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महाराजकी तीन वार वंदना करके चतुर्विंशति स्तवकी आज्ञा लेकर सम्यक्त्वके विशुद्धयर्थे निम्न लिखित सूत्र पढ़े ॥
अथ मूल सूत्रम् ॥ अरिहंतो महदेवो जावज्जीवाय सुसाहु सुगुरुणं जिणपण्णत्तं तत्तं एसम्मत्तं मे गहिवं पंचेंदिय संवरणो तह नवविह वंभचेर गुत्तिधरो चउविह कसा. यमुको इय अठारस्त गुणेहिं संयुत्तो पंचमहव्यय जुत्तो पंचविह आयार पालण समत्यो पंच समिओ त्तिगुत्तो छत्तीस्त गुणो गुरु होइ सो गुरु मज्झं ॥१॥
हिंदी पदार्थ-(अरिहतो ) अई पूनाया धातुसे जो शतृ प्रत्ययान्त होकर अर्हत् शब्द बनता है, तिसका नाम प्रारुन भाषामें अरिहत है। यथा अई ऐसा धातु है फिर ( सल्लड्वय॑ल्लुटोवाऽनितौ ) शाकटायन व्याकरणके इस सूत्रसे अई पूजाया धातुको शतृ प्रत्यय हो गया। फिर शकार ऋकारकी इत्संज्ञा करके पुन' (यस्येत्संज्ञा तस्य लोप) अर्थात् लोप करके अर्हत ऐसे रूप बन गया। फिर (शत्रानश)प्रारून व्याकरणके इस सूत्रसे शत् प्रत्ययके तकारको न्न आदेश हो गया तब अर्हन्त ऐसे हुआ । फिर (उच्चाहति) प्राकृत व्याकरणके इस सूत्रसे अरिहंत अरुहंत अरहंत ऐसे तीन रूप सिद्ध हुए। अपितु यह शब्द प्रारुन भाषामें अनंत हो गया। फिर (अत से?) इस सूत्रसे ( अरिहनो) यह रूप हुआ सो अरिहंत (मह) मेरे (देवो) देव है (जावज्जी पाय ) यावत्का ल मेरी आयु है, फिर तावकाल ही (सुसाहु) तुसा तु जो हैं सो (सुगुरुणं) मेरे गुरु हैं (निणपपणतं ) जिनेन्द्र देवका प्रतिपादन किया हुआ जो (तत्त) तत्व है सोई
+ मे मड मम मह मह म अम्ह अम्ई डसा || प्रा० अ०८ पा० ३ १०११३॥ अस्मदोडता पटक पचनेन सहितत्य एतेन वादेशा भवति ।