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________________ ' अर्हम्. लेखककी प्रस्तावना ॥ t प्रिय महोदयवर ! आत्मोन्नति के लिये नित्य क्रिया करनी आव। श्यकीय है- क्योंकि इसके द्वारा जीव अपनी उच्च पदवीके योग्य हो जाता 1 है; - सो प्राणी मात्र के हित के लिये श्री अर्हन् देवने धर्मक्रिया वर्णन की हैं, जिनके धारण करनेसे इस लोक और परलोकमें जीव सुदर फलको अनुभव करता है। अपितु अंगसूत्र व उपांग सूत्र, च्छेद सूत्र, मूल सूत्र, कालिक सूत्र, उत्कालिक सूत्र इत्यादि सूत्रोंसे व्यतिरिक्त श्री भगवान् वर्द्धमान स्वामीने आवश्यक क्रियाओंको प्रतिपादन करनेवाला आवश्यक सूत्र रचा है जिसमें साधु सान्वी श्रावक श्राविकाओं के नित्य कर्मका सुंदर प्रकार से वर्णन किया गया है, जिसके षट् अध्याय है - जैसेकि - सामायिक १, चतुर्विंशनि स्तव २, वदना ३, प्रतिक्रमण ४, कायोत्सर्ग ५, प्रत्याख्यान ६, यही षटू आवश्यक अवश्य करणीय है जिनका फल श्री उत्तराध्ययन सूत्रके २९ वें अध्यायमें निम्न प्रकारसे लिखा है तथा च पाठः ॥ सामाइएणं भंते जीवे किं जणयइ सामाइएणं सावज जोगं विरइं जणयइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० ८ ॥ अर्थ - हे भगवन् ! सामायिक करनेसे जीव क्या फल उत्पन्न करता है ? हे गौतम! सामायिकके करनेसे जीव सावद्य ( पापके ) योगोंकी निवृत्ति करता है, क्योंकि समतारूप (सामायिक ) के करनेसे पापकें योगोंकी निवृत्ति होती है । फिर आत्मा सम्वरमें प्रवेश करके पापकर्मोंके बधनसे छूट जाता है | यह प्रथम आवश्यकका फल वर्णन किया || अथ द्वितीय आवश्यक विषय ॥ चडवीसत्यएणं मंते जीवे किं जणयइ । चउवीसत्यएणं दंसण विसोदिं जणयइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० ९ ॥
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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