SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णेणं वयच्छिद्दाई पिहेइ पिहिय वयच्छिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबल चरित्ते असु पवयण मायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विदरइ ॥ उ० सू० अ० २९ सू० ११ ॥ अर्थ-प्रतिक्रमण करनेसे हे भगव ! जीव क्या फल उपार्जन करता है? प्रतिक्रमणके करनेसे हे गोतम ! जीव व्रतोंके छिद्रोंको ढांप देता है। फिर वह जीव निरास्त्रवी हो जाता है और उसका चारित्र भी नि>प हो जाता है । वह अष्ट प्रवचन दया मातासे भी युक्त हो जाता है अर्थात् ५ समिति ३ गुप्ति करके युक्त हो जाता है, और संयमके योगोंमें तत्पर हो जाता है, फिर संयमको बड़ी सावधानीसे पालन करता है ॥ ___ अब कायोत्सर्ग आवश्यक विषय ॥ काउसग्गेणं भत्ते जोवे किं जणयइ काउसग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोदेइ विसुद्ध पायच्छित्तेय जीवे निव्वुयहियए ओहरिय भरुव्व भारवहे पसस्थज्झाणो वगए सुहं सुहेणं विहरइ॥ उ० सू० अ० २९ सू० १२॥ चिमिच्छा ५, सोमणतित्ते ६, अर्थात् आस्रवद्वारोंसे निवृत्ति १, मिथ्यात्व और कषाय योग अशुभ भावोंसे भी निवृत्ति करना उसका नाम भी प्रतिक्रमण है। तथा षट् प्रकारसे भी प्रतिक्रमण वर्णन किया गया है जैसकि-विष्टा मूत्रके पश्चात् ईपिया पहियादिको पढकर लोगस्सका ध्यान किया जाता है वह भी प्रतिक्रमण है और जो देवसी राईसीको प्रतिक्रमण किया जाता है वह भी प्रतिक्रमण है यावत् जीव पर्यन्त महाव्रतरूप प्रतिक्रमण वा अनशन व्रतको धारण करना वह भी पापसे निवृत्ति रूप प्रतिक्रमण है। मिथ्याचरणसे पीछे हटना वह भी प्रतिक्रमण है और जो शया करनेके पीछे ध्यानादिक क्रिया की जाती है उसका नाम भी प्रतिक्रमण है।
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy