जीव विना उपयोग पीड़ित हुए हों ( वत्तिया) रज उनोपरि आच्छादन हो गई हो (लेसिया ) भूमिकामें मसले गए हों ( संघटिया ) परस्पर सहित हुए हों ( परियाविया) परितापना उन जीवोंको हुई हो (किलामिया ) वा किलामना ( उद्दविया ) अथवा उपद्रव उन जीवोको किया हो वा (ठाणा उठाणं) एक स्थानसे ( संकामिआ) दूसरे स्थानोपरि सक्रमण किया हो वा (जीविआउ) जावकी जो आयु हे (ववरोविया) उससे व्यवरोपित हुए हों अर्थात् वह जीव मृत्यु हो गये हों (जो) जो (मे) मैने ( देवसि ) दिन सम्बन्धि (अइयार) अतिचार (कओ) किया है (तस्स) उस अतिचाररूप (मिच्छा मि दुक्कड) पापसे मै पछि हटता है। भावार्थ-उक्त सूत्रमें प्रथम तो सामायिक कर्ताका विनय धर्म सिद्ध किया है, फिर सामायिक करनेवाला जीव यह विचार करता है कि मैने जो सामायिक करनेके लिए गमनागमन किया है, यदि उक्त क्रिया करते हुए कोई भी जीव मेरे विना उपयोग दुखित हुआ हो या रक्षा करते २ मेरेसे मृत्युको प्राप्त हो गया हो और मैंने उसको किसी प्रकारकी पीड़ा दी हो तो मैं उस पापका पश्चात्ताप करता हू, क्योंकि मै पाप कर्मको मिथ्या रूप मानता हू ॥ सो श्रावक उक्त सूत्रको पढ़के फिर कायोत्सर्गकी शुद्धिके वास्ते निम्न लिखिन मूत्र पढ़े ॥ अय मूल सूत्रम् ॥ तस्स उत्तरी करणेणं पायच्छिन करणेणं विसोदि करणेणं विसल्ली करणेणं पावाणं कम्माणं दिग्घाय. णहाय ठामि काउलग्गं अन्नत्य उसस्सिएणं निस Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तिएणं खासिएणं छोएणं जंभाइएणं उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलिए पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंग संचालेहिं सुहुमहिं खेल संचालेहिं सुहुमेहि दिछि संचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज मे काउसग्गं जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमोकारेणं न पारेमि ताव कायं ठाणेणं मोणेणं ज्झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥ ३॥ हिंदी पदार्थ-(तस्स) पुनः आत्माकी शुद्धि अर्थे (उत्तरी करण) प्रधान जो कृत है उसको उत्तरीकरण कहते हैं, फिर ( पायच्छित्त करणेण) पापोके दूर करनेके वास्ते तग (विसोहि करणेण ) आत्माको विशुद्ध करनेके लिए पुनः (विसल्ली करणेणं )शल्योंके दूर करने वास्ते और ( पावाण ) पापकोंके (निग्घायणाय ) नाश करनेके वास्ते (मि) एक स्थानोपरि (काउसण) पारकोंके दूर करनेके वास्ते कायोत्सर्ग करता , किन्तु ( अन्नत्थ) इतना विशेष जो आगे कहे जाते है इनके विना कायाको हिलाऊगा नहीं अपितु यह भो आगार स्ववशके नहीं है जैसेकि-(उसस्सिएणं ) ऊचे श्वासके आने पर अथवा (निसस्सिएण) नीच श्वासके होने पर वा (खासिरणं) खासीके होने पर, इसी प्रकार (छीएण) छीक (जंभाइएण) जभाई [अवासी] (उड्डएणं) डकार (वायनिसग्गेण ) अधो वायुके निकलने पर (भमलिए ) चक्रके आने पर (पित्तमुच्छाए) पित्तके उच्छलने पर (सुहुमेहिं ) सूक्ष्म (अंग सचालेहिं) अंगके सचालन होनेपर (सुहुमेहिं ) सूक्ष्म (खेल संचालोह) श्लेष्मणके सचालन होनेपर (सुहुमेह) सूक्ष्म (दिष्टि सचालहिं) दृष्टिके चलने पर (एवमाइएहिं) इत्यादि अन्य कई आगारों [प्रतिज्ञाओं] करके यदि मेरा शरीर ध्यानावस्थामें कपायमान हो जावे तो मेरा ध्यान (अपग्गो) भग न होगा (अविराहिओ) विराधित न होगा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० किन्तु इन प्रतिज्ञाओं करके (हुज्ज) होवे (मे) मेरा ( काउसग्गं ) कायोत्सर्ग । सो कायोत्सर्गके कालका परिमाण निम्न प्रकारसे है जैसेकि - (जाव ) यावत् काल मै ( अरिहंताणं) श्री अरिहंतों (भगवंताण) भगवंतोंको (नमोक्कारेणं) नमस्कार न करूं तावत्काल पर्य्यन्त ( कार्य ) कायाको ( ठाणे ) एक स्थान में रक्खूंगा, पुन (मोणेणं) मोन वृत्तिमें तथा (ज्याi) एकाग्र ध्यानवृत्ति में ( अप्पाणं ) अपनी कायाको वा अपनी आत्मा से पापकर्मको ( वोसिरामि ) [ व्युत्सृजामि] छोड़ता हूं ॥ भावार्थ - उक्त सूत्रमें यह विधान है कि - पापकर्मके नाश करने के वास्ने ध्यान करे और जो प्रतिज्ञाएं सूत्रमें वर्णन को गई है उनके विना ध्यानमें कायाको संचालन न करे । पुनः ध्यानका नियम यावत् काल नमो अरि हताण ऐसा पाठ न पढ़े तावत् काल ध्यान ही रक्खे। यह सर्व उक्त सूत्रमें आत्माकी त्रिशुद्धिके लिए ध्यानावेधि प्रतिपादिन की गई है अपितु ध्यानमें निम्न लिखित सूत्र पढे ॥ अथ मूल सूत्रम् ॥ लोगस्स उज्जोयगरे' धम्मतित्ययरे जिणे अरिदंते कित्तस्तं चउवीसंपि केवली ॥ १ ॥ उतभ म जियं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमई च पउमप्पदं सुपासं जिणं च चंदप्पदं वंदे ॥ २॥ सुविहिं च पुप्फदंत्तं सीयल सिज्जंस वासुपुजं च विमल मणतं च जिणं ૨ १ टाणं- शस्येत् ॥ टादेशेणेशसिचपरे अस्य एकारो भवति ॥ टाणवच्छेण-श-बच्छे - वृक्षान् । इसी प्रकार टोकस्य उद्योतकरान् ॥ सो आगे भी इस प्रकार जानना चाहिये || २ मेस्स || प्रा० पा० अ० ८ पा० ३ । सू० १६९ । धानो पो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्स वा प्रयोक्तव्यः ॥ किइस्स इत्यादि ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरंच मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च वंदामि अरिहनेमि पासं तह वद्धमाणं च ॥ ४॥ एवं मए अभित्थुआ विहुय रयमला पहीण जरमरणा चउवोसंपि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय वंदिय महिया जे ए लोगस्त उत्तमा सिद्धा आरोग्ग बोहिलाभं समाहिवर मुत्तमदितु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयास. यरा सागरवर गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ हिंदी पदार्थ-(लोगस्स) लोकके विषय (उज्जोयगरे) उद्योत करनेवाले और (धम्मतित्थयरे) धर्म रूपी तीर्थके स्थापन करनेवाले पुनः (जिणे) रागद्वेपके जयकर्ता (अरिहते) ऐसे जो श्री अरिहत है ( कित्तइस्स) तिनकी कीर्ति करता हू ( चउवीसपि) और ऋषभादि चतुर्विंशति तीर्थकरोंके नाम लेकर स्तुति करता हू । अपि शब्दसे अन्य जिनेन्द्रोंका भी ग्रहण करना । पुनः २४ तीर्थकर कैसे है ( केवली ) केवल ज्ञानके धारक हैं ।।१।। अथ चतुर्विंशति तीर्थकरनामानि । (उसभ) ऋषभदेवजीको (अनिय) (च) पुनः अजितनाथजीको (वदे) वंदना करता हू ( सभवं ) सभवनाथजीको (अभिणदणं ) अभिनदननाथनोको (च) और (सुमइ) सुमतिनाथनोको (च) पुन' (पउमप्पहं) श्री पद्मप्रभुस्वामीजीको (सुपासं) श्री सुपार्ननाथजीको (जिण ) रागद्वेषके जीतनेवाले (च) और (चदप्पह) चंद्रप्रभुजीको (वदे) वदना करता हू ॥ २॥ (सुविहिं ) सुविधिनाथनीको (च) पुन. इनका द्वितीय नाम (पुष्पदंत ) पुष्पदतनीको (सीयल) शीतलनाथनीको (सिज्नंस) श्रेयासनाथनीको (वासुपुज्न) वासुपूज्य स्वामीजीको (च) ओर (विमल) विमलनाथनीको (अणतं ) अनननाथनीको (च) और (निण) रागद्वेपके जीतनेवाले (धम्म) धर्मनाथनीको (च) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पुनः (संत ) शान्तिनाथजीको (वंदामि ) वदन करता हूं ॥ ३ ॥ (कुंथु) कुंथुनाथजीको (अरं) अरनाथजीको (च) और (मल्लिं) मल्लिनाथजीको (वदे) वदना करता हूं (मुणिसुन्वयं) मुनि सुव्रत स्वामीजीको (नमिजिणं) नमिनाथजीको रागद्वेपके जीननेवाले (च) और (वंदामि) वंदना करता हूं (अरिष्टनेमि) अरिष्टनेमिनीको (पास) पार्श्वनाथजीको (तह) तया ( वरमाण) वर्द्धमानस्वाभीनीको अर्थात् श्री महावीरजीको वंदना करता हूं। (च) पाद पूर्णाथै है ॥ ४ ॥ (एवं) इस प्रकारसे मैने (अभित्युआ) अरिहंतोंकी स्तुति की है क्योंकि अरिहंत कैसे है (विहुय) जिन्होंने दूर करी है (रयमला) कर्मोंकी रज तथा मल फिर (पहीण) क्षय किया है ( जरमरणा) जरा और मृत्यु ऐसे जो (चउवीसंपि) चतुर्विंशति तीर्थकर है वा अन्य केवली भगवान् है वे सर्व (जिणवरा) जिनवर (तित्थयरा) वा सर्व तीर्थंकर देव (मे) मेरे ऊपर (पसीयंतु) प्रसन्न हों। यह सर्व व्यवहार नयके मनसे प्रार्थनारूप वचन है ॥५॥ श्री तीर्थंकर देव (कित्तिय) कोर्तित (वंदिय) वदिन ओर (महिय) पूज्य है, अपितु महिड् धातु पूजा वा वृद्धि अर्थमे व्यवद्वत है सो इस स्थानोपरि भावपूजाका ही विधान है, (ज) जो (ए) यह प्रत्यक्ष ( लोगस्स) लोगों ( उत्तमा) उत्तम (सिद्धा) सिद्ध हैं सो मुझको (आरोग्ग) रोगरहित निर्मल ऐसा जो सिद्ध भाव है वा (बोहिलाभ) बोधवीज सम्यक्त्वका लाम और (उत्तम) उत्तम (समाहि) समाधि (वरं) जो प्रधान है सो मुझको (दितु) दो ॥ ६ ॥ क्योंकि आप कैसे है.? ( चंदेसु ) चन्द्रमासे ( निम्मलयरा) अधिक निर्मल और (आइचेसु) मूर्यसे भी अत्यंत ( पयासयरा) प्रकाश करनेवाले हो ( सागरवर ) प्रधान सागर जो कि स्वयंभू रमण समद्र हे तिसकी तरह (गभीर) गुणोंमें गम्भोर है मो हे सिद्धो ( सिद्धा ) कार्य सिद्ध हुए है जिनके ऐसे जो श्री सिद्ध प्रभु है सो हे सिहो (सिडिं ) मुक्ति जो है सो ( मम ) मुझको (दिमत ) दो ॥ ७॥ भावार्थ-इम सूत्र में जो सम्यक्त्वकी विशुद्धिके लिए पाठ है उनका गृहस्थी ध्यान करे जैसे कि २४ नीर्थंकरों के नाम हैं, फिर उनके गुणोंका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाशक्ति अनुकरण भी करे क्योंकि सामायिकमें मुख्यतया समाधिकी ही आवश्यकता है। जो प्रार्थनाके पाठ है वह भी इस प्रकारसे है जो शीघ्र ही आत्मवाधको दिखलाते है-जैसे कि (जिन) ध्यान करते २ वर्ण विपर्यय करनेसे (निज ) ध्यान हो जाता है, इसी प्रकार सामायिकमें भी प्रार्थना आत्मसमाधिको ही पुष्ट करती है अर्थात् प्रार्थना इस प्रकारसे समाधि देती है जैसे चिंतामणि रत्न इच्छककी इच्छा पूरी कर देता है । सो इस सूत्रका ध्यान करके फिर नमो अरिहंताणं ऐसे पाठ पदके फिर वही पाठ एक वार ऊचे स्वरसे पढे ॥ फिर बैठकर दक्षिण जानु भूमिका पर रखकर वामा जानु ऊचा करके पुनः हाथ जोडकर निम्नलिखित सूत्र पढ़े ॥ अथ मूल सूत्रम् ॥ __ नमोत्युणं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्ययराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससोहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिमवरगंधहत्योण लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपजोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणद. याणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसि. याण धम्मनायगाणं धम्मसारहोणं धम्मवरचाउरंत चकवट्टीणं दीवोत्ताणं सरणगइपइठाणं अप्पडिहयवरनाणं दसणधराणं विअदृछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिनाणं तारयाण बुद्धाणं बोहियाणं मुनाणं मोयगाणं सव्वण्णुणं सव्वदरिसिणं सिव मयल मरुय मणंत मक्खय मव्वाबाह मपुणरावित्ति सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जियभयाणं ॥१॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ हिंदी पदार्थ-( नमोत्थु) नमोऽस्तु अर्थात् नमस्कार हो (ण) णं इति-वाक्योपन्यासे ( अरिहंताणं) श्री अरिहंतोंको-इसी प्रकार सर्वत्र जानना, (भगवताणं) भगवंतोंको (आईगराण) धर्मकी आदि करनेवालोंको (तित्थयराणं ) चतुर् श्री संघरूप तीर्थस्थापकोंको, फिर जिनको (सयसंवुद्धाणं) स्वयमेव बोध हुआ है फिर (पुरिमुत्तमाणं ) पुरुषोमें उत्तम (पुरिससीहाणं) पुरुषोंमें सिंह समान वलापेक्षा (पुरिसवर पुंडरीयाण) पुरुषो में पुंडरीक कमल समान निर्लेप ( पुरिस ) पुरुषों में (वर) प्रधान (गंधहत्थीण) गंधहस्ती समान (लोगुत्तमाणं) लोगमें उत्तम (लोगनाहाणं ) लोगके नाथ (लोगहियाणं ) लोगके हितैषी (लोगपईवाणं ) लोगमें प्रदीप समान (लोग: पज्जोयगराणं ) लोगमें परम उद्योत करनेवाले (अभयदयाणं), अभय दान करनेवाले (चक्खुदयाणं) ज्ञानरूपी नेत्रोंके देनेवाले ( मग्गदयाणं) मोसके बतलानेवाले ( सरणदयाण ) सर्व जीवोंको शरणभूत (जीवदयाणं) संयमरूपी जीवनके दाता (बोहिदयाण ) बोध वीनको देनेवाले (धम्मदयागं) धर्मके देनेवाले (धम्मदेसियागं) धर्मका उपदेश करनेवाले (धम्मनायगागं) धर्मके नायक अर्थात् धर्म नेता (धम्मसारहीणं) धर्मरूपी रथके सारथी (धम्मवर) धर्म में प्रधान ( चाउरत) चार गतिके अंत करनेवाले अर्थात् अपनी आत्माको चार गतिसे पृथक् करनेवाले (चक्कवठ्ठीणं)चक्रवर्ती समान (दीवोत्ताण) संसार रूपी समुद्रमें द्वीप समान (सरणगइपइठाणं) शरणागतोंकी वत्सलता करनेवाले ( अप्पडिहय) अप्रतिहत ऐसे ( वर ) प्रधान (नाण) ज्ञान (दसण) दर्शनके (धराण) धरनेवाले (वियह) दूर हो गया है जिनका (छउमाणं) छमस्थभाव अर्थात् कर्म नष्ट हो गये है (निणाणं) और फिर जिन्होंने रागद्वेपको जीता है (जावयाणं) ओरोको रागढपके जीतनेका उपदेश करते है फिर (निनाम) संसाररूपी सागरसे आप तिरे हैं (तारयागं) औरोंको नारते है (बुद्धाणं) आप वुद्ध है (बोहियाणं) आरोंको बोध देते है फिर (मृत्ताणं) आप कहेस मुक्त हुए औरोंको यह सर्य पद पष्ठपन्त हैं । - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ( मोयगाण) कर्मों से मुक्त करते है फिर ( सव्वष्णुण ) सर्वज्ञ हैं ( सव्वदरिसिणं ) सर्वदर्शी है फिर ( सिवं ) कल्याणरूप ( अयलं ) अचल ( अरूयं ) रोगरहित ( अनंत ) अनंत ज्ञानादि करी ( अक्खय) अक्षय (अव्वावाह ) वाधा पीडादि रहित अर्थात् दुःखादि रहित ( अपुणरावित्ति ) जिसकी अपुनर्वृत्ति है अर्थात् पुर्नजन्म नही है ऐसी जो सिद्ध गति है (सिद्धगई ) अर्थात् मोक्ष है ( नामधेय ) नाम भी यही है जिसका सो ऐसे (ठाण) स्थानकको (संपत्ताण ) जो संप्राप्त हुए हैं अर्थात् जो मोक्षको प्राप्त हुए है ऐसे जो श्री अरिहंत प्रभु है तिनको ( नमो ) नमस्कार हो ( जिणाणं) जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओंको जीता है फिर ( जियभयाण ) जीत लिये है जिन्होने सर्व भय || भावार्थ --- यह स्तुति मंगल दो वार पढणा । द्वितीय वारमें यह पाठ कहना (ठाणं सपाविउ कामरस नमो जिणाण जियभयाणं) और इस स्तवमे जो आत्मा मोक्ष हो गये है वा होनेवाले है उनकी स्तुति है । फिर उनके गुणोंका गृहस्थी यथाशक्ति अनुकरण करे क्योंकि स्तुति करनेका सारांश यही होता है कि वे गुण स्वय भी ग्रहण किये जाये। जिस प्रकार रागद्वेपादि अतरग शत्रुओंको जीतके अर्हन् हुए हैं इसी प्रकार सर्व भव्य प्राणि - योंको भी होना योग्य हैं | फिर तिक्खुत्तोके पाठ से गुरुदेवको वंदना नमस्कार करके सामायिक करनेकी आज्ञा लेकर निम्न लिखित सूत्र पठन करे ॥ आवस्तहो इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसी पडिक्कमणो ठामि देवसी ज्ञान दर्शन चरित्ताचरितं तर अतिचार चिंतवणा अर्थ करेमि काउसगं ॥ हिंदी पदार्थ - (आस्सही) आवश्यमेवही (इच्छा) इच्छा है मेरी ( कारण ) करनेकी (संदिसह ) आज्ञा दीजिये ( भगवन् ) हे भगवन् मैं (देवसी ) दिन सम्बन्धि ( पडिक्कमणो ठामि ) प्रतिक्रमण प्रारंभ करता हू ४ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अर्थात् आवश्यक करनेकी आज्ञा लेकर आवश्यक करता हूं जैसेकि (देवसी) दिन सम्बन्धि (ज्ञान) ज्ञान (दर्शन) दर्शन (चरित्ताचरित्तं) चरित्रा चरित्र (देशव्रत) (तप) द्वादशभेदि तप ( अतिचार ) अतिचारोंके (चिंतवणा अर्थ) स्मरणके लिए ( करेमि ) करता हूं (काउसग्ग) कायोत्सर्ग। ____ भावार्थ-श्री अर्हन देवकी आज्ञासे प्रथम आवश्यक करनेकी आज्ञा लेकर उक्त सूत्रको पठन करके फिर ( नमस्कार मंत्र पढ़े ) ॥ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्यसाहूणं ॥ ६ महाशय ! इस महामन्त्रको नमोकार मन्त्र भी कहते हैं अर्थात् महामन्त्रका द्वितीय नाम नमोकार मन्त्र भी है, परन्तु कोई २ नमोकारके स्थानोपरि नवकार मन्त्र ऐसे भी उच्चारण करते हैं, सो यह भी सत्य है क्योंकि प्राकृत व्याकरणमें इसका विवेचन इस प्रकार है, यथा रुदनमोर्व । प्रा० । व्या० । अ०। ८१ पा० । ४ । सू० । २२६ ॥ अनयोरन्त्यस्य यो भवति ।। अर्थात् रुद् और नम् धातु के अन्त वर्णको वकार हो जाता है जैसे रुबइ नबइ इत्यादि । इस सूत्रसे नवकार ऐसे सिद्ध हुआ । पुन: नमस्कार गन्दसे नमोकार पद इस प्रकारसे सिद्ध होता है जैसे कि-नमस्कार परस्परे द्वितीयस्य ॥ प्रा० व्या० अ० ८ पा० १ सू० ६२॥ अनयोर्द्वितीयस्य अत ओत्व भवति ॥ इस सूत्रसे नमस् शब्दके द्वितीय शटके अकारको अर्यात नमस् शब्दके मकारके अकारको ओकार हो गया जैसे कि, नमोस्कार, फिर क-ग-ट-ह-त-इ-व-श-प-स-५ क:-पामूत्र लुक् ॥ प्रा० स० ८ पा. २ सू० ७७ ॥ एषा संयुक्तवर्णसम्बन्धिनामूस्थिताना लुग् भवति ॥ इस सूत्रसे सकारका लोप हो गया तय नमोकार ऐसे रहा ॥ पुन. अनादी शेषादशयोतिम् ॥ प्रा० अ० ८ पा० २ सू० ८९ ॥ परस्यानादी वर्तमानस्य शेपत्यादेशस्य च द्विव भवति ॥ इस सूत्रसे ककार द्वित्त हो गया, तब परिपक प्रयोग नमोकार ऐसे सिद्ध हुआ ॥ अपितु "हस्वः संयोगे" प्रा० अ० ८ पा० १ मू० ८४ से "नमुकार" मी सिद्ध हो जाता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ हिंदी पदार्थ - ( नमो ) * (नमः) नमस्कार ( अरिहंताणं ), अर्ह - द्द्भ्यः अहू पूजाया धातुसे जो शतृ प्रत्ययान्त होकर अर्हत् शब्द बनता है तिसका नाम प्राकृत भाषामें अरिहत है, अर्थात् जो सबके पूज्य सर्वज्ञ सर्वदश हैं तिन अरिहत भगवन्तोंके ताई नमस्कार हो, अर्थात् उनको नमस्कार हो, ( नमो ) ( नम) नमस्कार ( सिद्धाण) (सिद्धेभ्यः) विधूसराधौ धातुसे जो 'क्त' प्रत्ययान्त होकर सिद्ध शब्द बना है अर्थात् जो सिद्ध बुद्ध अजर अमर अशरीरी सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं जिनके ताई नमस्कार हो, ( नमो ) (नमः) नमस्कार ( आयरियाणं ) ( आचार्येभ्य ) जो आडू उपसर्ग पूर्वक चर् गति भक्षण धातुसे कृदन्तका घ्यण् प्रत्ययान्त होकर सिद्ध होता है अर्थात् आचायोंके ताई नमस्कार हो, ( नमो ) ( नमः) नमस्कार हो ( उवज्झायाणं ) ( उपान्यायेभ्यः ) उपाध्यायोंके ताई जो कि उप अधि उपसर्ग पूर्वक इड् अध्ययने धातुसे कृदन्तका घञ् प्रत्ययान्त होकर बनता है, ( नमो ) (नमः) नमस्कार हो, ( लोए सव्वसाहूण ) 1 लोक दर्शने, सृगतौ, * तथा कोई २ पुरुष ऐसे भी भाषण करते हैं कि (णमोकार ) शब्द ही शुद्ध है अर्थात् जिसके पूर्व णकार होवे वही शुद्ध है, अन्य सर्व अशुद्ध हैं, किन्तु प्राकृत व्याकरणमें इस प्रकारसे लिखा है यथा-वादी ॥ प्रा० भ० ८ पा० १ सू० २२९ || असयुक्तस्यादी वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति । - नरो | नई-नई - इति ॥ पंच पदकी चूलिका इस प्रकारसे है जैसेकि - एसो पच णमोक्कारो सव्य पात्र पणासणी मगलाण च सधेसिं पदम डवइ मगल ॥ अथार्थान्वय:: - ( एसो ) ( एष ) यह (पच ) ( पञ्च ) पश्च (नमोक्कार ) ( नमस्कार ) नमस्काररूप पद ( सव्व ) ( सर्व ) सारे ( पाव ) ( पाप ) पापके ( पणासणी ) ( प्रणाशनः) प्रणाशनहार हैं अर्थात् पापके नष्ट करनेवाले हैं, (मगलाण) (मगलाना) मगठीक हैं (च) (च) और अपितु च अव्यय है (स )ि (सर्वेश) सर्व स्थानोंपरि पढे हुए ( पढमं ) दध्यादि पदार्थों से पूर्व ( हवइ ) ( मगल ) ( मङ्गलम् भावार्थ - इम महामन्त्र के पाञ्च ही नमस्काररूप ) ( प्रथम ) प्रथम अर्थात् मङ्गलीक है | पर सर्व पाप नाश करनेवाले हैं तथा मगलोक और सर्व स्थानोपरि पठन किये हुए दध्यादि पदार्थोंसे भी पहिले मगलीक हैं क्योंकि भनत गुणयुक्तोक्त महामन्त्र है ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राध साध संसिद्धी, इन धातुओंसे जो नमो लोए सव्वसाहू शब्द बनता है(लोके सर्व साधुभ्य:) लोकमें जितने साधु है अर्थात् लोकमें सर्व साधु ओंके ताई नमस्कार हो-जो कि सुगुणों करके युक्त है ।। ____ भावार्थ-इस महामन्त्रमें यह वर्णन है कि अनन्त गुणयुक्त चतुघानि कर्म नष्ट कर्ता और जिनके द्वादश गुण प्रगट हुए हैं ऐसे गुणगणालंकन श्री अरिहनजी महाराजोंको नमस्कार हो पुनः जिनके अशरीरी मिद्ध बुद्ध अजर अमर इत्यादि अनेक नाम मुप्रख्यानि संयुक्त मुप्रसिद्ध है जिन्होंके सर्व कर्म भय हो गये है अर्थात् जो कर्मरूपी रजमे विमुक्त हो गये हैं और जिन्होंके अष्ट गुण प्रादुर्भून हुए हैं इत्यादि अनेक सुगुणों सहित श्री सिद्ध महाराजोंको नमस्कार हो, अपितु जो पत्रिंशत् गुणोंसे युक्त मर्यादासे क्रिया करनेवाले जिनकी जानमें गति अधिक है तथा जो सम्यक् प्रकारले गच्छ ( साधु समुदाय) की सारणा (रक्षा करना) वारणा (स्थिलाचार होतको सावधान करना) साधमण्डलको हितशिना दना तथा वस्त्रपात्रादि द्वारा भी मुनियोंको सहायता देनी वा परम्पराय शुद्ध शास्त्रार्य पठन कराना अपितु यदि कोई दुर्बल अर्थात् जंबावल क्षीण रोगादि युक्त साधु हों उनको यथायोग्य सहायता करना इत्यादि अनेक गुणों से युक्त हैं और उक्त वार्ताओंके पूर्ण करनेमें सदैव कटिबद्ध हैं ऐसे श्री आचार्यजी महारानको नमस्कार हो, अपिच जो पंचविंशति गुणों से अलंकत हो रहे है अर्थात् जो एकादश अंग तथा द्वादश उपांगको स्वयम् पढ़ने है औरोंको पढ़ाते है-जिन शास्त्रोंके नाम ये है.संख्या. अयांगमूत्राणि. । संख्या. अयोपांगसूत्राणि. (१) आचारांग (१) उव्वाइ. (२) सूयगजग. (२) रायप्रश्रेणी. (३) टाणांग (३) जीवाभिगम. (४) समवावाग. (४) पण्णवन्ना. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या. अंगसूत्राणि. (५) विवाहप्रज्ञप्ति. (६) ज्ञाताधर्मकथांग. (७) उपासकदशाङ्ग. (८) अतगड. (९) अनुत्तरोववाइ. २९ (६) चन्द्र प्रज्ञप्ति. (७) सूर्य्य प्रज्ञप्ति. (८) निरावलिका. (९) पुल्फिया. (१०) कप्पिया. (११) पुप्फ चुल्लिका. (१२) वहिदशा अर्थात् - जो पूर्वोक्त शास्त्रोंका अभ्यास स्वय करते है और औरोंको यथा अवकाश वा यथा अवसर पठनाभ्यास करवाते है, पुन' विद्याकी उन्नति करनेमें तत्पर रहते है और जिसके द्वारा धर्म तथा विद्याकी वृद्धि हो वही कार्य्य करके परिफुल्लित होते हैं, ऐसे परम पण्डित महान् विद्वान् दीर्घदश परमोपकारी श्री उपाध्यायजी महाराजोंको नमस्कार हो, जो कि श्रत विद्याकी नावसे अनेक भव्य जीवोंको ससाररत्नाकरसे उत्तीर्ण करते हैं | अन्यच्च-नमस्कार हो सर्व साधुओं को जो लोकमें सुगुणों करके परिपूर्ण है सदा ही परोपकारी है और ज्ञानके द्वारा स्व आत्मा वा अन्यात्माओं के कार्य सदैव काल सिद्ध करते हैं, अपितु सप्तविंशति गुणयुक्त है तिन सुनियोंको पुनः पुनः नमस्कार हो | फिर सामायिक करनेका निम्न लिखित सूत्र पढे । (१०) प्रश्न व्याकरण (११) विपाक. संख्या. उपांगसूत्राणि. (५) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति. ॥ अथ मूल सूत्रम् ॥ करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि जावनियमं * पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि * सामायिक कर्ताको चाहिये इस पाठ अतर्गत ही यावन्मात्र मुहूर्त करने हों तावन्मात्र ही कह लेने, जैसे कि- जावनियम मुहूर्त १ वा २ - पज्जुवासामि इत्यादि ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कारवेमि मणला वयसा कायसा तस्तभंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ १॥ हिंदी पदार्थ-( करेमि ) मैं करता हूं ( भत्ते ) हेभगवन् (सामाइयं) समतारूप भाव जो सामायिक है (सावन) और सावद्यल्प जो (जोग) मन वचन कायका योग है ( पञ्चस्वामि) निसका प्रत्याख्यान करता हूं (जाव ) यान्न् (नियम) नियम सामायिकका काल है तावत् काल एय्यत मामायिकका भेदन करता है, (दुविहं) ने करण जैसे करना और कराना सो लान्छ योगको (मणा ) मन करके ( वयसा ) वचन करके ( कायसा) काय करके (निविहेण) इन तीनो योगों करके (नकरोमि ) न करूं ( न कारवेमि) नही औरोसे कराऊं (नरस) वह जो सावद्यल्प पाप है ( भत्ते ) हे भगवन् ( पडिकमामि ) पापसे पीछे हला ९.( निनामि ) और पापसे अपनी आत्माको मिन्न करनेके लिये आत्मनिन्दा करता हूँ ( गरिहामि) विशेष करने आत्माको अपमे पृथक् करनेके लिये आत्मनिंदा करता हूँ (अप्पाणं ) और अपनी आत्माको (बासिरामि) पापसे अलग करता हूं। भावार्थ-उक्त मूत्रमें यह वर्णन है कि सामायिक करनेवाल भगगनकी आनानुसार मागयिकम द्विविध त्रिविध करके सावध (हिंसक) योगोंका प्रत्याख्यान करता है-जने मावध कर्म कहें नहीं मन करके वचन करके काय नरके, कराऊं नहीं मन करके वचन करके काय करके, और पापस अपनी आत्माको प्रथक करके समताल्प भावों मे आत्माको स्थिर करता हू ॥ फिर अपनी आलोचनाके वास्ते निम्नलिखिन सूत्र पठन करेक्योंकि नान.शंन चारित्राचारित्रकीवित्वनाथ ही कायोग किया जाना है।। इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे देवसि अइयासे कओ काइओ बाइओ माणसिओ उस्सुनो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुग्झाउ दुचिंतित अणायारो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिच्छियव्वो असावगो पावगो नाणे तह दसणे च. रित्ताचरिते सुय सामाइय तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसा. याणं पंचण्हं अणुव्वयाणं तिण्हं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खावयाणं बारस्त विहस्त साव्वग धम्मस्त जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥२॥ हिंदी पदार्थ (इच्छामि ) मै इच्छा करता हू (ठामि ) एक स्थानमें स्थिर रहकर ( काउसग्ग ) कायोत्सर्ग करनेकी ( जो ) जो ( मे) मैंने ( देवसि) दिन सम्बन्धि ( अइयारो) अतिचार (कओ) किया है (काइओ) कायसे ( वाइओ) वचनसे (माणसिओ) मनसे तथा (उस्सुत्तो) सूत्रसे प्रतिकूल कथन किया हो ( उम्मग्गो) उन्मार्ग ग्रहण किया हो जो कि सर्वथा ही निनमार्गसे प्रतिकूल है ( अकप्पो ) अकल्पनीय पदार्थ सेवन किया हो जैसेकि मास मदिरादि ( अकरणिज्जो) अकरणीय कार्य किए हों ( दुज्झाउ ) दुष्ट ध्यान किया हो जैसे कि आर्तव्यान रौद्रध्यान ( दुचिंतिउ) दुष्ट चिंत्वन किया हो (अणायारो) अनाचार सर्वथा ही नियमोंका भग कर देना इस प्रकारसे काम किया हो ( अणिच्छियव्वो) जो इष्ट नहीं है उसकी इच्छा की हो (असावगो पावगो) श्रावक वृत्तिसे विरुद्ध काम किया हो (नाणे) ज्ञानमें ( तह ) तथा ( दसणे ) दर्शनमें तथा ( चरित्ताचरित्ते) चरित्राचरित्रमें (देशव्रतमे) (सुए) श्रुत सिद्धान्तमें (सामाइए) समतारूप भाव सामायिकमें फिर ( तिण्हं गुत्तीणं ) तीन प्रकारकी गुप्ति जैसेकि-मन वचन कायको वशमें न किया हो ( चउण्ह कसायाणं) चार प्रकारकी कषाय की हो जैसेकि-क्रोध मान माया लोभ और ( पचण्हं अणुव्वयाण) पाच प्रकारके अनुव्रत जैसेकि स्थूल हिंसा त्याग १ स्थूल मृपावाद त्याग २ स्थूल अदत्तादानका त्याग ३ स्थूल मेथुनका परित्याग जैसेकि स्वदार संतोष ४ स्थूल परिग्रहका परित्याग ५ इन व्रतों में अतिचार लगा हो अथवा ( तिण्ह गुणव्वयाणं) तीन ही गुणवतोंमें दोष Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगा हो जैसकि-दिग् व्रत, उपभोग परिभोग विरमण व्रत, अनर्था दंड परित्याग व्रत, (चउण्हं सिक्खावयाण) चार शिक्षाव्रतों में अतिचार लगा हो जैसेकि-सामायिक व्रत, देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास व्रत, अतिथि संविभाग वन (वारस्स विहस्स) द्वादश प्रकारके (साव्वग धम्मस्स) श्रावक धर्मको ( ज खडियं) जो मैंने खंडित किया है (जं विराहियं) जो मैने नियमादि सर्व प्रकारसे विराधित किए है ( तस्स ) वह अतिचारादि पाप (मिच्छा मि) निष्फल हो जो (दुक्कडं) दुःकृत पाप हैं तथा इनसे मै पीछे हटता हूं ॥ भावार्थ-उक्त सूत्रमें द्वादश व्रतोंके अनिचारोंकी आलोचना है, फिर मन वचन कायको वशमें करना चार कषायोंका परित्याग करना श्रावक वृत्तिसे विरुद्ध न होना अपितु अकरणीय कार्य न करने सम्यग् दर्शनको कलंक्ति न करना इस प्रकारसे वर्णन किया गया है ॥ (फिर तस्सोत्तरीका पाठ पठन करके कायोत्सर्ग करे जिसमें १४ ज्ञानके अतिचार ५ सम्यक्त्वके ६० द्वादश व्रतोंके १५ कर्मादानके ५ संलेखनाके इस प्रकारसे ९९ प्रकारके आतिचारोंका ध्यान करे, खडा होकर कायोत्सर्ग करनेकी ही रीति है, यदि कारण हो तो बैठके ही कर लेवे) चतुर्दश प्रकारके ज्ञानानिचार निम्न प्रकारसे हैं आगमे तिविहे पणते तंजहा सुत्तागमे अत्या. गमे तदुभयागमे एहवा श्रुत ज्ञानके विषय जे कोई अतिचार लागा होय ते आलोउं जंवाइद्धं १ वच्चामे. लिय २ हीणक्खरं ३ अञ्चक्खरं ४ पयहीणं ५ विणयहीणं ६ जोगहीणं ७ घोलहीणं ८ सुदिन्नं ९ दुछु. पडिच्छियं १० अकाले कउ सज्झाओ ११ काले न कर सज्झाओ १२ असज्झाइयं १३ सज्झाइय नसल्झायं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीधा होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिः च्छा मि दुकडं ॥२॥ अर्थ-यदि दर्शन (सम्यक्त्व) के विषय कोई अतिचार लगा हो तो मै उसकी भी आलोचना करता हूं जैसेकि-जिनवचनों में शंका की हो १ अथवा परमतकी आकांक्षा करी हो कि-अमुक मत बहुत ही सुंदर है-निसके उपासक सदैव काल ही सुखी रहते है इस प्रकारके भाव करनेसे सम्यक्त्वमें द्वितीय अतिचार लगता है २ और कर्मो के फल विषय संशय किया हो ३ तथा पर पाषंडियोंकी स्तुति करी हो जिसके द्वारा बहुतसे प्राणियोंको मिथ्यात्वकी रुचि हो जाये इस प्रकारसे कर्म किया हो ४ और अन्य मतावलम्बि नास्तिकादि लोगोंसे संस्तव-परिचय किया हो ५ क्योंकि-दुष्ट जनोंकी संगति अवश्य ही विकृति भावको उत्पन्न कर देती है इस लिए दुष्ट जनोकी संगति कदाचित् भी न करनी चाहिये । सो यदि इस प्रकारसे सम्यक्त्वमें कोई भी अतिचार लग गया हो तो मै उस दोपसे पीछे हटताहूं और फिर ऐसा न करूंगा इस प्रकार भाव रखता हूँ॥ पहिला थूल प्राणातिपात वेरमण व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागा होय ते आलोउं रीसवसे गाढ़ा बंधण बांध्या होय १ गाढ़ा घाव घाल्या होय २ अवयवना विच्छेद कीधा होय ३ अति भार घाल्यो होय ४ भात्त पाणीका विच्छेद कीधा होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-जो प्रथम अनुव्रत है उसमे यदि कोई अतिचार रूप दोप लग गया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूं जैसेकि-क्रोधके वश होकर जीवोको कठिन वधनोसे वाधा हो १ निर्देयके साथ उनको प्रहारोंसे घायल किया हो २ उनके अवयवोको काट दिया हो ३ उनपर प्रमाणरहित Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ भार लादा हो अर्थात् अतीव भारका लादना भी एक अतिचार है ४ और अन्नपानीका व्यवच्छेद कर दिया हो तथा वेतन आदि न दिया हो १ सो यदि इस प्रकार से मेरे प्रथम अनुव्रतमें दोष लगा हो तो मैं उस दोष से पीछे हटता हूं अर्थात् उन दोषोंको छोडता' हूं ॥ बोजा थूल मृषावाद वेरमण व्रतके विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोउं सहसातकारि ret प्रते कूडा आल दीधा होय १ रहस्स छानी वार्त्ता प्रगट करी होय २ स्त्री पुरुषका मर्म प्रकाश्या होय ३ कहीं मंते पाय पाडवा भणी मृषा उपदेश दोघा होय ४ कूडा लेख लिख्या होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ -- द्वितीय अनुव्रतकी भी आलोचना इस प्रकारसे करे कि यदि मैने विचारशून्य होकर किसीके ऊपर दोपारोपण किया हो १ अथवा किसीकी गुप्त वार्ता प्रगट कर दी हो २ स्त्री वा पुरुषको मर्मयुक्त वार्ता - ओंका प्रकाश किया हो ३ अपने वश करने के लिए किसीको असत्य [ दुष्ट ] सम्मति दी हो ४ अथवा कूट लेख लिखें हो ५ क्योंकि यह कर्म द्वितीय अनुव्रतको कलंकित करनेवाले है । यदि इस प्रकार से मैने कोई भी दिनमे दोष किए हों तौ मै उन दोषोंसे पीछे हटता हूं अर्थात् उनको छोड़ता हू ॥ त्रीजा थूल अदत्तादान वेरमण व्रतके विषय जे कोई अतिचार लागो दोय ते आलोउं चोरको चुराइ वस्तु लोधी होय १ चोरने साहज दोघा होय २ राज्य विरुद्ध कीधा दोय ३ कूडा तोल कूडा मापा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीधा होय ४ वस्तुमै भेय संभेल कीधा होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं । __अर्थ-तृतीय स्थूल अदत्तादान व्रतके विषय यदि कोई अतिचार लग गया हो तो मैं उसका विचार करता हूं जैसे कि-चोरीकी वस्तु ली हो १ चोरोंकी सहायता करी हो २ राज्य विरुद्ध कर्म किया हो ३ और द(तुओंका तोल वा माप आदि विपरीत किया हो ४ सुंदर वस्तुमें निकृष्ट वस्तु विक्रय करनेके वास्ते मिला दी हो ५ सो यदि उक्त प्रकारसे कोई भी दोष लग गया हो तो मै उस दोषरूप अतिचारसे पीछे हटना हूं। चोथा थूल सदार संतोस मैथुन वेरमण व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागों दोय ते आलोउं इत्तर थोडा कालकी राखीसुं गमण कीधा होय १ अपरिगहियासुं गमण कीधा होय २ अणंग कीडा कीधी होय ३ पराया विवाह नाता जोड्या होय १ 'कामभोग तीव अभिलापासे सेव्या होय ५ जो मे देवसि अइ. यार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ____ अर्थ-चतुर्थ स्थूल सदार संतोष व्रतके अतिचारोंकी मी आलोचना करता हूं जैसेकि-लघु अवस्थायुक्त अपनी स्त्रीसे यदि संग किया हो तथा अल्प परिमाण होने पर अधिक संग किया हो १ पानीग्रहणके पूर्व स्व स्त्रीका संग किया हो २ कुचेष्टा की हो ३ परके नाते आदिको अपने साथ संयोजन कर लिया हो ४ और कामभोगकी तीव्र अभिलाषा करी हो ५ यदि इस प्रकारसे दिनमें कोई भी अनिचार लग गया हो तो मैं उन दोषोंको छोड़ता हू ॥ १ काममागनी तीच अभिटापा कीधी होय-इति च पाठ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __पांचमा थूल परिग्रह परिमाण वतने विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोउं खेत वत्युनो परिमाण अतिक्रम्या होय १ हिरण्य सुवर्णनो परि. माण अतिक्रम्या होय २ धन धान्यनो परिमाण अतिक्रम्या होय ३ दोपद चौपदनुं परिमाण अतिक्रम्या होय ४ कुविय धातुनो परिमाण अतिक्रम्या होय ५ जो मे देवसि अइयार को तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-पाचवें स्थूल परिग्रह परिमाण व्रतकी आलोचना करता हू कि-क्षेत्र वस्तुके भी परिमाणको अतिक्रम किया हो अर्थात्-खेत और हई आदिके परिमाणको अतिक्रम किया हो १ चादी और सुवर्णके परिमाणको अतिक्रम किया हो २ अथवा धन और धान्यके परिमाणको अतिक्रम कर दिया हो ३ द्विपद और चतुष्पदके भी परिमाणको छोड़ दिया हो ४ और घरकी सामग्रीके परिमाणको भी यदि अतिक्रम किया हो तो मैं दिनके किए हुए दोषोंसे पीछे हटता हूं। छठा दिश व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोउं उट्ट दिशनो प्रमाण अतिक्रम्या दोय १ अधो दिशनो प्रमाण अतिक्रम्या होय २ तिरच्छि दिशनो प्रमाण अतिक्रम्या होय ३ क्षेत्र बधारया होय ४ पंथनो संदेह पड्या आगे चाल्या होय ५ जो मे दे. वसि अईयार कओ तस्त मिच्छा मि दुकडं ॥ अर्थ-षष्टम दिग्वतके अतिचारोंकी आलोचना करता हू कि-उर्ध्व दिशाके परिमाणको अतिक्रम किया हो १ अधो दिशाके परिमाणको अतिक्रम किया हो २ अथवा तिर्यग् दिशाके परिमाणको उल्लंघन कर दिया हो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ एक ओरसे द्वितीय ओर क्षेत्रकी वृद्धि की हो जैसेकि - दक्षिणकी ओर क्षेत्र अल्प करके पूर्वकी ओर क्षेत्रकी वृद्धि करना ४ तथा मार्ग में चलते हुए यदि संशय पड़ गया हो कि स्यात् मैं परिमाणयुक्त मार्ग आ गया हूँगा यदि संशय होनेपर फिर भी आगे ही गमन किया हो ९ सो इस प्रकारसे यदि कोई भी अतिचार मुज्झे लगा हो तो मै उन दोषोंसे पीछे हटता हूं ॥ सातमा उवभोग परिभोग परिमाण व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोउं पञ्चकखाण उपरांत सचित्तका आहार करया होय १ सचित्त प विद्धका आहार कस्या होय २ अपक्कना आहार करचा होय ३ दुपक्कना आहार करचा होय 8 तुच्छौषधीका आहार करया होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्त मिच्छामि दुक्कडं ॥ पनरा कर्मादानके विषय जे कोई अतिचार लागो होय तो आलोऊं इंगालकम्मे १ वणकम्मे २ साडीकम्मे ३ भाडो कम्मे ४ फोडीकम्मे ५ दंतवणिजे ६ लक्खवणिज्ने ७ रसवणिज्जे ८ केसवणिज्जे ९ वितवणिज्जे १० जंतपीलणियाकम्मे ११ निलंच्छणियांकम्मे १२ दवग्गि दावणियाकम्मे १३ सरदह तलाव सोसणिया कम्मे १४ असइ जणपोसणिया कमे १५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-सप्तम उपभोग परिभोग परिमाण व्रतके विषय यदि कोई अतिचार लगा हो तो मै उसकी आलोचना करता हूं।यद्यपि सचित्त वस्तुओंका सर्वथा त्याग गृहस्थको नहीं होता तथापि यदि सर्वथा त्यागं हो तो-निम्न लिखित दोषोंको दूर करे जैसेकि-सचित्त वस्तुका आहार करना १ सचित्त प्रतिवद्धका आहार करना २ अपक्क वस्तुका आहार करना ३ दुःक्वप वस्तुका आहार करना ४ तुच्छौषधिका आहार करना ५ यह पाच ही दोप है । सो इनको दूर करके फिर पंचदश कर्मादानको भी छोड़े अर्थात् पंचदश मार्ग विशेष कर्म आनेके है इस लिए उनको छोडे जिनके नाम निम्न लिखितानुसार है-कोयलोंका बनन १ वन कटवाना २ शकटादिका व्यापार ३ भाटक कर्म ४ स्फोटक कर्म ५ दातोंका बनन ६ लाखका बनन ७ रसोंका बनज ८ केशोंका बनज ९ विषका बनज १० यत्रपीडन कर्म १२ नपुंसक कर्म १२ [ निलांछन कर्म] वनको अग्निका लगाना १३ जलाशयको शुष्क करना १४ हिंसक जीवोंका पोपण करना १५ । सो यदि कोई भी दोष लगा हो तो मै उन दोषों से पीछे हटता हूं। आठमा अनर्थ दंड वेरमण व्रतके विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोऊ कंदर्पनी कथा कीधी होय १ भंडचेष्टा कीधी होय २ मुखारि वचन बोल्या होय ३ अधिकरण जोडी मुक्या होय ४ उव. भोग परिभोग अधिका वधारया होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-अष्टमा अनर्थ दंड विरमण व्रतके अतिचारोंकी आलोचना करता हू-कामजन्य कथा की हो १ भडचेष्टा की हो २ असम्बद्ध वचन भापण किए हों ३ अपरिमाणयुक्त शस्त्रादिका संग्रह किया हो ४ जो वस्तु Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वेर आसेवन करनेमें आवे अथवा पुनः पुनः ग्रहण करनेमें आवे उनके परिमाणको अधिक कर लिया हो । सो यदि इनमें कोई भी दोष लगा हो तो मै उक्त दोषोंको छोड़ता हूं। नवमा सामायिक व्रतने विषय जे कोई अति. चार लागो होय ते आलोऊं मन वचन कायाका जोग माठा वरताया होय सामायिकमें समता न आणी होय अणपूगी पारी होय जो मे देवति अइयार कओ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ___अर्थ-नवमें सामायिक व्रतमें यदि कोई दोष लगा हो तो मै उन दोषोंकी आलोचना करता हूं जैसेकि-सामायिकमें मन वचन और कायके योगको दुष्ट धारण किया हो सामायिकमे यदि शान्ति न की हो और विना समय पूर्ण हुए सामायिककी आलोचना करी हो तो मै इन दोषोंसे रहित होता है । दसवाँ देसावगासी व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोऊं नीमी भूमिकी बाहिरकी वस्तु अणाइ हो १ मुकलाइ हो २ शब्द करी जणायो होय ३ रूप करी दिखलाई हो ४ पुद्गल नांखिया आपण पउ जणावो होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ __ अर्थ-दशवे देशावकाशिक बनके दोपोकी आलोचना करता हूं जैसेकि-परिमाण की हुई भूमिकाके वाहिरने वस्तु मंगवाई हो १ अथवा मेनी हो २ शब्द करके अपने आपको जताया वा दर्शाया हो ३ अथवा रूप करके अपने भाव प्रगट किये हों ४ किसी वस्तुके गिरानेसे किसी व Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुको बतला दिया हो ५ यदि इस प्रकारसे कोई भी दोष लगा हो तो मै उन दोषों से अपने आपको पृथक् करता हूं। इग्यारमा पडिपुण्ण पोसह व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोउं अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सिज्जा संथारा १ अप्पमन्जिय दुप्पमजिय सिज्जा संथारा २ अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवण भूमिका ३ अप्पमन्जिय दुप्पमजिय उच्चारपासवण भूमिका ४ पोसह मांहि विकथा प्रमाद कोधा हाय ५ जो मे देवसि अइयार को तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-एकादशवे प्रतिपूर्ण पोषध व्रतके अतिचारोंकी आलोचना करता हू कि-शय्या संस्तारकको अप्रतिलेखित वा दुःप्रतिलेखित किया हो १ अथवा शय्या सस्तारकको अप्रमार्जिन वा दु प्रमार्जित किया हो २ इसी प्रकार विष्टा और मूत्रके स्थान भी सम्यक् प्रकारसे प्रतिलेखितादि न किए हो ३ ओर प्रमार्जित भी न किए हो ४ और पौषधमें विकथा वा प्रमाद किया हो ५ । सो इस प्रकारके दोषोंसे मै पृथक् होता हू अर्थात् मै उक्त दोपोको छोडता हूं। बारमा अतिथिसंविभाग व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागो होय ते आलोऊं सूज्झती वस्तु सचित्त उपर मूफी होय १ सचित्त करी ढाकी होय २ काल अतिक्रम्या होय ३ आपणी वस्तु पारकी कीधी होय ४ मच्छर भाव दान दीधा होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुकडं ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ____ अर्थ-चतुर्दश ज्ञानके अतिचार ( १४ ), पांच सम्यक्त्वके, ६० द्वादश व्रतोंके, १५ कर्मादानोंके, ५ पाव सलेखनाके एवं ९९ अतिचारोंके विषय यदि कोई अतिक्रम १ व्यतिक्रम २ अतिचार ३ अनाचार ४ आप दोप सेवन किए हों औरोसे दोप आसेवन करवाये हों जो उक्त दोष आसेवन करते है उनकी अनुमोदना की हो अत जो मैने दिनके विषय इस प्रकारसे अतिचार आसेवन किए हो तो मैं उन दोषोंसे पीछे हटता हू अर्थात् वे मेरे दोष निष्फल हो॥ ___ अठारा पापस्थानक ते आलोऊ प्राणातिपात १ मृषावाद २ अदत्तादान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ ९ राग १० देष ११ कलह १२ अभ्याख्यान १३ पिसुन्न १४ परपरिवाद १५ रति अरति १६ माया मोसो १७ मिच्छा दसण सल्ल १८ । अठारा पापस्थानक सेव्या होय १ सेवाया होय २ सेवतां प्रति अणुमोद्या होय ३ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-अब मै अष्टादश पापोंकी आलोचना करता हूं जैसेकि-हिंसा १ झूठ २ चोरी ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ ९ राग १० द्वेष ११ क्लेष १२ असत्य दोषारोपण १३ चुगली करना १४ दूसरोंके अवगुण वर्णन करने १५ विषयादिमे रति और उनके न मिलने पर अरति करना वा दुःख मानना १६ छलसे असत्य बोलना १७ मिथ्या दर्शन शल्य १८ ये अष्टादश पाप सेवन किए हों अथवा औरोंसे आसेवन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ करवाए हों तथा जो आसेवन करते हैं उनकी अनुमोदना की हो सो इस प्रकारके दोषोसे मै पीछे हटना हूं ॥ इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे देवसि अइ. यार कओ काइओ वाइओ माणसिओ उसुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिजो दुज्झाओ दुचिंतिओ अ. णायारो अणाछियचो असावग्गो पावग्गो नाणे तह दसणे चरित्ता चरिते सुय लामाइयं तिण्हं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खाव्ययाणं पंचण्हं अणुव्वयाणं बारस्त विहस्त सावग धम्मस्त जं खंडियं जं विराहियं जो मे देवसि अइयार को तस्त मिञ्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-मै इच्छा करना हूं एक स्थानमें बैठकर कायोत्सर्ग करनेकी क्योंकि-जो मैं ने दिनमें अनिचार किए है कायासे, वचनसे, मनसे, अथवा सत्रविरुद्ध प्रतिपादन किया हो कुमार्गमें गमन किया हो अकल्पनीय पदार्य सेवन किए हों अकरणीय कार्य किए हों सो इनकी निवृत्ति के लिये शुभ ध्यान करता हूं तथा दुर्ध्यानसे निवृत्ति करता हूं, दुश्चित्वनसे भी पीछे हटना हूं। इसी प्रकार अनाचार अनिच्छनीय (जिसकी इच्छा करनी योग्य नही है) पदार्थ अश्रावक भावकी प्रवृत्तिसे भी निवृत्ति करता हू । यदि ज्ञान दर्शन चरित्राचरित्र श्रुत सामायिकमें दोप लगा हो तो उससे भी निवृत्ति करता हूं। यदि तीनों गुणव्रतों चार शिक्षाव्रतों पंच अनुव्रतों एवं द्वादश प्रकारके श्रावक धर्मको खंडिन किया हो अथवा विराधित किया हो जो मैंने दिनमें अनिचार किया है उससे मैं पीछे हटना हूं तथा वह मेरा अतिचाररूप पाप निष्फल हो । १ ध्यानमें यहा तक ही पठन करना चाहिये । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ सव्वस्सवि देवसियं दुभ्भासियं दुचिंत्तियं दुचि. ठियं दुनिस्सियं अधिका ओच्छा पाठ पढ़या होय आगलनूं पाछल पाछलनूं आगल कोई खोटा अक्षर खोटी मात्रा बोला होय बोलाव्या होय जो मे देवसि अइयार को तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ___अर्थ-दिनमें यदि मैंने दुश्चित्वन किया हो दुष्ट भापण किया हो दुष्ट प्रकारसे वेठनादि क्रिया को हो पाठ अनुक्रमतापूर्वक पठन न किया हो तथा अशुद्ध पाठ पठन किया हो तो मै उन दोपोंसे पीछे हटना हूं अथवा वे मेरे अनिचाररूप दोप निष्फल हो । फिर नमस्कार मंत्र पढ़के कायोत्सर्गको सपूर्ण करे । ॥ इति प्रथम सामायिक आवश्यक वश्यक सम्पूर्णम् ॥ फिर "तिक्खुत्तो" के पाठसे गुरु देवको बदना नमस्कार करके द्वितीय आवश्यक करे, जैसेकि-'लोगस्स उजोयगरे" इत्यादि पाठ पढ़के द्वितीय आवश्यक पूरा करके फिर तृतीय वंदना रूप आवश्यककी आज्ञा लेकर निम्न प्रकारसे तनीय आवश्यक करे ॥ (इच्छामि खमासमणो) का पाठ दो वार पढे किन्तु प्रथम वार जब निस्सहियाय ऐसा सूत्र आवे तब हाथ जोड़कर वैठ जावे, फिर षट्प्रकारसे आवर्तन निम्न लिखितानुसार करे जैसेकि-प्रथम (अहोकायं) यह सूत्र पढ़ता हुआ तीन आवर्तन होते है, दोनों हाथ दीर्घ करके दशों अगुली गुरुके चरणों ऊपर लगाता हुआ मुखसे "अ" अक्षर उच्चारण करे, फिर दोनों हाथ मस्तकको स्पर्शन करता हुआ "हो" अक्षर कहे यह प्रथम आवर्तन है | इसी प्रकार “का" और "य" अक्षरोके उच्चारणसे द्वितीय आवर्तन होता है । फिर पूर्वोक्त विधिसे "का" और "य" अक्षरके कहनेसे तृतीय आवर्तन होता है ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार जत्ता, मे, जवणिज्जं च भे, इन सूत्रोंके भी तीनर ही आवर्तन होते हैं-जैसेकि-प्रथम मंद स्वरके साथ "ज" अक्षर उच्चारण करे, फिर मध्यम स्वरसे "ता" ऐसे कहे, फिर ऊंचे स्वरके साथ हाथ मस्तकको लगाता हुआ "मे" ऐसे वर्ण उच्चारण करे। इन तीनों अक्षरोंसे प्रथम आवर्तन होता है। फिर "ज" " "णि" यह तीनही अक्षर पूर्वोक्त स्वरोंके अनुकूल उच्चारण करनेसे द्वितीय आवर्तन होता है। फिर "ज"च" "मै" इन तीन वर्णोंको पूर्वोक्त प्रकारसे उच्चारण करनेसे तृतीयावर्तन होता है । इस प्रकारसे षट् आवर्तन एक पाठसे होते है और दो वार उच्चारण करनेसे द्वादश आवर्तन हो जाते है, किन्तु द्वितीय वारके पाठमें "आवस्सियाए" ऐसे पाठ न पढ़े, अपितु सर्व सूत्र निम्न लिखितानुसार है ॥ इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिजाए नितोहियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीही अहो कायं कायसंफासं खमणिज्जो मे किलामो अप्पकिलं. ताणं वहु सुभेण भे दिवसो वइक्कतो जत्ता भे जवणि ज्जं च भे खामेमि खमासमणो देवलियं वइक्कम आवसियाए पडिकमामि खमालमणाणं देवसियाए आ. सायणाए तितीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मण दुक्कडाए वय दुकडाए काय दुक्कडाए कोदाए माणाए मायाए लोहाए सव्व कालियाए सव्व मिच्छो क्याराए सव्व धम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे दे. वसिओ अइयारो कओतस्त खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ हिदी पदार्थ-(खमासमणो) हे क्षमाके श्रमण शान्तिके समुद्र Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ (जावणिज्जाए) जिस करके कालक्षेप होता है ऐसी शक्ति करके तथा जन्म समयके बालकवत् जिसके दोनों हाथोंकी दोनों मुष्टिया आंखों पर होती है उसकी नाई (निसीहियाए ) जिस शरीरका मुख्य कत्तव्य प्राणातिपातके निषेधका है ऐसे शरीर करके आपको (वदिउं) वदना करनेकी (इच्छामि ) इच्छा करता हू (मिउग्गह) स्व देह प्रमाण प्रमाण की हुई भूमिकामें प्रवेश करनेकी ( मे) मुझेको (अणुनाणह) आज्ञा दीजिए । इस प्रकारसे आज्ञा लेकर अवग्रहमें प्रवेश करे (निसीहि ) गुरुदेवको वंदना विना निसने अन्य क्रिया रूप व्यापारका निषेध किया है, फिर मुखसे ऐसे कहे कि (अहोकायं) हे क्षमा श्रमण आपके चरण कमलोंको (काय) हाथ करके (संफासं) स्पर्श करता हूं। इस प्रकार आज्ञा लेकर चरण कमलोंको स्पर्श करके ऐसे कहे कि (किलामो) यदि आपके शरीरको मैंने कोई पीडा दी हो (भे) हे भगवन् आप (खमणिजो) क्षमा करनेके योग्य है इस लिए क्षमा कीजिए क्योंकि-(बहु सुभेण)वहुत ही शुभक्रियाओ करके (भे) आपका (दिवसो) दिवप्त [दिन] (वइकतो) अतिक्रान्त हुआ है और आप (अप्पकिलंत्ताण) अल्प वेदनावाले है-शारीरिक मानसिक वेदनासे रहित है यदि शारीरिक वेदना आपको उत्पन्न होती है तो आप उसमें आत और रौद्र ध्यान नहीं करते है । हे करुणासमुद्र ( जत्ता) तप नियम सयम स्वाध्याय रूप यात्रा (भे) आपमे सतत विद्यमान है, (च) और (जवणिज्जं भे) इन्द्रिय नोइद्रियके उपशम करनेसे आपका शरीर परम सुन्दर और शान्तिरूप हो गया है, (खमासमणो) हे क्षमा श्रमण (देवसियं) दिन सम्बन्धि (वइकम्म) व्यतिक्रम हुआ मेरा किया हुआ जो अपराध उसकी मैं (खाममि) आपसे क्षमा मागता हू-आप दोषको क्षमा करनेके योग्य है इसलिये क्षमा कीजिए, और (आवसिआए) अवश्य करणीय प्रतिलेखनादि क्रियाओंके करनेसे यदि मुझको अतिचार लग गया हो तो मै उस अतिचार रूप दोषसे ( पडिकमामि ) पीछे हटता हूं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपोंकी क्षमा करनेकी प्रार्थना अवश्य ही करे क्योंकि क्षमा मांगनेसे अविनय भाव दूर हो जाता है। त्रयस्त्रिंशत् प्रकारकी आशातनायें करके वा मन वचन काय करके तथा चारों कषायों करके कभी भी गुरुकी आशातना न करे । यदि किसी प्रकारसे भी गुरुकी आशातना हो गई तो उसका पश्चात्ताप करे, फिर स्वआत्माद्वारा उस कर्मकी निंदा करता हुआ पुनः कभी भी आशातना न करे क्योंकि अविनय भावसे ज्ञानादि गुणोकी सफलता नही होती है। इति श्री वंदनारूप तृतीयावश्यक समाप्तम् ॥ फिर तिक्खुत्तोके पाठसे वदना करके चतुर्थ आवश्यक करनेको गुरु महाराजसे आज्ञा लेकर पूर्वोक्त ९९ अतिचार जो कायोत्सर्गमे पठन किए थे उनको पठन करे किन्तु सर्व पाठोंके अतमें "तस्स मिच्छामि दुकड" ऐसे कहना चाहिये क्योंकि ध्यानमें यह कहा जाता है कि "जो मे देवसि अइयार कओ तस्स चिंतवणा" इत्यादि । फिर तिक्खुत्तोके पाठसे वदना करके बैठकर दक्षिण जानु ऊर्च करके वामा जानु भूमिका पर रखकर नमस्कार मत्र पढे । फिर "करेमि भत्ते का सूत्र पठन करे । फिर निम्न प्रकारसे पाठ पढे-इस क्रियाको वा पाठको श्रावकसूत्र भी कहते है । ___ चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहु मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगल चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलि पण्णतो धम्मों लोगुत्तमा चत्तारि सरणं पधज्जामि अरिहंता सरणं पव्वज्जामि सिद्धा सरणं प. व्वज्जामि साहू सरणं पध्वज्जामि केवलि पण्णनोध. म्मो सरणं पव्वज्जामि ॥ १ अरिहताजीको सरणो सिद्धाजीको सरणो साधुजीको सरणो केलि परूप्या - - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० हिंदी पदार्थ-(चत्तारि मंगलं) चार मंगल है-जैसेकि-(अरिहता मगलं) त्रैलोक्य पूज्य श्री अर्हन्त मंगलीक है, द्वितीय-(सिद्धा मंगलं) सिद्ध प्रभु मगलीक है, तृतीय-( साहू मगलं) साधु मगलीक है, चतुर्य(केवलि पण्णत्तो धम्मो मगलं) श्री केवली भगवानका प्रतिपादन किया हुआ श्रुत चारित्र रूप धर्म मंगलीक है, (चत्तारि लोगुत्तमा) चार ही पदार्थ लोकमें उत्तम है (अरिहंता लोगुत्तमा) अरिहत प्रभु लोकमें उत्तम है, (सिद्धा लोगुत्तमा) सिद्ध भगवान् लोकमें उत्तम हैं, (साहु लोगुत्तमा ) अहनाज्ञानुकूल क्रिया करनेवाले साधु लोकमें उत्तम है, (केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा) श्री केवलि भगवानका प्रतिपादन किया हुआ धर्म लोकमें उत्तम है। पुनः (चत्तारि सरणं पव्वजामि ) मैचार शरण अंगीकार करता हू (अरिहंता सरण पव्वजामि) श्री अर्हन् भगवान्का शरण ग्रहण करता हू (सिद्धा सरणं पव्वजामि ) श्री सिद्ध महाराजाओंका शरण ग्रहण करता हूं (साहू सरणं पव्वजामि) श्री साधु मुनिराजोंका शरण ग्रहण हू (केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वजामि) श्री केवलि भगवान्के प्रतिपादित धर्मका शरण ग्रहण करता हूं। भावार्थ-लोकमें चार ही मंगल है, चार ही उत्तम है, चार ही शरण है जैसेकि अर्हन् १ सिद्ध २ साधु ३ केवलि भापित धर्म ४ ॥ फिर "इच्छामि ठामि" इस सूत्रको पढके इच्छाकारेण यह सूत्र पाठ पड़े, फिर तिक्खुत्तोके पाठके साथ वंदना नमस्कार करके व्रत अतिचारके पठन करनेकी आज्ञा लेकर प्रथम ज्ञानातिचारोंकी आलोचना करे, जैसेकि-- "आगमे तिविहे पण्णते"का पाठ॥ आगमे तिविहे पण्णते तंज्जहा सुत्तागमे अ. दया धर्मको साणो || चार सरणा दुःख हरणा और न बीजो कोय, जो भनि प्राणी भादरो तो अक्षय अचल गति होय॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालमें स्वाध्याय न किया हो (असल्झाइय सज्झायं) अस्वाध्यायके समयमें स्वान्याय किया हो (सज्झाइय न सज्झायं) स्वाध्यायके समयमें स्वाध्याय न किया हो (जो) जो (मे) मेरा (देवसि) दिन सम्बन्धि (अइयारो) अतिचार (कओ) किया हुआ है (तस्स) उसका (मिच्छा मि) फल मिथ्या हो वा निष्फल हो (दुक्कड) पापका ॥ भावार्थ-आगम तीन प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है नेप्सकि सूत्रागम १ अर्थागम २ तदुभयागम ३, सो जवाइद्धं इत्यादि १४ अनिचार ज्ञान के है सो उनको श्रावक दूर करे। उक्त पाठसे श्रावकको सूत्र पठन करने स्वतः ही सिद्ध होते हैं । दर्शनका पाठ॥ . दर्शन सम्यक्त्व परमत्थ संश्रवो वा सुविद्य प. रमत्य सेवणावावि वावण्णं कुदंसण वज्जणाय एवी 1 सम्यक्त्व प्रहण करनेके निम्न लिखिन मूत्र पढना चाहिए. अहन भते तुम्हाणं म्मीव मिच्छत्ताउ पटिनमामि, सम्मत्त उवप्त पत्र. ज मि तजहा दबउ वित्तर कालर मावउ दव्बउण मिच्छत कारणाई पञ्चक्खामि, सम्मत्त कारणाइ उप पवजामि नो मे कप्पड अझप्याभई अन्नर. थिए वा अनउत्विय देवयाणि वा अनउत्यिय परिग्राहियाणि, चेइयाणि पहित्तए वा नमसित्तए वा पुछि अणालित्तणं आलवित्ता वा सलवित्तए वा तेसि अमगंधा, पाण था, खाइम था, सादम या, दाउ वा, अणुप्पयाउ वा खित्तउण दत्य का अनय या, काल उणं जायजीवाए भाषण जावगहेण न हिजामि जा. बच्उलग न छलिनामि, जाव सनिवारण नाभिभविजामि जाव अनेण वा केणयगेयाय कारणाए सपरिणामो न परिवहड तामेव असम्पदसणं नमथगयाभिटगेणं, गणाभिनगेण, पलाभिटगेणं, देवाभिगेण, गुरू निग्गहेणं वित्तीकनोगं धोसिमि ॥ अग्हतो महदेवो जापनीयाय मुमा सो गुरुणो जिण पउत्तं तन ईयसम्मत मए गहिय । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त सदहणा एहवा सम्यक्त्वना समणोवासयाणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तज्जहा ते आलोउं संका कंक्खा वितिगिच्छा परपासंडी परसंसा परपासंडी संग्रवो एवं पांच अतिचार मध्ये जे कोई अतिचार लागो होय तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ हिदी पदार्थ-(दर्शन सम्यक्त्व) दर्शन सम्यक्त्वका स्वरूप वर्णन करते है कि (परमत्थ) परमार्थ जो नव तत्व जीवादि है उनका (संथवो) संस्तव करना परिचय करना तथा (सुदिठ परमत्थसेवणावि) परमार्थको जिन्होंने भली प्रकारसे देखा है उनकी सेवा करनी (वावण्णं) जिन्होने सम्यक्त्वको धारण करके त्याग दिया है वा वमण कर दिया है तथा जो (कुदसण) कुत्सित दर्शन है जिन्होंमें सम्यक्त्वका ही अभाव है ऐसे पुरुषोंकी सगतिको (वज्जणाय) वर्जना (एवी) इस प्रकारसे (सम्मत्त) सम्यक्त्वकी (सदहणा) श्रद्धा होती है (एहवा सम्यक्त्वना समणोवासयाण) इस प्रकारसे जो सम्यक्त्वके धारक श्रमणोपासक है उनको (सम्मत्तस्स) सम्यक्त्व सम्बन्धि (पंच) पाच (अइयारा) अतिचार (पयाला) स्थूल है जोकि (जाणियव्वा) जानने योग्य तो अवश्य है, किन्तु (न समायरियव्वा) समाचरण योग्य नहीं है (तज्जहा) तद्यथा (ते आलोउं) उनकी आलोचना करता हूं-जैसेकि (संका) जिनवचनोंमे शंका करना (कक्खा) परमतकी आकाक्षा करना (वितिगिच्छा) फल विषय संशय करना जैसेकि सुव्रतोंका फल हे किम्बा नहीं है (परपासडी परसंसा) परपाखडियोकी प्रशंसा करना क्योकि मिथ्यात्वियोंकी प्रशसा करनेसे बहुतसे आत्मा मिथ्यात्वमे ही प्रवेश कर जाते है (परपासंडी सथवो) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपाषंडियोंसे संस्तव परिचय करना क्योंकि-संगदोष महान् हानिकारक होता है (एवं पांच अतिचार मध्ये जे कोई अतिचार लागो होय) इस प्रकार दर्शनके पांच अतिचारों से यदि कोई अतिचार लगा हो तो (तस्स) उसका (मिच्छा मि) मिथ्या हो [निष्फल हो] (दुकडं) पाप ॥ भावार्थ-सम्यक्त्वधारी श्रावक सम्यक्त्वके पांच दोष जोकि महान् स्थूल है उनको दूर करे जैसेकि-निनवचनोंमें शंका करना १ परमतको विभूति देखकर परमतकी आकांक्षा करना २ फल विषय संशय करना ३ परपाषंडियोंकी प्रशंसा करना ४ और पार्षडियोंका ही संस्तव परिचय करना ५ इन दोषोको दूर करके शुद्ध सम्यक्त्वको धारण करे ॥ फिर द्वादश व्रतकी आलोचना निम्न प्रकारसे करे ।। पहिला अणुव्रत थुलाउ पाणाइवायाउ वेरमणं नस जीव बेंइंदिय तेइंदिय चउरिदिय पंचेंदिय जाणी पोछी संकल्पो तेमांहि सगा सम्बंधि शरीर माहिला पीडाकारी सअपराधि ते उपरांत निरपराघि आकुट्टो हणवानी बुद्धिसे हणवाका पचक्खाण जावजीवाय दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि म. णसा वयसा कायसा एहवा पहिला धूल प्राणातिपात विरमण व्रतना पंच अइयारा पयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा ते आलोउं बंधे १ वहे २ छविच्छेए ३ अइभारे ४ नात पाणी वोच्छेए ५ जो मे देवति अइयार कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ १ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ हिंदी पदार्थ - (पहिला) प्रथम (अणुव्रत) साधुकी अपेक्षा जो छोटा व्रत है (थुलाउ) स्थूल (पाणाइवायाउ ) प्राणातिपातसे ( वेरमण ) निवृत्तिरूप ( त्तस ) त्रस (जीव ) जीव जैसेकि ( बेइंदिय) हींद्रिय जीव जैसे कि सीप शख जोकादि ( तेइंद्रिय) त्रीइंद्रिय जीव जैसेकि जू पिपीलिकादि ( चउरिंदिय) चतुरिंद्रिय जीव जैसे मक्षिकादि ( पंचेंदिय ) पचेंद्रिय जीव जैसेकि नारकी मनुष्य तिर्यगू देव ( जाणी ) जान करके ( पीच्छी ) परीक्षा करके ( संकल्पी ) मनमें संकल्प करके ( ते मांहि ) उक्त जीवोंमेंसे ( सगा सम्बन्धि शरीर माहिला पीड़ाकारी सअपराधि ते उपरान्त निरपराधि आकुट्टी हणवानी बुद्धिसे हणवाका पञ्चक्खाण) अपने स्वजन सम्बन्धि तथा शरीरमें पीडा करनेवाला और स्व अपराध करनेवाला वा अन्यायसे वर्तनेवाला जो स्व अपराधि है उनके विना जो निरपराधि जीव हैं उनको जानकर मारनेकी बुद्धिसे मारनेक। प्रत्याख्यान ( जाव जीवाय) यावत् जीव पर्यन्त ( दुविह) द्विविध वा (तिविहेणं) त्रिविधि करके जैसे कि ( न करेमि ) नहीं करू ( न कारवेमि) नहीं हिंसादि औरोसे कराऊ ( मणसा ) मन करके ( वयसा ) वचन करके (कायसा) काय करके (हवा) इस प्रकार से ( पहिला थूल प्राणातिपात विरमण व्रतना) प्रथम स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रतके ( पच अइयारा ) पाच अतिचार ( पयाला ) प्रधान [ मोटे ] ( नाणियव्वा ) जानने योग्य है ( न समायरियव्वा ) किन्तु ग्रहण करने योग्य नहीं हैं ( तंज्जहा) तद्यथा ( ते आलोउ ) तिनकी मै आलोचना करता हू ( बंधे) क्रोधादि करके कठिन बंधनोंसे बांधना (वहे) वध करना (छविच्छेए) छविका छेदन करना (अइभारे) मर्यादा रहित भारका लादना ( भात पाणी वोच्छेए) अन्न पाणीका निरोध करना (जो ) जो (मे) मैने (देवास) दिन सम्बन्धि ( अइयारो) अतिचार (कओ) किया है ( तस्स ) उसका पाप (मिच्छामि ) मिथ्या हो (दुक्कडं ) जो दुष्कृत है ॥ भावार्थ -- प्रथम अनुव्रत में यह कथन है, किं गृहस्थी स्थूल हिंसा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का परित्याग करे क्योंकि सर्वथा हिंसाका त्याग तो गृहस्थोंसे हो नहीं सकता, इस लिये स्थूल शब्द ग्रहण किया गया है। फिर त्यागमें भी जो निरपराधि जीव है उनको न मारे, अपितु स्वअपराधियोंका त्याग नहीं है। उक्त व्रतमें न्यायधर्म वा न्यायमार्ग भली प्रकारसे दिखलाया गया है। जो निरपराधियोंकी रक्षा स्वअपराधियोंको दड इस कथनसे राजे महाराने भी जैन धर्मको सुखपूर्वक पालन कर सकते हैं । फिर पाच ही अतिचार रूप दोषोंको भी दूर करे कि क्रोधके वशीभूत होकर जीवोंको बांधना १ । वध करना अपितु जो वालकोंको ताड़नादि किया जाता है वह केवल शिक्षाके वास्ते होता है किन्तु उस आत्माको पीड़ित करनेके लिए नही जैसे अध्यापक छात्रोंको शिक्षाके लिये ही ताडता है किन्तु उनके प्राणनाश करनेके लिए नहीं इस लिये क्रोधसे वध करना भी प्रथम अनुव्रतमें अतिचार रूप दोप है २ । तृतीय अतिचार छविका छेदन करना ही है जैसेकि नेत्रोंके विषयके वास्ते पशुओके अंगोपांग काट देने ३। और चतुर्य अतिचार अतिभारारोपण है, पशुओकी शक्तिको न देखते हुए अति भारका लादना यह मी प्रथम अनुव्रतमे दोष है ४ । पचम दोष अन्नपानीका निरोध रूप है, क्योंकि वे अनाथ आत्मा जो पूर्व पापोंके फलस पशु योनिको प्राप्त हुए है उनकी भली प्रकारसे रक्षा न करना यह भी प्रथम अनुव्रतमें अतिचार रूप दोष है ५॥ इस लिये अनुव्रत द्विकरण तीन योगसे आयु पर्यन्न ग्रहण करे, करूं नहीं मनकरके वचन करके काय करके कराऊ नहीं मन करके वचन करके काय करके इस प्रकार गृहस्थी प्रथम अनुव्रत धारण करके फिर द्वितीय अनुव्रत धारण कर जोकि निम्न लिखित है वोजें अणुव्रत शुलाउ मोसावायाउ वेरमणं कन्नालिए गोवालिए भोमालिए थापणमोसा मोटको कूड़ी साख इत्यादि मोटकं झूठ बोलवाना पञ्च. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्खाण जावजीवाय दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमिमणसा वयला कायसा एहवा बोजा थूल मूषा-वाद विरमण व्रतना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा ते आलोउं सहस्सा भक्खाणे रहस्सा भक्खाणे सदारमंत भेए मोसोवएसे कूड़ लेह करणे तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥२॥ हिंदी पदार्थ-(बीजु अणुव्रत) द्वितीय अनुव्रत (थुलाउ) स्थूल [मोटा] (मोसावायाउ) मृषावादसे (वेरमणं) निवृत्ति करता हूं जैसेकि(कन्नालिए) कन्या तथा वर सम्बन्धि असत्य जैसे किसीने विवाह सम्बन्धि वार्ता की तव वर कन्या सम्बन्धि असत्य भाषण करना तथा इसी प्रकार (गोवालिए) गो आदि पशुओं सम्बन्धि असत्य (भोमालिए) भूमिका सम्बन्धि असत्य (थापण मोसो) तथा स्थापन मृषा अर्यात किसीने अमुकके पास विनाशाक्षिओके कोई वस्तु स्थापन करा दी तो उसके लिए असत्य भाषण करना उसीका नाम स्थापन मृषा है (मोटकी कूडी साख) स्थूल कूट शाक्षि देना जैसेकि राज्यद्वारमें किसी कारणके एच्छा करनेपर असत्य भाषण करना (इत्यादिक मोटषं झूठ बोलवाना पञ्चक्खाण) इत्यादि स्थूल मृषावाद बोलनेका प्रत्याख्यान [नियम ] (जावजीवाय) यावत् जीव पर्यन्त (दुविहं) द्विकरण (तिविहेणं) त्रियोगसे जैसेकि (न करेमि) उक्त कारणोसे असत्य भाषण नहीं करू (न कारवेमि) नहीं औरोंसे कराऊ (मणसा) मनसे (वयसा) वचनसे (कायसा) कायसे, एहवा बीजा थूल मृषावाद विरमण बनके पंच अतिचार (नाणियवा) जानने योग्य है किन्तु ( न समायरियव्वा) आचरणके योग्य नहीं है (तज्जहा) तद्यथा जैसेकि-(सहस्सा भक्खाणे) विचारशून्य होकर अन्य आत्माओंके दोषारोपण किया हो वा अकस्मात् विनाविचारे अन्य जीवोंको दोषोके Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागी सिद्ध किया हो (रहस्सा भक्खाणे) किसीकी रहत्य वार्ता प्रगट करी हो (मदारमंत भेए) खनाराका मंत्र भेद किआ हो जैसेकि-स्त्रीकी मर्मयुक्त वार्ताका कयन करना (मोनोवएसे ) अन्य आत्माओंको मृपा भाषण, करनेका उपदेश दिया हो (कूड़ लेहकरणे) कूट [ असत्य ] लेख लिखा हो (नम) उस (मिच्छा मि दुकडे) अविवार रूप पापसे मैं पीछे . हटना हूँ ॥ भावार्य-द्वितीय अनुव्रतमें स्यूल मृषावाद बोलनका परित्याग किया जाता है जिसमें कन्यालीक गवालीक भूमालीक स्थापन मृया कूट शासि . इत्यादि प्रकारके असत्य भाषणका द्विकरण त्रियोगसे प्रत्याख्यान करे। फिर उक्त अनुवाकी रखाके वास्ते पांच अतिगारोंका भी परित्याग करे जैसेकि-विवारशून्य होकर किसी पर दोषारोपण करना १, कितीके मर्मयुक्त भेदको प्रगट करना २, त्वद्वारा मंत्रभेद करना ३, अन्य आत्माऑको मृषा भाषण करनेका उपदेश देना ४, कट लेख लिखने ९, वह पांच ही अतिवारन दोष द्वितीय अनुक्राको रसाने वाले दूर करे, इनके , प्रत्यक्ष फनसे लोग अनभिज्ञ नहीं हैं इसी लिये ही इनका विशेष अर्थ नहीं लिखा है। अथ तृतीय अनुव्रत विषय ॥ तीजा अणुवन झूठाउ अदिनादाणार. वेर. मगं खानर खणो ५ गोठड़ो छोड़ो २ तालापडि कुंपो ३ वाट पाड़ो ४ पड़ी वस्तु धणीयाली जाणो ५ इ.. त्यादिक मोटका अदत्तादाण लगा सम्बन्वि व्यापार सम्बन्धि तथा पड़ो निर्धनो वस्तु ते उपरान्त मो. टका अदत्तादाग लेवाना पत्रक्खाण जावजोय दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणमा वयसा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ कायसा एहवा तीजा थूल अदत्तादाण विरमण व्रतना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं - ज्जदा ते आलोउं तेणाहडे १ तक्करप्पउग्गे २ विरुद्ध रज्जाईक्कम्मे ३ कूड़ तोले कूड़ माणे ४ तप्पडिरूवग ववहारे ५ जो मे देवसि अइयारो कउ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ३ ॥ हिन्दी पदार्थ - (तीजा) तृतीय ( अणुव्रत ) अनुव्रत ( धुलाउ) स्थूल ( अदत्तादाणाउ वेरमण ) अदत्तादानसे निवृत्ति करना हू ( खातर खणी) किसीके घरमे संधि करी हो [ भित्ति आदिका तोडना ] ( गाठड़ी छोड़ी होय) गांठ कतरी हो ( तालापाडे कुची ) अन्यके तालाओंको अन्य कुनिया लगाई हों (वाट पाड़ी) मार्ग [पथ ] में लूटना (पडा वस्तु घणीयाती जाणी) किसीकी महार्थ वस्तु जानकर कि इसका अमुक धनी है वा देखकर उठा ली हो ( इत्यादि मोटका अदत्तादाण ) इत्यादि स्थूल अदत्तादानका प्रत्याख्यान करता हूं किन्तु ( सगा सम्बन्धि ) वजन सम्बन्धि वस्तु उठाकर लेनेका त्याग नहीं है, यदि उनको किसी प्रकारका भ्रम न हो, तथा - ( व्यापार सम्बन्धि ) व्यापार सम्बन्धि जैसेकि - आदर्शके नमूने के वास्ते कोई वस्तु उठाई जाती है ( तथा निर्धनी वस्तु ) तथा जिस वस्तुका खोज करने पर भी स्वामी सिद्ध न हो ( ते उपरान्त मोटका अदत्तादाण ) इनके विना स्थूल अदत्तदानके ( लेवाना पच्चक्खाण ) लेनेका प्रत्याख्यान ( जावजीवाय) आयु पर्य्यन्त ( दुविह) द्विकरण और ( तिविहेणं ) त्रियोगसे जैसे कि ( न करेमि ) न करू ( न कारवेमि) और नाहीं चोरी कर - नेका अन्यको उपदेश देकर उनसे चोरी कराऊ ( मणसा ) मन करके ( वयसा ) वचन करके ( कायसा ) काय करके ( एहवा तीजा थूल अदत्तादाण विरमण व्रतना ) ऐसे तृतीय स्थूल अदत्तादान निवृत्तिरूप व्रत 4 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के (पंच अड्यारा) पांच अतिचार (नाणियवा) जानने योग्य हैं किन्तु (न समायरियव्वा) आचरणे योग्य नहीं है (तंज्जहा) तद्यथा (ते आलोउं) उनकी आलोचना करता हूं-जैसेकि (तेनाहडे) चोरीकी वस्तु ली हो (तक्करप्पउग्गे) चोरोंकी सहायता की हो (विरुद्ध रज्जाइक्कन्में) राज्य विरुद्ध काम किया हो क्योंकि जो राज्य नियम [कानून] है उसके विरुद्ध वर्नाव करना तृनीय जनमें अतिचार रूप दोष है, इसलिए राज्य नियमसे यदि विरुद्ध काम किया हो (कड़ तोले) न्यूनाविक तोला हो (कूड़ माणे) वस्त्रादिका माप न्यूनाविक किया हो (तप्पडिरूवगववहारे) अविक मूल्यकी वस्तुमें अल्प मूल्यकी वस्तु एकत्व करके विक्रय करना जैसेकि- . घृनमें चरबी, दुग्धमें जल, इत्यादि (जो) जो (मे) मैने (देवसि) दिनमे (अडयारो) अनिनार (कर) किया है (तस्स) उस (मिच्छा मि दुक्कड़) अतिचारोसे मै पीछे हटता हूं ॥ भावार्थ-तृतीय अनुव्रतमें स्थूल चौर्य कर्मका परित्याग होता है सकि-संधिका छेदन करना १ गांठ कतरना २ परके ताले अन्य कुंजि- । योंसे खोलने ३ किसीकी वस्तु उठा लेनी ४ इत्यादि इस प्रकारके वीर्य कमोंका परित्याग करे । फिर उक्त व्रतकी रक्षाके लिए पांच अतिचार रूप दोपोको भी छोड़ देवे, जैसेकि चोरोंका माल लेना १ चोरोंकी सहायता करनी २ राज्य विरुद्ध कार्य करने ३ न्यूनाधिक तोलना और मापना ४ बहुमूल्य वस्तुमे अल्प मूल्यवाली वस्तुको एकत्व करके बहु मूल्यके भावमे विक्रय करना ५ इन पात्र अनिचारोंको परित्याग करके तृतीय अनुव्रतको हिकरण और तीन योगोंसे शुद्ध पालन करे क्योंकि ये नियम उभय लोकमें सुखदायक है जैसेकि इस लोकमे शान्ति, राज्यसेवा, धर्म- ' रक्षा, परलोकमें आराधक भाव प्राप्त होना अनुक्रमतासे मुक्तिकी प्राप्ति होना एवं अनेक सुखोंकी प्राप्ति होती है। रक्षा, परलोको अनदायक है जैसेकि पालन करे क्योंकि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ अथ चतुर्थ अनुव्रत विषय ॥ * चौथं अणुव्रत लाउ मेहुणाउ वेरमणं सदारा संतोसिए अवसेसं मेहुण सेववाना पञ्चक्खाण ए पुरुषने अने स्त्रीने सभर्तार संतोसिए अवलेस मेहुनुं पञ्चकखाण अने जे स्त्री पुरुषने मूलथकीज काया करी मेहुण सेववानुं पञ्चक्खाण होय तेहने देवता मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धि मेहुणनुं पञ्चक्खाण जावजीवाय देवता देवी सम्बन्धि दुविहेणं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा मनुय तिर्यच सम्बन्धि एगविहं एगविदेणं न करेमि कायसा एहवा चौथा स्थूल मेहुण विरमण व्रतना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा * चतुर्थ व्रतधारी श्रावकों को इस प्रकारसे पाठ पठन करना चाहियेजैसे कि - ( चौधा अणुव्रत थूलाउ मेहुणाउ वेरमण सदारा संतोसिए भवसेस मेहुण पचक्खाण ) इस प्रकारसे तो श्रावक पढे, और श्राविकायें निम्न प्रकारसे पढे - ( चौथु अणुव्रत धूलाउ मेहुणा वेग्मण सभर्त्तार संतोसिए अवसेस मेहुणनु पच्चक्खाण ) यदि खो पुरुषको सर्वथा ही कायकरके मैथुन आसेवनका प्रत्याख्यान हो तिनको निम्न प्रकारसे पाठ पढना चाहिये । चौधु अणुव्रत थूलाउ मेहुणा वेरमण देवता देवी सम्बन्धि दुविह तिषिहेण इत्यादि मनुष्य तियैच सम्बन्धि एगविह एगविण न करोमि कायसा इत्यादि तथा श्री उपासक दशाङ्ग सूत्रमें महाशप्तकजीने नन्नत्य रेवतीपमुखा तेरस्स दाराण अवसेस मेहुणा वेरमणं इत्यादि उक्त सूत्रसे सिद्ध होता है जितनी स्त्रियोंका आगार रखा हो उतने प्रमाणसे उपरान्त मैथुन सेवन प्रत्याख्यान करे, प्रतिक्रमण करनेवालोंको योग्य है कि वे अपने २ यथेष्ट इस पाठको पढे | Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते आलोउं इत्तरिय परिग्गहियागमणे अपरिग्गहिः . यागमणे अणंगकोडा परविवाह करणे काम भोगेसु लिप्वाभिलासा जो में देवसि अइयार कर तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ४ ॥ हिदा पदाध-*(गोधु अगुव्रत थूलाउ मेहु गाउ वेरमणं ) चतुर्थ . अनुवत स्थूल मेथुनले निवृत्ति करना हू कि-(सदारा संतोसिए) स्वस्त्रीपर ही सतोष धारण करना ( अवत) अशप (महुणर्नु पञ्चक्खाण). मयुन आयेवनका प्रत्याख्यान (ए पुरुषने) यह नियम तो पुरुषोंका है ( अने स्त्रीने) परतु स्त्रियोंको निम्न प्रकारले कहना चाहिये (सभार संतोसिए ( स्वभार ऊपर ही संतोष करना ) अवसेस मेहुणर्नु पञ्चक्खाण ( स्वभ"के विना अन्यसे सर्वथा मैथुन सेवनेका प्रत्याख्यान ) अने ने स्त्री पुरुपने मूलथकीज कायाए करी मैथुन सेववार्नु पञ्चक्खाण होय (यदि स्त्री और पुरुषको प्रथमसे ही काय करक मैथुन सेवनेका प्रत्याख्यान होवे तो (तेहने देवता मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धि) उनको देव, मनुष्य, ति * चतुर्थ व्रत धारण करनेका पाठ: अहन्नं भत्ते तुम्हाणं समीवे उरालिय वेउब्विय थूलंग 'मेहुणं पञ्चक्खामि इमं बंभचेरवयं उवसं पवज्जामि तथदिव्वं दुविहं तिविहेण तेरिच्छं एगविहं तिविहेणं मणुयं एगविहं तिविहेणं आहागहिय भंगहिय मंगएणं तस्स मैत्त पडिकमामि निंदामि गरिहामि तज्जहा दव्वउ, खिनउ,कालउ, भावउ, तथदव्वउणं इमं वंभवयं उवसं पवज्जामि खित्तउणं इत्थता । अन्नत्यवा कालउण जावज्जावाए भावउणं जाव गहाइणा न गिण्हेजामि नावच्छलेणं न छलिज्जामि, जाव सन्निवाएणं नाभिभविज्जामि नाव अन्नणवा केणयरोयायं केण न परिभविज्नामि ताव इमं वंभचेरवयं अरिहंत सक्खियं देव सक्खियं अप्पसक्खियं अणुसरामि ।। , Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्यच सम्बंधि ( मेहुणर्नु पञ्चक्खाण ) मैथुन सेवनेका प्रत्याख्यान (जावनीवाय) सर्व आयु पर्यन्त (देवता देवी सम्बन्धि) देव देवी सम्वन्धि (दुविह तिविहेणं ) द्विकरण और तीन योगसे जैसेकि-( न करेमि ) मैथुन कर्म स्वय सेवन न करू (न कारवेमि) नाहीं ओरोंसे आसेवन कराऊं अ• पितु तीन योगोंसे जैसेकि-(मणसा) मन करके (वयसा) वचन करके (कायसा) काय करके ( मनुष्य तियच सम्बन्धि ) किन्तु मनुष्य और तिर्यग् सम्बन्धि (एगविहं) एक करण और ( एगविहेणं ) एक ही योग करके जैसेकि-(न करेमि) न करूं (कायसा) काय करके (एहवा चौथा थूल मेहुण विरमण व्रतना) ऐसे पूर्वोक्त कथन किए हुए चतुर्थ मेथुन विरतिरूप बनके (पच) पाच ( अइयारा ) अतिचार ( जाणियन्वा ) जानने योग्य है किन्तु (न समायरियव्वा) आचरणे योग्य नहीं हैं क्योंकि इनके आसेवनसे सदार संतोषी वन खडित हो जाता है (तजहा ते आलोउ) जैसेकि(इत्तरिय परिग्गहियागमणे ) यह सर्व अतिचार सदार संतोषीको स्वकाया करके ही होते है इसलिए इनका पदार्थ-श्रीमान् परम पडिन आचार्यवर्य श्री सोहनलालजी महाराननो निम्न प्रकारसे करते है, जिसका कारणवशान् बाल्यावस्थावाली कन्याके साथ विवाह हो गया है यदि वे अप्राप्य योतनकाठमें स्त्रीग करे नो प्रथम अतिचाररूप दोष होता है, द्वितीय अनिगार ( आरिपहियागमागे ) निस कन्याके साथ उपविाह [मागना] तो हो गया है कि तु आर्य विाह नहीं हुआ है यदि उपके साा सग करे- नो द्वितीय अनितार है (अगंगकी ग) अनग नाम कामदेव का है कीड़ा नाम क्रीड़ा अर्थात् रमण करने का है सो कामको आशा गर अय प्र.से उपहास्यादि क्रिया करनो अब यदि नत्र समास करें तो नभा अनंग अर्थात् अंगसे नित स्थानोपरि कुत्रेटा करना उपका ही नान अनग कोडा है इनी अर्थी स प्रकारको कुोटारे समा शिा हो जाती है, । सो दि ग क्रीडा को ले तो तृतीय गीगार है, चतुर्थ भतिवार (पर विवाह करणे) यदि परके अभिवाह हुरको नोड़कर अपना विवाह कर Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेवे तो चतुर्य अतिचार है। यदि पर विवाहका प्रथमवत् ही अर्थ किया जाए तो वह अर्थ सूत्रानुसार संवटित नहीं होता है क्योंकि जिस बातका श्रावकने नियम ही नहीं किया है तो भला उसका अतिचार कहांसे होगा? किन्नु जो स्वदारसंतोष व्रत है उसमें उक्त लिखा हुआ अर्थ युक्तिपूर्वक सिद्ध है, इस लिये किसीके उपविवाहको छीन कर उसे स्वयं. विवाह कर लेना सोई चतुर्थ अतिचार है। फिर (कामभोगेसु तिब्वामिलासा) काम भोगों में तीन अभिलाषा को हो तथा कामभोग आसेवनके लिये ओषधियोंका सेवन करना स्नान, व्यायाम, कामकी आशा पर तथा मादक द्रव्य ग्रहण करने यह पंचम अतिचार है। विकार केवल मोहनीय कर्मकी प्रबलतासे उदय होता है उसे वैराग्यादि द्वारा उपशम करना सुपुरुषोंका लक्षण है, न कि-उदय करना, इस लिए यदि उक्त प्रकारके अतिचार आसेवन किए हों तो (तस्स ) उनका (मिच्छा मि दुक्कडं ) अतिचार रूप पाप, मिथ्या हो॥ भावार्थ-श्रावकका चतुर्थ अनुवत स्वदारा संतोप है जिसका अर्थ यही है कि अपनी स्त्री पर संतोष करना तथा परस्त्री वेश्या आदिका परित्याग करना, क्योंकि कामको उपशान्ति केवल संनोष पर ही निर्भर है अन्य पदार्थों पर नहीं. सो परदारा वृत्ति अर्थात् स्वदारा मतोषी पुरुष देव देवीके साथ मेथुनका त्याग द्विकरण तीन योगसे करे और मनुष्य वा नियंग सम्बन्धि एक करण एक ही योगसे करे और जिसके सर्वथा ही मैथुन सेवनका परित्याग होवे निस भांगे करे उसी भागेकी आलोचना करे, किन्तु इस व्रतके जो पांच अतिचार है उनका स्वरूप पदार्थमै लिख दिया है, कितु जो प्रथम अर्थ विधवा प्रमुखका वा वेश्यादिका करने है वह अर्थ युक्तिपूर्वक सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि स्वदार संनोपी व्रतके ग्रहण करने पर ही उक्त वेश्यादिका परित्याग होता है, इस लिए जो अर्थ श्री आचार्य श्री पूज्यपाद सोहनलालजी महारानने प्रतिपादन किया है वहीं अर्थ युक्तिसाधित है ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अथ पंचम अनुव्रत विषय ॥ पांचमुं अणुव्रत शूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं खित्त वत्थुनुं यथा परिमाण हिरण्ण सोवण्णर्नु यथा परिमाण धन धाण्णर्नु यथा परिमाण दुप्पद चउप्पदनुं यथा परिमाण कुविय धातुनुं यथा परिमाण ए यथा परिमाण कीधुं छे ते उपरांत पोतानुं करी परिग्रह राखवानां पञ्चक्खाण जावजीवाय एगविहं तिविहेणं न करेमि मणला वयसा कायसा एहवा पांचमा थूल रिमाण व्रतना पंच अइयारा जाणियवान • समायरियव्वा तंजहा ते आलोउं खित्त वत्थु प्पमा णाइक्कमे हिरण सोवण्ण पमाणाइक्कमे धन धाण्ण 'प्पमाणाइक्कमे दुप्पद चउप्पद पमाणाइक्कमे कुविय धातु पमाणाइक्कमे जो मे देवसि अइयारो कउ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ हिंदी पदार्थ-(पांचमुं अणुव्रत थूलाओ परिगहाओ वेरमणं) पांचवां अनुव्रत स्थूल [ मोटा] परिग्रहसे धन धान्यादि निवृत्तिरूप उसका विवरण करते है जैसेकि-(खित्त वत्युनु यथा परिमाण) क्षेत्र [ खेत] वा आरामादिकी भूमिका अथवा हट्ट गृहशालादिका यावत् [जितना ] परिमाण किया हुआ है (हिरण्ण) चादी (सोवण्णY) सुवर्णका ( यथा परिमाण) यावत् परिमाण किया हुआ है (धन) धन और (धाण्णनु) गोधूमादि धान्यका (यथा परिमाण) यावत् परिमाण किया हुआ है (दु. प्पद) द्विपद मनुष्यादि (चउप्पदर्नु) चतुष्पद गवादिका (यथा परिमाण) ' यावत् परिमाण किया हुआ है (कुविय धातु-) घरकी यावत् सामग्री है Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्न षष्टम व्रत विषय ॥ हूं दिशिवत उर्ध्व दिशानुं यथा परिमाण अधो विशानुं यथा परिमाण तिरिय दिशानुं यथा परिमाण ए यशा परिमाण कीधुं छे ते उपरांत सइच्छायें कायायें जड़ने पंच आस्त्रव सेववाना पञ्चक्खाण जावजीवाय दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा एहवा छठा दिशि बतना पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोडं उदिति पमाणाइकमे अहो दि. सि पमाणाइको तिरिय दिलि पमाणाइक्कमे खित बुद्धि लयंत्तरदाय जो से देवरिल अडयारो कउ तस्त मिच्छामि टुकडं ॥ हिंदी पक्षार्थ (टुं दिशिस) छटा विश्वन जो दिशाओंका परिमाण किया जाना है जो कि- (उर्व दिशानुं यथा परिमाण अधो दिशानुं गया परिमाण) उर्व-ऊंनी दिशाका यावत् [ जितना] परिमाण किया हुआ है, नीची दिशाका यावत परिमाण किया हुआ है (तिरिय दिशान यथा परिमाण) निर्यग दिशाओंका जैसे कि-पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर दिशाओंका यथा परिमाण (प.यथा परिमाण कीधुं छे) यह यावत् परिमाण किया हुआ है (जे उपरान्त ) परिमाण भूमिकाके विना (सइच्छायें) स्त्र इच्छा करके या (कायायें) शरीर करके (जइने) जा करके (पच) पाच (आत्रव) आसव [ कर्म आनेके मार्ग] (सेववाना) आसेवन करनेका (पञ्चक्खाण) प्रत्याख्यान ( जावजीवाय) यावत् जीव पर्यन्त (दुविह) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ द्विकरण और (तिविणं ) तीन योगसे करता हूं जैसे कि - ( न करेमि ) आसेवन न करूं और ( न कारवेमि ) आसेवन न कराऊं (नासा) मन करके (वयसा ) वचन करके (कायसा) काय करके (एहवा) ऐसे (छठ्ठा दिशि बना ) पष्ट दिननके (पंच अयारा) पांच अतिचार ( जाणिचवा) जानने योग्य हैं किन्तु ( न समायरियव्वा ) आचरणे योग्य नहीं हैं (तंजा) तद्यथा (ने आलोउं) उनकी आलोचना करना हूं, जैसे कि( उ दिमिप्पमाणाइक्कमे ) ऊंची दिशाका परिमाण उल्लंघन किया हो ( अहो दिन प्पमाणाइक मे ) नीची दिशाका परिमाण अतिक्रम किया हो (निरियदिसि पमाणाइक्कमे ) तिर्यगू दिशाकां परिमाण अतिक्रम किया हो ( खित्त वुद्धि) क्षेत्रकी वृद्धि की हो जैसे किं - कल्पना करो कि किसी व्यक्तिने चारों ओर ५०० पांचसो कोशका परिमाण किया हुआ है, फिर उसने विचारा कि पूर्व दिशामें तो विशेष कार्य रहता है अपितु दक्षिण 1 दिशामें कुछ कॉम नहीं पड़ता. इस लिये परिमाणसे अधिक पूर्वमें कर लं और दक्षिण दिशामें स्वल्पं कर दूं इत्यादि कार्य किया हो ( सयंतरण्डाय ) संदेह होने पर फिर भी आगे ही गमण किया हो अर्थात् जैसे सौ योजन तक जानेका परिमाण किया हुआ है, और मार्गमें जाने २ अनुमानसे ज्ञान किया कि, स्यात् है यथा प्रमिन तो आ गया हूंगा ऐसा संदेह होने पर भी आगे जाना यह नियममें दोष है । ( जो मे देवसि अइयारों कर ) जो - ~ मेरा दिन सम्बन्धि अतिचार रूप पाप है ( नस्त मिच्छामि दुक्कड ) वे निष्फल हो और उस अनिचार रूप पापले में पीछे हटता हूँ ॥ भावार्थ-पष्टम दिग्ननमें पट् दिशाओंका परिमाण किया जाता है जैसे कि- पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, उर्व, अवो । परिमाणसे बाहिर स्यानाने पांच आव (हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह) इनके सेवन करनेका किरण और तीन योगसे प्रत्याख्यान करे, फिर पांच ही अनारोको वर्ज, इम प्रकार पष्टम बनकी आलोचना करे। फिर सप्तम ननकी आलोचना करे Cred Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सप्तम व्रत विषय ॥ ' सातमु व्रत उवभोग परिभोगविहं पञ्चक्खायमाणे उल्लणियाविहं इंतणविहं फलविहं अभ्अंगण विहं उवट्टणविहं मजणविहं अत्यविहं विलेवणविह पुप्फविहं आभरणविहं धूपदिदं पेजविहं भक्षणविहं उदनविहं सूपविहं विगयविहं लागविहं मा. हुरविहं जिमणविहं पाणीविहं मुखवासविहं था. हनिविहं पाहनिविहं लयणविहं सचित्तविहं, दव्य दिशं इत्यादिकनुं यथा परिमाण कीधुं छे ते उपरान्त उवभोग परिभोग भोगनिपिने भोगववाना पझक्खाण जावजीवाय एगविहं तिविहेणं न करेमि मणता वयसा कायसा एहवा सालमा उपभोग परिमोया दु. विहे पन्नते तंज्जहा भोयणाउए कम्मउय भोयणाउ समणोवासयाणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समो. यरियव्वा संज्जहा ते आलोउं सचित्ताहारे सचित पडिबद्दाहारे अप्पोलि ओसहि भक्षणयाय, दुप्पोलि ओसहि भक्खणयाय तुच्छोसहि भक्खणयाय जो मे देवलि अईयार कर तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ त. त्थणं,जे. ते कम्मउर्ण समणोवासयाणं पन्नरस्त क. म्मदाणाई जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा ते Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 आलोडं इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीक - म्मे फोडीकम्मे दंतवणिजे लक्खवणिज्जे रसवणिजे केसवणिज्जे विसवणिजे जंतपिलणिया कम्मे निइंच्छणिया कम्मे दवग्गि दावणिया कंम्मे सरदहतलाय परिसोसणिया कम्मे असईजण पोसणिया कम्मे जो मे देवसि अइयार कउ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ 4 हिंदी पदार्थ --- ( सातमुं व्रत) सप्तम व्रत (उपभोग) उपभोग - जो वस्तु एक ही वार आसेवन करनेमें आवे उसको उपभोग कहते है जैसे किअन्नादि तथा (परिभोगविहं ) परिभोग उसका नाम है जो पदार्थ पुनः २ आसेवन करनेमें आवे जैसे कि वस्त्र और आभरण प्रमुखका (पञ्चकखायमाणे ) प्रत्याख्यान करता हुआ निम्नलिखित वस्तुओंका प्रमाण करे " द्रव्य परिमाण में ग्रहण करने योग्य पदार्थोंका ग्रहण करना सिद्ध किया गया है, अतः साथ ही मनुष्य आहारका भी विवेचन हो गया है क्यों कि-श्री स्थानांग सूपके चतुर्थ अध्यायके चतुर्थ उद्देशमें लिखा है कि- मसाणं चविहे आहारे पण्णत्ते तज्जा असणे पाणे नाइमे साइमे ( इति सूत्रम् ) इसका भर्थ यह है कि मनुष्योंका चार प्रकारसे आहार प्रतिपादन किया गया है-जैसे कि-भन्न १ पानी २ खादिम मिठाई आदि ३ स्वादिम जैसे ताम्बूलादि ४ । इस सूत्र से सिद्ध होता है कि मनुष्य मामका उक्त चारों प्रकारका ही आहार है किन्तु मासभक्षण तो केवल पशु आहार' ही बतलाया गया है। मासमक्षणका फल केवल नरक हो कथन किया है जैसे विवहिं ठाणेहिं जीवाणे रतित्तावकम्म परेति तज्जहा महारयाते महापरि हताने पर्वेदिय पणं कुणिममाहरिणं ॥ अर्थ- -चार कारणों से जीव नरकायुको पांध लेते हैं जैसे कि महा हिंसाते १ महा परिग्रहसे २ पंचेंद्रिय वघसे ३ और मांस भक्षणसे ४ | और आप ' ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ जैसेकि-(उल्लणियाविहं) स्नानके पीछे जिस वस्त्रसे शरीर पूंछा जाता है। उस वस्त्रकी विधिका परिमाण (दंतणविह) दांतनोंका परिमाण, विधि शब्दका अर्थ नाना प्रकारका जानना चाहिये जैसेकि-दांतनोंके लिये कति ककी गति केवल स्वर्गकी होती है इस लिये मासाहार मनुष्य मात्रके लिये अभक्ष्य है, अतः साथ ही मांसके सहचारिणी मदिरापान भी अभक्ष्य है क्यों कि-सूत्रों में इसके अनेक दोष वर्णन किये गए हैं तथा पान तो करना दूर रही किन्तु इसके विक्रियका भी रस धनजमें निषेध किया गया है और नरकोंमें मासमक्षण और सुरापान करनेवालोकी गति इस प्रकारसे वर्णन की गई है-जैसे कि तुहं पियाई मंसाई, खडाई सोल्लगाणिय । खाविओमिस मंसाई, अग्गिवन्नाइजेगसो ॥ ७० ॥ तुहंपिया सुरासीहू, मेरओय महणिय । पाइओमिनलंतीओ, वसाओ रुहिराणिय ॥ ७१ ॥ उत्तराध्ययन सूत्र अ० १९ ॥ भावार्थ-मृगापुत्रजी अपने मातापिताजीको कहते हैं कि-हे माता और पिताजी ! मुझको नरकोंमें परमाधर्मियोंने इस प्रकारसे कहा कि-भो नारक ! तुमको मासभक्षण अतिप्रिय था, तू मांसके वह और सोले (पका कर) करके खाता था, अप हम तुमको तुम्हारा मांस अग्निके समान उष्ण करके भक्षण कराते हैं। उन्होंने फिर उसी प्रकार मेरे साथ वर्ताव किया जैसे कि-वे कहते थे, किन्तु एक पार नहीं अपितु अनेकश पार उन्होंने मेरे साथ वर्ताव किया ॥७॥ और फिर कहा कि-तुमको सुरा, सिंधु, मेरक, मधुनि इत्यादि भेदोकी मदिरा भी प्रिय थी इस लिये अव तुमको उसके स्थान पर चरपी और रुधिर उष्ण करके पीलाया जाता है अपितु उन्होंने • जैसे कहा था वैसे ही किया ॥७१॥ इन पाठोंसे सिद्ध हुभा कि-भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेय आदिका विचार करके मदिरा तथा मासका परित्याग करना चाहिये क्योंकि-मास, और मदिरा यह दोनों पदार्थ श्रावकके लिये अभक्ष्य हैं अपितु, जो भक्ष्य पदार्थ है उनका प्रमाण अपर कहा गया है ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पय वृक्षोंका परिमाण करना इसी प्रकार आगे भी जान लेना (फलविहं) फल विधिका परिमाण ( अम्भंगणविहं ) आभंगण विविका परिमाण, जैसे तैलादिका (उवट्टणविहं ) उवटनेका परिमाण (मजणविहं) मञ्जन. [स्नान] विधिका परिमाण वा पानीका परिमाण (वत्थविहं) वस्त्र विधिका परिमाण (विलेवणविहं) चंदनादि विलेपन विधिका परिमाण (पुप्फविहं) पुप्प विधिका परमाण (आभरणविहं) आभूषणोंका परिमाण (धूप ' विहं ) धूप विधिका परिमाण (पेज विहं) पीनेवाली वस्तुओंका परिमाण (भक्खणविहं) खाद्यमादि वस्तुओंका परिमाण (उदन विहं) शाल्यादिका परिमाण (सूपविहं) मूंगी प्रमुख दालिका पारेमाण (विगयविहं) विगय [धृन, तैल, दूध, दधि, गुड, नवनीत (माखन) मधु आदि] का परिमाण (सागविहं) शाकादि विधिका परिमाण (माहुरविहं) माधुर विधिका परिमाण जैसे कि-आम्रादि फल (निमणविह) अमुक पदार्थका आहार करूंगा तथा निक्त पदार्थोका परिमाण (पाणीविहं) जल विधिका परिमाण जैसे कि अमुक कूपादिका जल सेवन करूंगा (मुखवासविहं.) लवंग सु-. पारि प्रमुखका परिमाण (वाहनिविहं) रय, रेलगाडी, अश्व, हस्ती, यक्का, इत्यादि वाहनोंका परिमाण (पाहनिविहं) पादोंकी रमा अर्थे जूती इत्यादि विधिका परिमाण (सयणविहं) शय्या पर्यकादिका परिमाण (सचित्तविहं) सचित्त वस्तुओंका परिमाण जैसेकि-पांच स्थावरोंका सेवनार्थे परिमाण करना (दव्वविहं) द्रव्य विधिका परिमाण जैसे कि-आज दिन कतिपय द्रव्य अंगीकार करूंगा, कल्पना करो किसी व्यक्तिने ५ द्रव्योंके विना और सर्व पदार्थोंका नियम कर दिया है तो फिर पाच द्रव्य यह इस प्रकारसे ग्रहण करता है, कि-एक द्रव्य अन्न, द्वितीय द्रव्य जल, तृतीय द्रव्य सुप, चतुर्थ द्रव्य शाक, पंचम द्रव्य घृत, (इत्यादिकनुं यथा परिमाण की छे) इत्यादि पदार्थोंका जैसा परिमाण किया हुआ है (ते उपरान्त) उनके विना (उवभोग) जो एक वार आमेवन करनेमें आवे तथा (परिभोग). नो वस्तु पुनः २ आसवन करनेमें आवे (भोग निमित्ते) भोगनेके वास्ते Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ - (भोगववाना पञ्चक्खाण) खानेका प्रत्याख्यान (जावनीवाय) यावजीव प येन्त (एगविहं) एक करण (तिविहेणं) तीनों योगोंसे जैसे कि-(नकरोमि) न करूं (मणसा) मन करके (वयसा) वचन करके (कायसा) काय करके (एहवा सातमा उवभोग परिभोग) ऐसे सप्तम उपभोग परिभोग (दुविहे) हि प्रकारसे (पण्णत्ते ) प्रतिपादन किया गया है (तंज्जहा) तद्यथा-जैसे कि-(भोयणाउय) एक भोजन सम्बन्धि (भोयणाउय समणोवासयाण) भोजन व्रत सम्बन्धि श्रमणोपासकोंको (पच) पाच (अइयारा) अतिचार ( जाणियव्वा ) जानने योग्य तो हैं किन्तु ( न समायरियव्वा) ग्रहण करने योग्य नहीं हैं (तज्जहा) तद्यथा (ते आलोऊ) उनकी आलोचना करता हूं (सचित्ताहारे) सचित्त वस्तुओका परित्याग होनेपर सचित्त वस्तुओंका आहार किया हो (सचित्त पडिवहाहारे) सचित्त प्रतिवद्ध पदाथोंका आहार किया हो जैसे, गूद तत्काल वृक्षोंसे उतार कर भक्षण करना तथा वनस्पतिके पत्रोपरि कंदोई [हलवाई ] को हटोपरि वस्तुओका खाना (अपोलि ओसहि भक्खणया) अपक्वोपधिका आहार किया हो तथा तत्कालकी अचित्त हुई वस्तुका आहार किया हो (दुप्पोले ओसहि भक्खणया) दुःपक्वोपधिका आहार किया हो जैसेकि होला प्रमुख, (तुच्छोसहि भक्खणया) जो पदार्थ खानेकी अपेक्षा गेरनेमें विशेष आवे उनका आहार किया हो जैसे संघाटक, इक्षु-खंड इत्यादि तथा तुच्छौषधि आहार उसका नाम भी है जिसके अतीव भक्षणसे भी तृप्ति न होवे जैसें खसख़ासादि (जो मे) जो मैं ने (देवसि) दिन सम्बन्धि (अइयारो) अतिचार ( कउ ) किए हुए हैं ( तस्स ) उसका (मिच्छा मि दुक्कड) जो अतिचाररूप पाप हैं वह निष्फल हो॥ (तथणं जे ते) उनमेंसे जो (कम्मउणं) कौ सम्बन्धि (समजोवासयाणं) श्रमणोपासकोंको दोप लगते है वे निम्न प्रकारसे हैं (पन्नरस्स कम्मादाणाई) पचदश कर्मादान जो .कर्म आनेके पंचदश मार्ग है वही अतिचार हैं किन्तु श्रावकोंको ( जाणियचा) जानने योग्य तो हैं परंतु १०, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ७४ (न समायरियव्वा) आचरणे योग्य नहीं हैं जैसेकि-( तेजहा) तद्यथा (ते आलोउ) उनकी आलोचना करता हूं-(इंगालकम्में) अंगार कर्म [कोयला प्रमुखका व्यापार ] अग्नि सम्बन्धि व्यापार किया हो (वणकम्मे ) वन छेदन करना अर्थात् वन कटवाना ( साडीकम्मे ) शकटादि बनवाकर विक्रिय किए हों (भाडिकम्मे) शकटादि वा ऊंट, अश्व, वृषभ, खर, इत्यादि पशु भाड़े पर दिए हों ( फोडीकम्मे ) पृथिवीका स्फोटन कर्म वा पाषाणादिका स्फोटन कर्म किया हो (दंतवणिजे) दॉतोंका व्यापार किया. हो जैसेकि-हस्तीके दॉत, कस्तूरी, मृगचर्म प्रमुख (लक्खवणिजे ) लाखका वणन किया हो (रसवणिजे) रसोंका वणन किया हो जैसे-दुग्ध, तैलादि वा मदिरादि, (केसवणिजे) द्विपद चतुष्पद जीवोंका व्यापार किया हो (विसत्रणिने) विषका व्यापार किया हो (जंतपिलणिया कम्मे .) यंत्रपीड़न कर्म किया हो जैसे कि-वराट, कोल्हू ऊखल, मूसलादि कर्म (निल्लंच्छगिया कम्मे ) निलाछण कर्म जैसे वृषभादिको नपुसक करना ( दवग्गि दावगिया कम्मे ) वनको अग्नि लगाई हो तथा. दावाप्रिका उपदेश किया हो (सर) तड़ाग (दह) द्रह, कुड, (तलाय) तड़ाग चतुष्कोण प्रमुखके जलको (परिसोसणिया कम्मे) परिशोषण किया हो अर्थात् सुकाया हो (अप्सइ जग पोसणिया कम्मे) असती जनोंकी पोषगा की हो जैसे-आहेटक कमौके वास्ते श्वानादि वा श्येनादि [बाज़ ] वा मानारादि पोषण किए हों (जो मे देवसि अइयारो कउ) जो मेरा दिवस सम्बन्धि अतिचार किया हुआ है , (तस्स मिच्छा मि दुक्कड) उस अतिचार रूप पापका फल निष्फल हो । ___ भावार्थ सप्तम व्रत उपभोग परिभोग है, जिसका अर्थ है कि जो पदार्थ एक वार ग्रहण करनेमें आवें तथा बारम्बार ग्रहण करनेमें आवे उनकों विना परिमाण न आसेवन करे, जैसेकि स्नानादि और पंचदश कार्य जिनसे अधिक कोका वन्ध होता है, उनका सर्वथा ही परित्याग करें। कदाचित Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मोदयसे *रसवाणिजादि कर्म करने पड़ जायें तो अयत्नसे काम कदापि न करे, क्योंकि अयत्नसे अनेक जीवोंकी घात होना संभव है, अतः विना यत्न कोई भी क्रिया न करे । जिन लोगोंको स्नानादि विषय शंका रहा करती है उनको योग्य है सप्तम व्रतको पठन करनेका अभ्यास करें, फिर .. इस व्रतके पाचों ही अनिचारोंको वनके उक्त व्रतको शुद्धतापूर्वक पालन करें । अथ अष्टम व्रत विषय ॥ __ आठमुं अनर्थदंड विरमण व्रत ते चउविदे अणत्यादंडे पण्णते तंजहा अवज्झाणायरिय पमाया. यस्यि हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे एहवा अनर्थदंड सेववाना पञ्चक्खाण जावजीवाय दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणला वयता कायसा एहवा आठमा अनर्थदंड विरमण व्रतना पंच अइयारा जा. णियधा न समायरियम्वा तंजहा ते आलोऊ कंदप्पे कुक्कइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उवभोग परिभोग • अइरते जो मे देवसि अइयारो कंउ तस्स मिच्छा ‘मि दुकडं ॥ हिंदी पदार्थ-(आठमुं) अष्टम (अनर्थ दंड ) अनर्थदंड-विनाही कारण जीवोकी हिंसा करना वा अन्य आत्माओको दड़ित करना (विर. मण व्रत) इससे निवृत्ति भूत जो आठवां बन है, (ते) वह (चउविहे) चतुर्विधसे (अगत्यादडे) अनर्थ दंड (पण्णत्ते) प्रतिपादन किया है (तज्जहा) . * किन्तु मदिरादि पदार्थोंका व्यापार तो कभी भी न करे अपितु इनका सर्वथा ही त्याग करे ॥ - - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्यथा (अवज्झाणायरिय) अपध्यान करना जैसकि-अन्य आत्माओंके हानिकारक विचार करने (पमायायरिय) प्रमादाचरण करना अर्थात् धार्मिक कार्योंको परित्याग करके अन्य कार्योंमें परिश्रम करते रहना तथा घृतादिके वरतन अयत्नसे रखना (हिंसप्पयाणे) हिंसाकारी वस्तुओंका दान करना जैसे शस्त्रदान इत्यादि ( पावकम्मोवएसे) अन्य आत्माओंको विना ही प्रयोजन पापकर्मोंका उपदेश करना जिसके द्वारा वह पारकर्ममें लग जावें (एहवा ) ऐसे ( अनर्थदड ) अनर्थदडके (सेववाना ) आसेवन करनेका ' (पञ्चक्खाण ) प्रत्याख्यान (जावनीवाय) यावत् जीव पर्यन्त (दुविहं) द्विकरण और (तिविहेणं) तीन योगोंसे (न करेमि) स्वयं अनर्थदंडको सेवन न करूं (न कारवेमि) नाहीं अन्य जीवोंसे अनर्थदंड सेवन कराऊं (मणसा) मनसे (वयसा) पचनसे (कायसा) कायसे (एहवा) ऐसे (आठवां) अष्टम (अनर्थदड विरमग ब्राना ) अनर्थदड विरमण व्रतके (पंच) पान (अइयारा ) अतिचार ( जाणिया ) जानने योग्य तो है । किन्तु (न समायरियव्वा) आचरणे योग्य नहीं है, (तंज्नहा) तद्यया (ते ) उनकी (आलोउ) आलोचना करता हू (कदप्पे) कामको जागृत करनेवाली कथायें को हों, ( कुकुइए ) कुचेष्टा को हो नैसकि-भांडकी तरह विकृति भाव किया हो (मोहरिए) विचाररहित होकर वार्तालाप किया हो, तथा मुखारिवत् वर्ताव किया हो (सजुताहिगरणे) अधिकरणका सयोग किया हो अर्थात् विना परिमाण शस्त्रादिका सग्रह किया हो (उवभोग परिभोग अइरते ) उपभोग वस्तुओमैं वा परिभोग वस्तुओंमें अति मूछिन हो गया हों, तथा परिमाणसे अधिक संग्रह किया हो तब पाठ (उपभोग परिभोग अइरत्ते) ऐसे पढ़ा जाता है (जो मे देवसि अइयारो कड) जो मैंने दिनमें अतिचार किए हुए हैं (तस्स मिच्छा मि दुकई)', उन अनिचाररूप पापोंका फल निष्फल हो । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ .. भावार्थ-आठवें अनर्थदंड विरमण व्रतमें विना प्रयोजन काम केर नेका परित्याग है जिसके करनेसे कमौका महा बंध न हो और कार्य, सिद्धि कुछ भी न हो, जैसे अपध्यान करना, अथवा धृतादिके भाजनोंकी पूरी रक्षा न करनेसे पिपीलिकादि जीवोंकी हिंसा हो जाती है और इस व्रतके भी पांच ही अतिचार-है जैसेकि-कंदर्पकी वार्ता करनी १ कुचेष्टा करना २ विचारसे शून्य होकर भाषण करना ३ अधिकरण (शस्त्रों)का संग्रह करना ४ उपभोग परिभोग पदार्थ प्रमागसे अधिक सेवन करने तथा प्रमाण युक्तमें ही अति मूर्षित होना ५ इन पाचों ही अतिचारोंका परित्याग करके अष्टम व्रतको शुद्ध पालन करे, अनर्थदड कदाचित् भी सेवन न करे ॥ अथ नवम व्रत विषय ॥ नवमुं सामायिक व्रत.सावज्जजोगनुं वेरमणं जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा एहवा सदहणा परूपणा करिये तिवारे फरसनायें करी शुद्ध एहवा नवमा सामायिक व्रतना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोउं मणदुप्पणिहाणे वयदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्त (सइविहुणे). अकरणियाए सामाइयस्त अणवुठियस्त करणियाए जो मे देवसि अइयारो कउ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ , हिंदी पदार्थ-नवमुं) नवमा ( सामायिक वन), समतारूप भाव Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सावज्जजोगनुं ) पापयुक्त योगों से ( वेरमणं ) - निवृत्ति करना ( जाव ) यावत् काल पर्यन्त ( नियमं ) सामायिकका नियम है तावत्काल पर्यन्त ( पज्जुवासामि ) पर्युपासना करना हूं अर्थात् सामायिकके कालको सेवन करता हूँ (दुविहं ) द्विकरण (तिविहेणं) तीन योगों से जैसे कि - ( न करे - मि ) सावद्य योगोंको सेवन न करूं ( न कारवेभि ) नाही आसेवन कराऊं (मणसा) मन करके (वयसा ) वचन करके (कायसा ) काय करके ( एहवी ) इस प्रकारके (सद्दहणा ) सामायिककी श्रद्धा [ रुत्रि ] ( परूपणा) दिवेचना ( करियें तिवारे फरसनायें करी शुद्ध ) जब करी जाये अर्थात् सामायिक स्पर्श की जाये तब ही शुद्ध होती है ( एहवा) ऐसे ( नवमा) नवमे ( सामायिक व्रतना) सामायिक व्रतके (पंच) पांच (अइयारा) अतिचार ( जाणियव्वा ) जानने योग्य तो हैं किन्तु ( न समायरियव्त्रा ) आचरणे योग्य नहीं हैं ( तंज्जहा) तद्यथा (ते) उनकी ( आलोउं ) आलोचना करता हूं (मणदुप्पणिहाणे) मन दुष्ट वर्ताया हो ( वयदुप्पणिहाणे ) वचन दुष्ट उच्चारण किया हो (कायदुप्पणिहाणे ) कायका योग दुष्ट धारण किया हो ( सामाइयस्स अकरणिया९) शक्ति होने पर भी सामायिक न करी हो, तथा, सामायिक करके सामायिक के कालको विस्मृत कर दिया हो फिर ( सामाइयस्स) सामायिकको ( अणवुट्टियस्स करणियाए) विना काल पार लिए हो (जो मे ) जो मैने ( देवसि ) दिवस सम्बन्धि (अध्यारो कउ ) अतिचार किए हुए है ( तस्स मिच्छा मिदुक्कडं ) उन अतिचार रूप पापोंका फल निष्फल हो | भावार्थ - नवमे सामायिक व्रतको द्विकरण तीन योगों से धारण करके पात्रों ही अतिचारोंको छोड़े। सम, आय, इक, इनकी संधि करनेले सामायिक शब्द सिद्ध होता है, जिसका अर्थ हो यह है, कि जिसके करने से शान्तिका लाभ होवे उमीका ही नाम सामायिक व्रन हे अपितु सावध योगोंका परित्याग कर फिर उस कालको शुभ क्रियामें ही व्यतीत करे | L Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशम व्रत विषय ॥ दशम देसावगासिक व्रत दिन प्रते प्रभात थकी प्रारंभीने पूर्वादिक छ दिशे जेटलो भूमिका मोकलो राखी छे ते उपरांत सइच्छायें कायायें जइने पांच आस्रव सेववाना पञ्चक्खाण जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं न करेमिन कारवेमि मणसा वयसा कायसा तथा जेटली भूमिका मोकली राखी छे ते मांहिज जे द्रव्यादिकनी मर्यादा कीधी छे ते भोगववी ते उप. रांत उवभोग परिभोग भोग निमित्ते भोगववाना पञ्चक्खाण जाव अहोर एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा वयसा कायसा एहवा दशवां देशावकाशिक व्रतना पंच अइयारा जाणियम्वा न समायरियव्वा तज्जहा ते आलोउं आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, वर्तमान कालमें संवा करनेकी प्रथा निम्नलिखितानुसार हैद्रव्य थकी पांच आस्तव सेवनेका पञ्चक्खाण, क्षेत्र थकी लोक प्रमाण तथा यावन्मात्र प्रमाण करना हो । काल थकी यावत्काल पर्यन्त बैठा रहू तथा मुहूर्त्तादि प्रमाण पर्यन्त । भाव थकी उपयोग सहित । गुण थकी निर्जराके हेत । दुविहं तिविहेण न करेमि न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, तस्स भत्ते पडिक्कमामि : निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१॥ फिर पांच नमोकार मत्रको पदकर इसे पार लेते हैं। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० . . सहाणुवाइ, रूवाणुवाइ, वहिया पुग्गल पक्खेवे जो मे देवलि अइयारो कर तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ हिंदी पदार्थ-(दशमुं) दशवां (देसावगासिक व्रत) देशावकोशिक व्रत जिसका अर्थ है कि जो प्रथम व्रतोंमें बहुतसे पदार्थ अतीव वि. स्तारपूर्वक रक्खे हुए है उनको दिन प्रतिदिन सक्षिप्त करते रहना उसीका नाम देशावकाशिक व्रत है जैसेकि-(दिन प्रते प्रभात थकी प्रारंभीने पूर्वादिक छ दिशे जेटली भूमिका मोकली राखी छे) दिन प्रति प्रातःकालसे आरंभ करके पूर्वादि षट् दिशाओंमें यावत् परिमाण गमन करना रक्खा हुआ है (ते उपरान्न) उसके विना (सइच्छायें) स्व इच्छा करके वा (कायायें) काय करके (नइने) जाकर (पांच आस्रव सेववाना पञ्चक्खाण) पांच आस्रव [हिंसा, असत्य, चौर्य कर्म, मैथुन, परिग्रह, इनके ] आसेवन करनेका प्रत्याख्यान (जाव) यावत (अहोरत्तं) दिन और रात्रि पर्यन्त (दुविह) द्विकरण और (निविहेणं) तीन योगोंसे जैसेकि-(न करेमि) स्वयं आसेवन न करूं (न कारवेमि) अन्य आत्माओंसे आसेवन न कराऊं (मणसा) मन करके । (वयसा) वचन करके (कायसा) काया करके (तथा जेटली भूमिका मोकली सखी छे) तथा यावत् भूमिका परिमाण युक्त है (ते माहीज जे द्रव्यादिकनी मर्यादा कीधी छे) उसमें जो द्रव्यादिका परिमाण किया हुआ है (ते भोगवी) वही ग्रहण करने (ते उपरान्त) उनके विना (उवभोग) जो एक वार आसेवन करनेमें आवे वा (परिभोग) वारम्बार ग्रहण करनेमें आवे ( भोग निमित्ते) भोगनेके वास्ते (भोगववाना) भोगनेका आसेवन करनेका (पञ्चक्खाण) प्रत्याख्यान (जाव) यावत् (अहोरत्तं ) दिन रात्रि पर्यन्त ( एगविहं ) एक करण और (तिविहेणं) तीन योगोंसे जैसे कि(न करेमि । न करूं (मणसा) मन करके (वयसा) वचन करके (कायसा), काय करके (एहवा) ऐसे (दशमा देशावकाशिक व्रतना) दशवे देशावकाशिक व्रतके (पंच) पांच ( अइयारा) अतिचार (जाणियन्वा) जानने Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * વર तिविदेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा एहवी सदहणा परूपणा करीयें ते वारें फरसनायें करो शुद्ध हवा इग्यारमा पडिपुण्णं पोषध व्रतना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा ते आलोउं अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सेज्जा संथारए अप्पमझिए दुप्पमझिए सेज्जा संथारए अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि अप्पमज्झिए दुप्पमझिए उच्चार पासवण भूमि पोसहस्त सम्मं अणणुपालणियाय जो मे देवसि अइयारो कउ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ हिंदी पदार्थ - ( इग्यारमुं ) एकादशवां (पडिपुण्णं ) प्रतिपूर्ण अष्टयाम पन्त ( पोषच ) पौषध (व्रत) व्रन उसमें ( असणं ) अन्नादि (पाणं ) जलादि (खाइमं ) खाद्यम पक्कानादि ( साइमं ) स्वाद्यम लवं - गाढ़ि (चार आहारनुं पञ्चक्खाण) उक्त चतुर्, आहारोंका प्रत्याख्यान ( अवंभ सेवननुं पञ्चक्खाण ) अब्रह्मचर्य आसेवनका प्रत्याख्यान अर्थात् ब्रह्मचर्य धारण करना (अमुक) जो आभूषण सुखपूर्वक उतारे नहीं जाते जैसेकि - कणके आभूषण सो उनके विना पौषध व्रत में (मणि ) हीरा वा चंद्रकातादि मणि (सुवर्ण) स्वर्णके आभूषण रक्खनेका प्रत्याख्यान तथा ( माला) पुष्पमाला (वन्नग ) सुगंधयुक्त चूर्णादि और (वि-लेवानुं पञ्चक्खाण ) विलेपन चदन कर्पूर जलादिसे संघर्पण करके मस्त कादिमें लगाने का प्रत्याख्यान, फिर (सत्य) शस्त्र ( मूसलादिक) मूसलादि वा काष्टादि प्रमुख ( सावज्ज जोगनुं पच्चक्खाण) सावद्य [ पाप ] रूप योगोंका प्रत्याख्यान ( जाव ) यावत् (अहोरत ) दिन और रात्रि पर्य्यन्त Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ ( पज्जुवासामि ) पर्युपासना करता हूं ( दुविहं ) द्विकरण और (तिविहेणं) तीन योगोसे जैसे कि - ( न करेमि ) न करूं (न कारवेमि) अन्य आत्माओं से न कराऊ ( मणसा ) मन करके ( वयसा ) वचन करके (कायसा) काय करके ( एहवी ) इस प्रकार ( सद्दहणा ) पौषध व्रत करनेकी श्रद्धा करना और (परूपणा करीयें) प्रतिपादन करना ( ते वारे फरसनायें करी शुद्ध) जिस समय पौषध व्रत ग्रहण करना तब शुद्धिपूर्वक ( एहवा ) ऐसे (इग्यारमा) एकादशवा ( पडिपुण्ण ) प्रतिपूर्ण अष्ट याम पर्यन्त (पौपध त्रतना ) पोपध व्रतके ( पच) पात्र ( अइयारा) अतिचार ( जाणियव्वा) जानने योग्य तो है किन्तु ( न समायरियव्वा ) आचरणे योग्य नहीं हैं (तंज्जहा) तद्यथा ( ते आलोउ ) उनकी आलोचना करता हू (अप्पड - लेहिय टुप्पडिले हिय सेज्जा संथारए) अप्रतिलेखित वा दुःप्रतिलेखित शय्या संस्तारक अर्थात् जिस स्थानमें पौषध व्रत धारण किया है वही शय्या और तृणादिका आसन किया है सस्तारक उनोको प्रथम तो देखा ही नहीं यदि देखा है तो सम्यग् प्रकारसे नहीं इसी प्रकार आगे भी जानना जैसे के- (अप्पमज्जिए दुप्पमज्जिए सेज्जा संथारए ) शय्या संस्तारकको अप्रर्माजित किया हो वा दु प्रमार्जित किया हो, प्रथम तो शय्या संस्तारक प्रमार्जित किया ही नहीं यदि किया है तो दुष्ट प्रकारसे इसी प्रकार ( अप्पडिले हिय दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि) प्रथम तो प्रतिलेख - नता नहीं की जैसे कि - उच्चार ( पूरीप) विष्टाकी वा ( पासवण ) [ प्रस्त्रवण ] मूत्रकी (वण्ण) मलादिककी भूमि फिर ( अप्पमझिए दुप्पमझिए उच्चार पासवण भूमि) विष्टा और मूत्रकी भूमि प्रमार्जन नहीं की वा दुष्ट प्रकार से प्रमार्जन की है ( पोसहस्स) पौषधको ( सम्म ) सम्यग् प्रकार से ( अणगुपालणयाय) पालन न किया हो जैसेकि - पोषवोपवासमे भोजनकी चिंता वा अन्य प्रकारसे चिंता करनी ( जो मे देवप्ति अइयारो कउ ) जो मैंने दिवस सम्बन्धि अतिचार किया हुआ है (तरस मिच्छामि दुक्कडं ) उन अतिचारेका पापरूप फल निष्फल हो || Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-एकादश पौषधोपवास व्रतमें चतुर् आहारका प्रत्याख्यान करके फिर ब्रह्मचर्यको धारण करे। फिर शरीरके शृंगारका भी परित्याग करे, और शस्त्रादिको भी पास न रक्खे, अष्ट प्रहर पर्यन्त द्विकरण तीन योगोंसे सावध कर्मका त्याग करके धर्म ध्यानमें समय व्यतीत करे, और पांचों ही अतिचारोंको दूर करके उक्त व्रतको सम्यग् पालन करे । अथ द्वादश व्रत विषय ॥ बारमुं अतिसिविभाग व्रत समणे निग्गंथे फासुयं एसणिज्नेणं असणं, पाणं, खाइम, साइमेणं, वत्थ, पडिग्गह, कंबल, पायपुच्छणेणं, पाडिदारिय, पोढ, फलग, सेज्जा संधारएणं ओसह भेसज्जेणं पडिलामेमाणे विहरामि एहवी सदहणा परूपणा फरसनायें करीशुद्ध एहवा बारमा अतिथिसंविभाग व्रतना पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्जहा ते आलोउं सचित्त निक्खेवणिया सचिन पिहणिया कालाइकम्मे परोवएसे मच्छरियाए जो मे देवति अइयारो कओ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ . हिंदी पदार्थ-(वारमुं) द्वादशवा (अतिथि) अतिथि अर्थात् न तिथि अतिथि जिसके आनेकी तिथि नियत न हो, उसका ही नाम अतिथि है अर्थात् साधु है (संविभाग व्रत) उसके साथ अपने आहारमेंसे सविभाग करना सोई अतिथि संविभाग व्रत है (समणे निग्गंथे) श्रमण निग्रंथको (फामुय) प्राशूक अचित्त (एसणिज्नेणं) एषणीय उद्गमादि दोपोसे रहित (असगं) अन्न (पाणं) पानी (खाइम) खाद्यम् पक्वान्नादि (साइमेण) खाद्यम् सुपारी आदि नथा (वत्थ) वस्त्र (पडिग्गह) पात्र (कंवल) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंबल [लोई प्रमुख ] ( पाय पुच्छणेणं) पादपोंछन अर्थात् पादोंकी रजादिके दूर करनेवाला वस्त्रखंड (पाडिहारिय) जो वस्तु देने योग्य होती है अर्थात् निसको विहरके साधु फिर दे सक्ता हो, जैसेकि-(पीढ़) चौकी (फलग) फलग [तख्तपोसादि] (सेज्जा) शय्या (सथारए) तृणादिका सस्तारक (ओसह) औषध (मेसज्जणं ) बहुतसी औषधियोंके संयोगसे जो वस्तु निष्पन्न हुई है, उसको भैषज कहते हैं. (पडिलामेमाणे) देता हुआ (विहरामि) विचरता हूं वा विचरूंगा (एहवी सद्दहणा) इस प्रकारसे श्रद्धान वा (परूपणा ) उपदेश करना (फरसनायें करी शुद्ध) वा स्पर्श करनेसे जो शुद्ध होता है (एहवा) ऐसे (वारमा) द्वादशवां ( अतिथिसंविभाग ) अतिथिसंविभाग ( व्रतना) व्रतके (पंच ) पाच (अइयारा) अतिचार है, जो (जाणियव्वा ) जानने योग्य तो हैं किन्तु ( न समायरियव्वा ) आचरणे योग्य नहीं है ( तंज्जहा ) तद्यथा (ते आलोऊ ) उनकी आलोचना करता हू ( सचित्त निक्खेवणिया) न देनेकी बुद्धिसे अचित्त निर्दोष वस्तुको सचित्त वस्तु पर रख दिया हो, जैसे दुग्धको सचित्त जलोपरि रख देना (सचित्त पिहणिया) इसी प्रकार अचित्त निर्दोष वस्तुपर सचित्त वस्तु रख दी हो, जैसे दुग्धोपरि सचित्त जल रख देना (कालाइकम्मे) जिन पदार्थों का समय अतिक्रम हो गया है मुनियोंको उनके देनेकी विज्ञप्ति की हो, तथा अकालमे जिस समय मुनि भिक्षाको नहीं जा सकते उस कालमें आहारके लिए प्रार्थना करनी (परोवएसे) न देनेकी बुद्धिसे अपनी वस्तु अन्यकी कह दी हो, तथा अपने हाथोंसे दान न देकर अन्यको उपदेश करना कि स्वामीनीको तू ही अन्न पानी दे दे क्योंकि दान देनेसे ही तात्पर्य है मेरे तेरेसे क्या (मच्छरियाए) मत्सरता [ ईर्ष्या ] से दान दिया हो, जैसेकि-अमुक पुरुष दानसे प्रसिद्ध हो रहा है, मैं भी वैसा हो जाऊं सो (जो मे देवसि अइयारो कउ) जो मैने दिनमे अतिचार किए हैं (तस्स मिच्छा मि दुक्कड) उनसे पीछे हटता हू, दुष्कृत मेरे अकरणीय है ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-द्वादशवें व्रतमें यह अधिकार है, कि-श्रावक साधुको निर्दोष अन्नपानी देवे और जो उन्होंके लेनेयोग्य पदार्थ है, वे भी निर्दोष ही दिलवावें। फिर पांचों ही अतिचारोंको वर्जके उक्त व्रतको शुद्धतापूर्वक धारण करे ॥ फिर संलेखनाका पाठ पठन करे। अथ संलेखना विषय ॥ अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा आराहणा पोषधशाला पूंजी पूंजीने उच्चार पासवण भूमिका पडिलेही पडिलेहीने गमणागमणे पडिकमि पडिक्कमिने दर्भादिक संथारो संथरि संथरिने दर्भादिक संथारो दुरूहि दुरूहिने पूर्व तथा उत्तर दिशि पल्यंकादिक आसने बेसी बेसीने करयल सं. परिग्गहियं सिरसाव मत्थए अंजली तिकडु एवं वयासी नमोत्युणं अरिहंताणं भगवंताणं जावसंपनाणं एम अनंता सिद्धजीने नमस्कार करोने जयवंता वर्तमान तीर्थकरने नमस्कार करीने पोताना धम्माचार्यने नमस्कार करीने साधु प्रमुख चारे तीर्थ खमावीने सर्व जीव राशि खमावोने पूर्वे जे व्रत आदरयां छे तेना जे अतिचार दोष लाग्या होए ते सर्वने अलोइ पडिकमी निंदा निशल्य थईने सवं पाणाइवायं पञ्चक्रवामि सव्वं मुसावायं पञ्चक्खामि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वं अदिनादाणं पञ्चक्खामि सव्वं मेहुणं पञ्चक्खा मि सव्वं परिग्गहं पञ्चक्खामि सव्वं कोहं माणं जाव मिच्छा देसण सल्लं अकरणिज्जंजोग पञ्चक्खामि जा. वजीवाय तिविहं तिविहेणं न करोमि न कारवेमि करतंपि नाणुजाणामि मणसा वयसा कायसा एम अठारे पापस्थानक पञ्चक्खीने सव्वं असणं पाणं खाइभ साइमं चउ विहंपि आहारं पञ्चक्खामि जाव जीवाय एम चारे आहार पञ्चक्खीने जंपियं इम सरीरं इठं कं पियं मणुनं मणामं घिजं विसालियं समयं अणुमयं बहुमयं भंड करंड समाणं रयण करंडगभूयं माणं लियं माणं उण्डं माणं खुहा माणं पिवासा माणं वाला माणं चोरा माणं दंसगा माणं मसगा माणं वाहियं पित्तियं कप्फियं संभियं सन्निवाहियं विविहा रोगायंका परिसहा उवसग्गा फासा फुसत्ति एवं पीयणं चरिमहिं उस्सास निस्सासहि वोसिरामि तिकट्ठ एम शरीर वोसिरावीने, कालं अ. णवकंक्खमाणे विहरामि एहवी सदहणा परूपणा करिए तिवारे फरसनायें करी शुद्ध एहवा अपच्छिम मारणतिय संलेहणा झूसणा आराहणाना पंच अइयारा पयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तंज्ज. हा ते आलोउं इह लोगा संसप्पओगे, परलोगा सं. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्पओगे, जीविया संसप्पओगे, मरणा संसप्पओगे कामभोगा संसप्पओगे जो मे देवसि अइयारो कठ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ हिंदी पदार्थ-(अपच्छिम मारणंतिय) मृत्युके समीप आ जानेपर (सलेहणा) संलेखना करनी चाहिये जोकि (झूसणा) आत्माको काँसे मिन्न करनेवाली है, (आराहणा ) आराधना करके फिर (पोषधशाला) पौषधशाला (पूंजी पूंनीने) प्रमानन करके (उच्चार पासवण भूमिका) उच्चार [विष्टा] (पासवण) मूत्रकी भूमि (पडिलेही पडिलेहीने) प्रतिलेखन करके (गमणागमणे) फिर आने जानेसे जो विराधना होती है उससे (पडिक्कमिने) पीछे हटके (दर्भादिक संथारो सथरी संथरीने) दर्मादिका आसन बिछाकर (दर्भादिक सथारो दुरूही दुरुहिने) फिर दर्भादिक संथारोपरि आरुढ होकर (पूर्व तथा उत्तर दिशि) पूर्व तथा उत्तर दिशाओंमे (पल्यंकादिक) पर्यकादिक (आसने वेसीने) आसन पर बैठकर फिर (करयल) दोनों हाथ (सपरिग्गहिय) जोड कर (सिरसावत्तं) शिरसे आवर्तन करता हुआ (मत्थए अंजली तिकडु) मस्तक पर दोनों हाथ जोड़कर फिर ऐसे करके (एव वयासी) ऐसे कहे (नमोत्थुणं) नमस्कार हो (अरिहंताणं) श्री अरिहतोंको (भगवंताणं) भगवंतोंको (जावसंपत्ताणं) यावत् जो मुक्तिको प्राप्त हुए है (एम अनंता सिद्धजीने) इसी प्रकार अनंत सिद्धोंको (नमस्कार करीने ) नमस्कार करके (पछी पोताना ) फिर अपने (धर्माचार्यने) धर्माचार्यजीको (नमस्कार करीने) नमस्कार करके [ साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप ] चार तीर्थ खमावीने ( साधु प्रमुख ) चारों ही तीर्थोको क्षमावणा करके (पूर्वे जे व्रत आदरयां छे) पहेले जो व्रत ग्रहण किए हुये हैं (तेना ने अतिवार दोप लाम्या होए) उनमें जो अतिचार रूप दोप लगा हो (ते Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व संभारी संभारीने गुर्वादिक पासे ) वह सर्व स्मृति करके गुरु आदिके समीप (आलोइ) आलोचन करके (पडिक्कमी) प्रतिक्रमण करके (निंदी) आत्मशाक्षिसे निंदा करके (गरहि) गुरुकी साक्षिसे गहना करके (निशल्य थईने) फिर शल्यसे रहित होकर (सव्वं पाणाइवायं) सर्व प्रकारसे प्राणातिपातका (पञ्चक्खामि) मै प्रत्याख्यान करता हू (सव्वं मुसावायं) सर्व प्रकारसे मृषावादका (पञ्चक्खामि ) प्रत्याख्यान करता हू (सव्व अविनादाण पञ्चक्खामि ) सर्व प्रकारसे अदत्तादान [चोरी ] का प्रत्याख्यान करता ह (सव्वं मेहुणं पञ्चक्खामि) सर्व प्रकारसे मैयुन कर्मका प्रत्याख्यान करता हू ( सव्वं परिग्गहं पञ्चक्खामि ) और सर्व प्रकार परिग्रहका भी प्रत्याख्यान करता हू ( सव्वं कोह ) सर्व प्रकारसे क्रोध (माण) मान (माया) छल ( लोभ) लोभको (जावमिच्छा सण सल्लं) यावत् मिथ्या दर्शन शल्य पर्य्यन्त अष्टादश पापोंको छोड़ता हू, तथा (सव् अकरणिजं) सर्व प्रकारसे अकरणीय कृतोंका (पञ्चक्खामि ) मै प्रत्याख्यान करता हूं (जावनीवाय) यावज्जीव पर्यन्न (तिविह ) तीन करण और (तिविहण) तीन योगोंसे जैसेकि-(न करेमि) न करू (न कारवेमि ) नाही औरोसे कराऊ ( करतंपि नाणुजाणामि) जो अकृत्य कार्य करते है उन्होंकी अनुमोदना भी नहीं करू (मणसा) मन करके (वयसा) वचन करके (कायसा) काया करके (एम अठारे पाप स्थानक पच्चवखीने ) इस प्रकार अष्टादश पापस्थानकोंका प्रत्याख्यान करके फिर (सव्व ) सर्व प्रकारसे (असण) अन्न (पाणं) जल (खाइम) मेवादि (साइमं) मुखवास प्रमुख ( चउव्विहपि आहार पञ्चक्खामि) इन चारोंही आहारोंका प्रत्याख्यान करता हू (जावजीवाय) यावज्जीव पर्यन्त। फिर (जंपिय इमं सरीरं) जो प्रिय है यह प्रत्यक्ष मेरा शरीर (इछ) इष्ट कारी है (कंत्त) कातियुक्त है (पीय) प्रीतियुक्त है (मणुन्न) मनोज्ञ है (मणाम) अत्यन्त मनोज्ञ है (धिनं) धैर्य रूप है (विसासियं) विश्वा १२ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ (परलोगा संसप्पओगे) परलोकमें देव वा इन्द्रादि पदवीकी आशा करना अथवा (जीविया ससप्पओगे ) जीवितव्यकी आशा रखना कि सलेखनामें मेरी महान् यशकीर्ति होती है इस लिये कोई दिन और भी जीता रहू तो अच्छा हो ( मरणा संसप्प ओगे ) तथा रोगादिकी प्रबलता के कारणसे मृत्युकी इच्छा करना वा ( कामभोगा संसप्पओगे) काम भोगकी आशा करना कि मृत्युके पीछे मुझे विशिष्ट कामभोग प्राप्त होगे ( जो मे देवसि अइयार कओ) जो मैंने दिवस सम्बन्धि अतिनार किया हुआ है ( तस्स मिच्छा मि दुक्कड ) उन अतिचार रूप दोषोंसे मैं पीछे हटता हू क्योकि वे दुष्कृत मेरे अकरणीय हैं | भावार्थ - उक्त पाठका यह आशय है कि जब मृत्यु समीप आ जावे तव पौषधशाला में दर्भादिका असन बिछाकर पूर्व तथा उत्तर दिशाकी ओर मुख करके (नमात्ण) के पाठ से सिद्धों वा वर्तमानकालके अरिहंतों को नमस्कार करके फिर सर्व प्राणीमात्रको क्षमावणा करके फिर जो व्रत ग्रहण किए हुए है उनकी आलोचना निंदना करके तीन करण और तीन योगों से अष्टादश पापोंका परित्याग करके चतुर्विध आहारका परित्याग करे । फिर जो प्रिय मनोहर यह शरीर है इसकी ममताको त्याग अपितु पाचो ही अतिचारोंको परिहार करके शुद्ध अनशन करे किन्तु श्राद्धान प्रतिपादनताकी शुद्धिके लिये नित्य ही पाठ करना चाहिये किन्तु अन्तिम समयके निकट आनेपर स्पर्शना द्वारा शुद्ध करे | एम समतिपूर्वक बार व्रत संलेखणा सहित एदने विषय जे कोई अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अणाचार जाणतां अजाणतां मन वचन कायायें करी सेव्यो होय सेवरात्र्यो दोय सेवता प्रत्यें अणुमोद्यो होय ते अनंता सिद्ध केवलोनी साखें मिच्छा मि दुक्कर्ड | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी पदार्थ (एम समकितपूर्वक) इस प्रकार सम्यक्त्वपूर्वक (वार व्रत संलेखणा सहित ) द्वादशं व्रत और संलेखनायुक्त (एहेने विषय) इनके विषय (जे कोई) यदि कोई (अतिक्रम) मनके द्वारा नियम किये हुए पदार्थों की इच्छा करना उसका नाम अतिम है (व्यतिक्रम) जो वचनसे कहा जाए कि मै नियमको भग करूंगा उसका नाम व्यतिक्रम है (अतिचार) जो कायद्वारा वस्तु भोगनेके लिये हाथमें ली जाये, (अणाचार) और भोग ली हो उसका नाम अनाचार है (जाणता) जान करके (अजाणतां) न जानने हुए (मन वचन कायायें करी) मन वचन काय करके (सेव्यो होय ) दोपसेवन किए हों ( सेवराव्यो होय ) अन्य आत्माओंको आसेवन करनेका उपदेश दिया हो (सेवता प्रत्ये अणुमोद्यो होय) जो अनिचारोंको सेवन करते है उन्होंकी अनुमोदना की हो (ते अनंता सिद्ध केवलीनी साखें) उनको अनंत सिद्ध केवलियोंकी साक्षिसे (मिच्छा मि दुक्कडं) उस दुष्कृतसे पीछे हटता हूं॥ भावार्थ-सम्यक्त्वपूर्वक द्वादश वन संलेखनापूर्वक इनके विषय यदि कोई अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, जानते हुए, वा न जानते हुए मन वचन काया करके यदि आप सेवन किए हों वा अन्य जीवोंको उपदेश किया हो जो आसेवन करते है उन्होंकी अनुमोदना करी हो तो उस अतिचार रूप दोषसे केवली भगवान् वा सिद्ध भगवानोकी साक्षिसे मै पाछे हटता हूं। अठारे पापस्थानक-प्राणातिपात १ मृषावाद २ अदत्तादान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ ९ राग १० द्वेष ११ कलह १२ अभ्याख्यान १३ पैशुन्य १४ परपरिवाद १५ रति अरति १६ मायामोसो १७ मिथ्यात्व दर्शनशल्य १८ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं १८ पापस्थानक महेिलुं जे कोई पापस्थानक महारे जीवें मने वचनें कायायें करी सेव्यु होय सेवराव्यु होय सेवता प्रत्ये भलुं जाण्युं होय ते अनंता सिद्ध केवलीनी साखें मिच्छा मि दुक्कडं ॥ हिंदी पदार्य-( अठारे पापस्थानक ) अष्टादश पापस्थानकोंके भेद निम्न प्रकारसे हैं (प्राणानिपान ) जीवहिंसा (मृपावाद ) असत्य भापग करना (अदत्तादान) चौर्य कर्म (मेथुन) अब्रह्मचर्य (परिग्रह) धनादिकी आकांक्षा (क्रोध) रोप करना (मान) अहकार (माया) छल (लोभ) तृष्णाकी वृद्धि (राग) काम रागादि (द्वेष) प्रतिकूलता (कलह) क्लेपभाव (अभ्याख्यान) असत्य दोपारोपण करना (पैशुन्य) चुगली करना (परपरिवाद) अन्य आत्माओंका निंदा करनी (रति अरति) विषय विकारोंकी प्राप्तिमें हर्ष और अप्राप्तिमें शोक करना (मायामोसो) कपटसे मृषावाद बोलना (मिथ्या दर्शन शल्य) मिथ्या दशर्नका शल्य रखना (एव अठारे पापस्थानक) इस प्रकारसे अष्टादश जो पापस्थानकोंके भेद है सो यह (माहेलु जे कोई पापस्थानक महारे जीवे मनें वचने कायाये करी) मेसे कोई भी पापस्थानक मैंने तीन योगोंसे (सेव्या होय) सेवन किये हुए हो (सेवराव्या होय) अन्य जीवोंसे आसेवन करवाये हों, (सेवता प्रत्ये भलु जाण्यु होय) जो आसेवन करते है उन्होंकी अनुमोदना करी हो (ते अनंता सिद्ध केवलीनी साखें ) उन दोपोंसे अनत सिद्ध केवलियोंकी साक्षिसे (मिच्छा मि दुक्कड) मै पीछे हटता हू॥ भावार्थ-अष्टादश पापोंको तीन करण और तीनों योगोंसे परिहार करे जो पूर्वोक्त लिखे गए है । फिर (इच्छामि ठामि) का पाठ पढ़े जो पूर्व लिखा, गया है। फिर खडा होकर निम्न प्रकारसे पढ़े ॥ तस्स धम्मस्ल केवलि पण्णनस्स अभ्भुष्ठि Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए तिविहेणं पडितो वंदामि जिण चउम्योसं ॥ हिंदी पदार्थ-(तस्स) उस (केवलि ) श्री केवली (पण्णत्तस्स) भाषित (धम्मस्स) धर्मके विषय (अ-मुठिओमि) अभ्युत्थित [खड़ा] होता हूं ( आराहणाए ) आराधन करनेके वास्ते ( विरओमि ) निवृत्ति करता हूं (विराहणाए) विराधनासे (तिविहेणं) त्रिविध मन वचन काय करके (पडिकतो) पीछे हटता हूं और (वंदामि जिण चउव्वीस) मै चौवीस तीर्थंकरोंको वन्दना करता हू॥ भावार्थ-श्री केवलीभाषित धर्ममें उपस्थित होकर संयममें लगे हुए अतिचारोसे निवृत्ति करे, और चतुर्विंशति तीर्थंकर देवोंको वंदना करे। फिर (इच्छामि खमासमणो) के पाठसे दो वार गुरुदेवको वन्दना नमस्कार करे और यथाशक्ति पाच पदोको वंदना नमस्कार करे ॥ फिर निम्न लिखित पाठ पढे । अनंत चौवीसोते नमो, सिद्ध अनंता कोड़। केवल ज्ञानी थे वरसभी, वंदु वे कर जोड़ ॥१॥ दो कोड़ो केवलधरा, विहरमान जिन वीस । सहस्त्र युगल कोड़ी नमु, साधु वंदु निसदीस ॥ २॥ हिंदी पदार्थ-(अनंत चौवीसीते नमो ) अनत चतुर्विशति तीर्थकरोंको नमस्कार करता हू, (सिद्ध अनंता कोड़) और अनंत कोटि प्रमाण सिद्धोंको भी नमस्कार करता हूं (केवल ज्ञानी थे वरसभी) केवलज्ञानके धारक मुनि वा स्थविर पदवाले जो मुनि है उन सवोंको (वंदु वे कर जोड) दोनों हाथ जोड़कर वंदना नमस्कार करता हूं ॥ (दो कोड़ी केवलधरा ) जघन्य वर्तमानकालमें महाविदेह आदि क्षेत्रोंने दो कोटि प्रमाण केवल ज्ञानके धारी मुनि और (विहरमान जिन वीस) वर्तमान जवन्य बीस Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ अरिहंत है अर्थात् जो अतरग विभूति वा वाह्य विभूतिसे विभूषित हैं उनको भी वदना नमस्कार करता हू, किन्तु (सहस युगल कोड़ी नमु ) दो सहस्र प्रमाण जो जघन्य पढ़वाले ( साधु वंदु निसदीस) साधु हैं उनको भी अहोरात्र वदना नमस्कार करता हू || भावार्थ - अरिहंत सिद्ध भगवतोको वदना नमस्कार करे, फिर सर्व केवली सर्व स्थविर पदधारी मुनियों को भी वंदना नमस्कार करे, तदनतर जो स्तोकसे स्तोक दो क्रोड़ केवली तथा वीस अरिहंत और दो सहस्र मुनि होते है, उनको भी वंदना नमस्कार करे | पुनः जो ८४ लक्ष प्रमाण जीवोंकी योनिया है, उन सनोंसे निम्नलिखितानुसार क्षमावणा करे सप्त लक्ष पृथ्वी काया, सप्त लक्ष अप काया, सप्त लक्ष तेजु काया, सप्त लक्ष वायु काया, दश लक्ष प्रत्येक वनस्पती काया, चतुर्दश लक्ष साधारण वनस्पती काया, दो लक्ष केंद्रिय, दो लक्ष त्रिइंद्रिय, दो लक्ष चरिंद्रिय, चतुर्लक्ष देव, चतुर्लक्ष नारकी, चतुर्लक्ष तिर्यंच पंचेंद्रिय, चतुर्दश लक्ष मनुष्य, एवं चौरासी लक्ष जोवा योनिमेंसे यदि मैंने कोई जीव हनन किया हो तथा अन्यको मारनेका उपदेश दिया हो, वा हनन कर्ताओं की अनुमोदना की हो, वे सर्व मन वचन काया करके १८२४१२० प्रकारे तस्स मिच्छामि दुक्कडं | * जीवतस्त्र के ५६३ भेदोंको अभियादि दशोंके साथ गुणाकार करनेसे ५६३० भेद होते हैं। फिर इनको राग और द्वेषके साथ द्विगुणाकार करने से ११२६० भेद बनते है । फिर इन्होंको मन वचन और कायाके साथ ' Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर ऐसे पढ़े खामे मि सव्वे जीवा । सव्वे जीवा खमंतु मे॥ मित्ती मे सव्व भूएसु । वे मज्झं न केणई ॥१॥ एवमहं आलोइयं । निंदियं गरहियं। दुगंच्छियं सम्म तिविहेण पडिकतो वदामि जिण चउव्वीसं ॥२॥ हिंदी पदार्थ-(खामे मि सव्वे जीवा) मै खमावना करता हूं सर्व जीवोंसे और (सव्वे जीवा खमंतु में) हे सर्व जीवो मेरेपर तुम भी क्षमा करो, क्योंकि (मित्ती मे सव्व भूएसु) मैत्री भाव है मेरा सर्व जीवोंमें (वेर मज्मं न केणई) वैरभाव मेरा किसी जीवके साथ भी नहीं है। (एवमहं) इस प्रकार मैने (आलोइयं) आलोचना की (निदियं) आत्मसाक्षिसे निंदा की (गरहिय) गुरु की साक्षिसे विशेष निंदा की (दुगच्छिय) दुर्गच्छा की (सम्म) सम्यक् प्रकारसे (तिविहेणं) तीन योगोंसे (पडिक्कतो) मै पापसे पीछे हटता हू और (वदामि) वंदना करता हूं (जिण चउव्वीस), चतुर्विंशति तीर्थंकरोंको ॥ भावार्थ-सर्व जीवोके साथ क्षमावना करके पापसे सर्वथा ही पीछे हटकर चौवीस तीर्थकरोको वन्दना नमस्कार करे॥ __ इस प्रकार सामायिक, चउविसंथा, वंदना, पडिक्कमणा, यह चार आवश्यक पूर्ण हुए। फिर "निवखुत्तो" के पाठसे पाचवें आवश्यककी आज्ञा लेकर निम्न प्रकारसे कायोत्सर्ग करे गुणाकार करनेसे ३३७८० भेद होते हैं, अपितु इनको ही तीन करणोंके साथ सयोजन करनेसे १०१३४० भेद पन जाते हैं, अपितु इनको भी फिर तीन फालके साथ गुणाकार करनेसे ३०४०२० मेद हो जाते हैं। फिर इनको अर्हन, सिद्ध, साधु, देव, गुरु, और आत्मा इस प्रकार छै गुणाकार करनेसे १८२४५२० भेद पनते हैं अर्थात् इस प्रकारसे मैं मिच्छा मि दुक्कडं देता हू और फिर पाप कर्म न करने की इच्छा करता हू॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सहो इच्छाकारेण संदिसह- भगवन् देव. सि ज्ञान दर्शन चरित्नाचरित तप अतिचार प्रायच्छित विशोधनार्य करेमि काउस्तग्गं ॥ हिदी पदार्थ-(आवस्सही इच्छाकारेण सदिसह भगवन् ) हे भगवन् ! मेरी इच्छा है, अवश्य करणीय कार्यकी करनेके लिए, आप आज्ञा दीजिए (देवसि) दिन सम्बन्धि (ज्ञान)ज्ञान (दर्शन) सम्यक्त्व(चरित्ताचरित्त) देशवृतिमें (तप) तपमे (अतिचार) अतिचारोंके (प्रायच्छित) प्रायश्चित्तकी (विशोधनार्थ) विशुद्धिके वास्ते (करेमि) करता हू (काउस्सगं) कायोत्सर्गको ॥ भावार्थ-फिर अवश्य ही करने योग्य पंचम आवश्यकको भगवान्की आज्ञा लेकर ज्ञान दर्शन चरित्राचरित्रकी विशुद्धिके अर्थ कायोत्सर्ग (ध्यान) करे। फिर 'नवकारका' पाठ 'करोमे भंते सामाइय' का पाठ 'इच्छामि ठामि' का पाठ 'तस्सोतरी करणेणं' का पाठ, इनको पूर्ण पढ़कर ध्यान करे । देवसीम चार और राईसीमें दो लोगस्सका ध्यान करे । पक्षिप्रतिक्रमणमें द्वादश लोगस्सका ध्यान और चतुर्मासी प्रतिक्रमणमें २० लोगस्सका ध्यान तथा सम्वत्सरी प्रतिक्रमणमें ४० लोगस्सका ध्यान करे। यह सप्रदायिक मानना है, अपितु सूत्रमें तपकी चिंत्वना ही कथन की गई है, क्योंकि अतिचारोकी विशुद्धिं तपसे ही होती है। फिर नमोकार पढ़के ध्यान पारे और एक लोगस्सका पाठ पढके दो वार 'इच्छामि खमासमणो' का पाठ पढे । इस प्रकार पाचमा आवश्यक पूर्ण होता है । फिर षष्टम पञ्चक्खाण आवश्यक करे। यदि गुरुनी हों तो उन्होंसे प्रत्याख्यान करा लेवे, नहीं तो यथाशक्ति तप आप ही ग्रहण कर लेवे ॥ - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ षष्टम प्रत्याख्यान आवश्यक पाठ॥ मुहूर्तके प्रत्याख्यानका मूल सूत्र। उग्गयसूरे नमुक्कार सहियं पञ्चक्वामि चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणा भोगेणं सहसागारेणं वोसिरामि ।। हिंदी पदार्थ-(उग्गयसूरे) सूर्य उदयसे एक मुहूर्त प्रमाण (नमुक्कार सहियं) नमस्कार सहित अर्थात् नमोक्कारके विना पढ़े पारना नहीं करना इस प्रकारसे (पञ्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हूं (चउन्विहपि आहारं ) चतुर्विधके आहारका, जैसेकि-(असणं) अन्नकी जाति (पाणं) पानीकी जाति (खाइमं) फलादिकी जाति (साइमं ) चूर्णादिकी जाति, किन्तु निम्नलिखिन आगार है जैसेकि-(अन्नत्थणा भोगेणं) यदि विना उपयोग वस्तु खाई जाए अर्थात् भक्षण करते समय प्रत्याख्यानकी स्मृति न रहे नो नथा (सहरसागारेणं) अकस्मान् कोई वस्तु मुखमें जा पड़े जेसे दविको मथन करते हूए तक [छाछ ] की विंदु मुखमें जा पडती है, सो इन दोनो आगारोंसे चार प्रकारके आहारको (वोसिरामि ) छोड़ता हूं क्योंकि इन आगारोंसे प्रत्याख्यान भंग नहीं होता ॥ भावार्थ-उक्त पाठ मुहूर्त मात्रके प्रत्याख्यान करनेका है। यदि वयमेव प्रत्याख्यान करना हो तब "पञ्चक्खामि" और "वोसिरामि" ऐसे शब्द कहने चाहिये, यदि गुरू करवावे तब वे "पञ्चक्खाइ" और "वोसिरड" ऐसे कहे। इस प्रत्याख्यानमे दो आगार होते हैं जैसे कि (अनत्यणा भोगणं) विना उपयोग (सहसागारेण) और अकस्मात् , इन आगारों से प्रत्याज्यान भंग नहीं होता है । इसी प्रकार सर्व प्रत्याख्यानोंमे जानना चाहिये, और चतुर्विधक आहारका सर्वथा ही इस नियममें प्रत्याग्व्यान है॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ so भोगेणं) (सहसागारेणं) (पच्छन्न कालेणं) (दिसामोहेणं ) ( सव्व समाहि वत्ति आगारेण) ये पांच आगार होते हैं ॥ अथ तृतीय पुरिमछ ( दो याम ) का प्रत्याख्यान ॥ उग्गयसूरे पुरिम पञ्चक्खामि चडव्विपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्यणा भोगेणं सहसागारेण पच्छन्न कालेणं दिसामांदेणं सव्व स. मादिवत्ति आगारेण वोसिरामि ॥ हिंदी पदार्थ - ( उग्गयसूरे पुरिमनुं पञ्चक्खामि ) सूर्यके उदय होने पर दो प्रहरका प्रत्याख्यान करता हूं ( चउव्विहपि आहार ) चतुर्विध के आहारका जैसे कि ( असणं पाणं खाइम साइम ) अन्नपानीकी जाति खादिनकी जाति सादिकी जाति (अन्नत्थणा भोगेणं) विना उपयोग भक्षण की जावे (सहसागारणं) अकस्मात् ग्रहण की जावे ( पच्छन्न कालेणं ) सूर्यके प्रच्छन्न होनेपर ( दिसामोहेण ) दिग्मूढ होनेपर - दिशा भूलने पर ( सव्त्र समाहिवत्ति आगारेणं) सर्व प्रकारकी समाधि होनेपर ( वोसिरामि ) उक्त आगारों सयुक्त मै चतुर्विधके आहार को छोड़ता हू ॥ भावार्थ — पुरिमड के प्रत्याख्यानमें चतुर्विधिके आहारके अन्यतर अन्नत्थणा भोगेणं, सहस्सागारेणं, पच्छन्न कालेण, दिसामोहणं, सव्व समाहि वत्ति यागारेण, यह आगार होते हैं | अथ विगइ निविगइके प्रत्याख्यानका पाठ ॥ विगइओ निविगइओ पञ्चक्खामि अन्नत्यणा भोगेणं सदसागारेणं * सव्व समादिवत्ति आगारेणं वोसिरामि ॥ $ साहुवयणं । महत्तरागारेणं ॥ * लेवालेवेणवश । गिद्दत्य संसण | उक्खित्त विवेगेणं । पडुन मक्खिरण । परिठावणियागारेण । महत्तरागारण । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ हिंदी पदार्थ - (विगइओ निविगइओ) विगय जो आत्माको विकृतिभाव करनेवाले हैं जैसेकि - दुग्ध, दधि, घृत, नवनीत, गुड़, तैल इत्यादिके प्रत्याख्यानको निविगह कहते हैं सो निविगइका ( पञ्चक्खामि ) प्रत्याख्यान करता हूं तथा वर्तमान कालमें उक्त प्रत्याख्यानका निर्वाह छाछद्वारा किया जाता है। छाछ में रोटी डालकर आसेवन करनेकी प्रथा वर्तमान कालमें है । सो उक्त प्रत्याख्यानमें आगारोंकी सख्या लिखते है - यथा ( सव्व समाहि वत्ति आगारेण ) सर्व प्रकारकी समाधिके होनेपर ( वो सिरामि ) इस प्रकारसे विगयको छोड़ता हू | -- भावार्थ - विगय के प्रत्याख्यानमें पूर्वोक्त तीन आगार होते है | अथ विगयका एकासनयुक्त प्रत्याख्यानका पाठ ॥ उग्गयसूरे निविगइ एकासणं पञ्चक्खामि ति - विहंपि आहारं असणं खाइमं साइमं अन्नत्थणा भोगेणं सदसागरेण सव्व समाहिवत्ति आगारेणं वासिरामि ॥ हिंदी पदार्थ - ( उग्गयसूरे निविगइ पञ्चक्खामि ) सूर्य उदयसे निविगइका प्रत्याख्यान करता हू, फिर ( एकासण ) एक आसनपर अन्नादि भक्षण करनेका ( पच्चक्खामि ) प्रत्याख्यान करता हूं । पुनः ( तिविहपि ) त्रिविधके ( आहारं ) आहारका भी प्रत्याख्यान करता हू जैसेकि - ( असण) अन्नकी जाति ( खाइमं ) खादिमकी जाति ( साइमं ) सादिमकी जाति ( अन्नत्थणा भोगेण ) विना उपयोग (सहसागारेण) अकस्मात् ( सव्व समाहिवत्ति आगारेण ) सर्व प्रकारकी समाधि होनेपर ( वोसिरामि ) तीन आहारका प्रत्याख्यान करता हू ॥ भावार्थ - एकासनयुक्त तीन आहारका निविगइमें प्रत्याख्यान करे, 8 लेवालेवेणवा, गिहत्य ससद्वेण, उक्खित्त विवेगेण, पडुन मक्खिoण, परिठावाणियागारण, महत्तरागारेण ॥ 2 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ किन्तु पानी प्राशुक ही आसेवन करे । आगार सर्व प्राग्वत् ही हैं, इसमें विशेष विगयोंका ही प्रत्याख्यान है किन्तु वर्तमान कालमें तक्रके साथ इस नियमको पाला जाता है। स्कंधविगय, धारविगयके प्रत्याख्यानका विवेक होना चाहिये। अथ एकासन द्विआसन करनेका पाठ ।। उग्गयसूरे एगासणं बियालणं पञ्चक्खामि दु. विहं तिविहंपि आहारं असणं खाइमं साइमं अन्नस्थणा भोगणं सहसागारेणं' आउदृण पसारेणं गुरु अभ्भुठाणेणं सव्व समाहिवत्ति आगारेणं वोसिरामि॥ हिंदी पदार्थ (उग्गयसूरे) सूर्य उदयसे (एगासणं) एकासन वा (बियासणं) दो आसन, एक वार भोजन करनेको एकासन और द्विवार भोजन करनेको दो आसन कहते है, उनके उपरान्त (पञ्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हूं । ( दुविहं ) यदि पानी और स्वादिम ग्रहण करने होवें तो अशन और खादिमका प्रत्याख्यान करे, यदि एकासनके पीछे केवल प्राशुक पानी ही ग्रहण करना होवे तो (तिविहंपि) तीन प्रकारके आहारका प्रत्याख्यान करे जैसेकि-(असण) अन्नकी जाति (खाइम) खादिमकी जाति (साइमं ) स्वादिमकी जाति, किन्तु निम्नलिखित आगारानुकूल जैसेकि(अन्नत्यणा भोगेणं) विना उपयोग (सहस्सागारण) अकस्मात् (आउट्टण पसारेणं) शरीरके संकोचन [सुकेड़ने] और पसारनेपर क्योंकि यदि एकासनमें अंगोपांग संकोचन और पसारन किये जाए तो प्रत्याख्यान भंग न होगा (गुरु अम्भुटाण) गुरुके आनेपर यदि विनयके वास्ते उठना पड़े (सत्र समाहिवत्ति आगारेणं) सर्व प्रकारकी समाधिके रहने पर (वोसिरामि) उक्त आगारोंयुक्त तीन आहारको छोडता हूं ॥ १ सागारियागरेण । २ पग्लिावणियागारेणं, महत्तगगारेण ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-एकासन वा द्विआसनमें द्विविध वा त्रिविधके आहारका प्रत्याख्यान करे किन्तु उपर कहे आगारोंके सयुक्त प्रत्याख्यान करे। अथ एकलठाण करनेका पाठ॥ उग्गयसूरे एगलठाणं पञ्चक्खामि चउव्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणा भोगेणं सहसागारेणं' गुरु अभ्भुठाणेणं सव्व समाहिवत्ति आगारेणं वोसिरामि ॥ हिंदी पदार्थ-(उग्गयसूरे) सूर्य उदयसे (एगलठाण) एक स्थानके विना अन्य स्थानपर गमन करके आहार करनेका (पञ्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हूं, तथा प्रत्याख्यान करता हू (चउन्विहंपि) चतुर्विधिक आहारका जेसोक-(असण) अन्नकी जातिका (पाण) पानीकी जातिका (खाइम) खादिमकी जातिका (साइम) स्वादिमकी जातिका, किन्तु (अन्नत्थणा भोगणं) इतना विशेष है कि बिना उपयोग आहारादि आतेवन किया जाये (सहसागारेण) अकस्मात् (गुरु अम्भुठाणेग) गुरुकी विनयके लिए खडा होनेपर (सव समाहिवत्ति आगारेणं) सर्व प्रकारकी समाधिके रहनेपर (वोसिरामि) चारों आहारोंको छोडता हूं ॥ भावार्थ-एकलस्थानका प्रत्याख्यान एकासनके तुल्य ही है, किन्तु विशेष इतना ही है कि-एकासनमें अंगोपागके संकोचन पसारनका त्याग नहीं है, एकलस्थानमें अगोपागके सकोचने और पसारनेका परित्याग होता है। अथ आंबिल करनेका पाठ॥ उग्गयसूरे आंबिल पञ्चक्खामि तिविहंपि आ• १ सागारियागारेण । २ परिठावणियागारण, महत्तरागारे । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारं असणं खाइमं साइमं अन्नत्थणा भोगेणं सह. सागारेणं* सव्व समाहिवत्ति आगारेणं पाणस्त ले. वेण वा अलेवेण वा अच्छेण वा बहुलेवेण वाससित्थेण वा असित्येण वा वोसिरामि ॥ हिंदी पदार्थ-(उग्गयसूरे) सूर्य उदयसे (आंबिलं) आंबिल ग्रहण करता हूं और (पञ्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हू (तिविहंपि) त्रिविधिके (आहारं) आहारका जैसेकि-( असणं) अन्नकी जातिका (खाइम) खादिमकी जातिका (साइम) स्वादिमकी नातिका (अन्नत्थणा भोगेणं ) अपितु विना उपयोग ग्रहण की जाए (सहसागारेणं) अकस्मात् वस्तु ग्रहण की जाए (सव्व समाहिवत्ति आगारेणं ) सर्व प्रकारकी समाधिके होनेपर (पाणस्स) पानीकी अपेक्षा इतने प्रकारके जलके भिन्न अन्य पानीका नियम जैसेकि-(लेवेण) लेपयुक्त पानी जैसे खजूरादिका (वा) अथवा (अलेवण) अलेप जल जैसे धोवनका पानी (वा) अथवा (अच्छेण) शुद्ध निर्मल उष्ण पानी (वा) अथवा (बहुलेवेण ) बहु लेप युक्त जैसे तण्डुलोंका [चावलों का धोवन (वा) अथवा (सत्तित्थेण) सीत्थयुक्त [कणसहित ] जैसे चूनका धोवन (असित्येण वा) सीथ रहित जल जैसे प्राशुक जल इनके विना अन्य प्रकारके जलोंको (बासिरामि) छोड़ता हू।। भावार्थ-आबिल उसको कहते है जो विगयादिसे रहित केवल प्राशुक जलके साथ ही रोटिया ग्रहण की जावे उसका ही नाम आंबिल है, किन्तु आगार पूर्ववत् ही है। केवल पानी पदप्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि-लेपयुक्त १ अलेपयुक्त २ शुद्ध उप्ण पानी ३ बहु लेपयुक्त ४ सीथयुक्त ५ असीययुक्त ६, इनके विना अन्य जलका परित्याग कर ॥ * लेगालेवेणं, गिहत्य संसटेणं, उक्खित्त विधेगेणे, परिठावणियागारेण, महत्तरागारणं ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चउबिहाहार उपवासका पाठ ॥ उग्गयसूरे अभ्भत्तठं पञ्चक्खामि चउम्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्यणा भोगेणं सहप्तागारेणं' सव्व समाहिवत्ति आगारेणं वोतिरामि ॥ ८॥ हिदी पदार्थ-(उग्णयसूरे) सूर्य उदयसे (अभ्भत्तठ) अभक्तार्थे अर्थात् अन्नपानीको ग्रहण न करनेके वास्ते (पउविहंपि आहारं) चार प्रकारके आहारका (पञ्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हूं जैसेकि-(असण) अन्नकी जाति (पाणं) पानीकी जाति (खाइम) खादिमकी जाति किन्तु (अन्नत्यणा भोगेण ) विना उपयोग आहार ग्रहण किया जाये ( सहसागारेण) अकस्मात् ग्रहण किया जाए (सव्व समाहिवत्ति आगारेण) सर्व प्रकारको समाधि होनेपर (वोसिरामि) चार प्रकारके आहारको त्यागता हू ।। भावार्थ-चतुर्विधके आहारके प्रत्याख्यानमें पूर्वोक्त आगार रक्खे जाते है इसको चउबिहार व्रत भी कहते है ॥ अथ तिविहादार उपवास करनेका पाठ ॥ उग्गयसूरे अभ्भत्तठं पञ्चक्खामि तिविहंपि आहारं असणं खाइमं साइमं अन्नत्यणा भोगेणं सहसागारेणं' सव्व समाहिवत्ति आगारेणं पाणादार पोरिसिं पञ्चक्खामि अन्नत्यणा भोगेणं सहसागारेणं पारिटायणियागारण, महत्तरागारेण. ૧૪ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 हिंदी पदार्थ-(सचित्त) पृथ्वी आदि सचित्त वस्तुका प्रमाण (दव्व) द्रव्यांका प्रमाग जैसे अंगुली विना जो मुखमे डाला जाय वह सर्व द्रव्य हे यथा दुग्ध 1 खाड 2 इत्यादि (विगई) विगय प्रमाण जैसे दुग्ध 1 घृत 2 तेल 3 नवनीत 4 गुड 5 दधि 6 मधु 7 इत्यादि, (पण्ही) जुत्याकिा प्रमाग (तबोल) ताम्बुलादिका प्रमाण (वत्थं) वस्त्रोंका प्रमाण (कुसुमेसु) पुष्पोंका प्रमाण (वाहग) सवारी आदिका प्रमाण यथा घोडादि (सयण) शय्यादिका प्रमाण ( विलेवण) विलेपनका प्रमाण जैसे नेत्राअनादि (बभं) ब्रह्मचर्य का धारण करना अब्रह्मचर्यका त्याग करना (दिसी) दिशाओंका प्रमाग (न्हाण) स्नानका प्रमाण यथा एक वार द्विवार इत्यादि (भत्तेसु) सर्व वस्तुके वज़नका प्रमाण अर्थात् विना प्रमाण न ग्रहण करे / / भावार्थ-उक्त सूत्रमें यह वर्णन है कि गृहस्थी नित्यम् प्रति यथाशक्ति तृष्णाका निरोध करता हुआ विना प्रमाग कोई भी वस्तु ग्रहण न करे / प्रतिक्रमणका मुख्य आशय // प्रियवरो! आवश्यकका आशय यह है कि सर्व प्राणियोंसे मैत्रीभाव धारण करना और निज आत्माको सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चरित्रमें आरूढ़ करना। पुनः निन स्वरूपको अनुप्रेक्षण करके तृष्णाको निरोध करना, आत्माको सदैव काल सदाचारमें लगाना और अपने पूर्वछत पापोका पश्चात्ताप करते रहना किन्तु नूतन पापोंसे अपनी आत्माको बवाना / फिर ऐसे प्रार्थना करना कि हे सर्वज्ञ देव मै आपके सत्योपदेशके प्रभावसे सर्व नीबोंका हितेपी बनता हूं निज आत्माको अपने स्वरूप में लाता हूँ। हे अजर! आपके कथन किए हुए सत्य पदार्थोंको यथावत् ज्ञात करके भव्य जीवोंको सन्मार्गमें स्थापन करू इत्यादि अनुप्रेक्षा करके सर्वे प्राणियों पर परोपकार करना यही आवश्यकका मुख्य आशय है / / ॐ शान्ति शान्ति शान्ति / /