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मरा धर्म है (ए सम्मत्तं ) यही सम्यक्त्व (मे) मेरे (गहिय ) गृहीत है अर्थात् देव गुरु धर्मकी जो पूर्ण निष्टा है सो मेरा सम्यक्त्व है । और गुरु मेरे वह है जो ( पाटिय सवरणो ) पाच इंद्रिय यथा श्रोत्र, घाण, चक्षु, रस, स्पर्श, इनको जो वश करनेवाले है ( तह) तथा ( नवविह) नवविधिके (वभर गुतिधरो ) ब्रह्मचर्यकी गुप्तिके धरनेवाले जैसे कि जिस स्थानमें स्त्री पशु नपुसकका निवास होवे ऐसे स्थानको छोड देवे मूषक बिलाव (माजीर) का दृष्टान्न १, स्त्रीका व्याख्यान न करे नींबूका दृष्टान्त २, स्त्रीसे संघट्टा भी (स्पर्श भी ) न करे उष्ण भूमिका में घृतका दृष्टान्त ३, स्त्रीके सागोपागको भी न देखे नेत्रोंके रोगीको सूर्यको हेतु ४, पूर्व क्रीडाकी स्मृति न करे तक्र वा सुदर अनिष्ट वार्ताओका दृष्टान्त १, स्त्रीके समीपकी वस्तीको भी छोड़ देवे जसे वादल गरजते हुए समय मयूरके नृत्य करनेका दृष्टान्त ६. प्रणीत आहारको भी न आसेवन करे जीर्ण वस्त्रका दृष्टान्त ७, फिर अतीव आहार भी न करे स्वल्प भाजनमें बहुत वस्तुका दृष्टान्त ८, शरीरका भी शृंगार न करे मलीन वस्त्रमें रत्नका दृष्टान्त ९, सो जो गुरु उक्त विवि ब्रह्मचर्य पालनेवाले हैं और (चडविह कसायमुको) चतुर्थिधिकी कपायों से भी मुक्त हैं जैसे क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ ( इय अहारस्स घुणेहिं सयुत्तो) इन १८ गुणों करके जो संयुक्त है, फिर (पंच महव्वय जुत्तो ) पांच महाव्रतों करके सयुक्त है जैसे कि अहिंसा १ सत्य २ दत्त ३ ब्रह्मचर्य ४ अपरिग्रह ५ इनको पालनेवाले, फिर (पंचविह) पाच विधिके (आयारपालण समत्यो ) आचार पालणम समर्थ हैं लेकि ज्ञानाचार १ दर्शनाचार २ चारित्राचार ३ तपाचार ४ वलवीर्याचार १ फिर (पंच समिओ) पाच समित करके भी युक्त हैं जैसे कि ( इर्या समित) विना देखे न चलना (भाषा समित) विना विचारे न बोलना (एषणा समित) निर्दो गहार लेना (आयार भडमत्त निक्खेवणा समित) विना यत्न वस्तुका न रखना न उठाना (उच्चार पासवण खेल सिंघाण जल्ल मल परिठावगिया