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________________ स्थापनावश्यक २ द्रव्यावश्यक ३ भावावश्यक ४ । सो भावावश्यक उभय (दोनों) काल अवश्य ही करणीय है किन्तु शोकसे लिखना पड़ता है कि अनेक विपत्तियोंके कारण सूत्रज्ञान अल्प हो गया, फिर मतभिन्नता के कारण बहुधा आवश्यक सूत्रमें अनेक गच्छधारियोंने अपनी २ आम्नायानुकूल अनेक प्रकारके पाठ संग्रह कर दिए, किसीने संस्कृतमें, किसीने प्राकृत में और किसीने गुर्जर भाषामें । फल इसका यह हुआ कि गच्छ २ का आवश्यक सूत्र वन गया, और कतिपय जनोंने तो इसकी वृद्धि करनेका ही ध्यान रक्खा कि- आवश्यक सूत्रकी लोक सख्या अतीव हो । सो इसका परिणाम भी यही निकला कि लोगोंने दोनों समय आवश्यक सूत्र (पडिकमणा) करना ही छोड़ दिया, क्योंकि यह स्वाभाविक ही बात है कि नित्यकर्मका पाठ अल्प हुआ करता है जिसको बालसे वृद्ध पर्यन्त सुखपूर्वक पठन कर सके । इस लिए यह आवश्यक सूत्र दोनों समय सुखपूर्वक पठन हो सक्ता है और इसके पठन करनेसे अपने करणीय कार्यों का पूर्ण बोध हो जाता है । और इसको करते समय चार वस्तुओं का ध्यान अवश्य ही कर लेना चाहिए, जैसे कि - द्रव्य शुद्ध १, जो आवश्यक करने के सावन योग्य हैं जैसे कि - आसन, रजोहरण, रजोहरणी, मुखपत्ति, अन्य वस्त्रादि शुद्ध होने चाहिए || क्षेत्र शुद्ध२, स्थान भी शुद्ध होना चाहिये जैसे कि - जिस स्थानमें असमाधि होवे वहां पर आवश्यक भी शुद्ध नहीं हो सकेगा, इस लिए शुद्ध स्थान की भी आवश्यकता है | काल शुद्ध ३, जो आवश्यक करनेका समय है वह उल्लंघन न करना चाहिये ॥ भावशुद्ध ४, अन्तःकर से पडिकमणा करना चाहिए जैसे कि श्री अनुयोग द्वारजी सूत्रमें भावावश्यक विषय निम्न प्रकारसे लिखा है- तथा च पाठः ॥ लेकिंत्तं लोगोत्तरिअं भावावस्तयं जणं समणे वा समणी वा सावयो वा साविआ वा तच्चित्ते तम्मण्णे तल्लेस्ले तदज्झवस्तिते तदज्झवसाणे तदोवउत्ते तद N
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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