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(परलोगा संसप्पओगे) परलोकमें देव वा इन्द्रादि पदवीकी आशा करना अथवा (जीविया ससप्पओगे ) जीवितव्यकी आशा रखना कि सलेखनामें मेरी महान् यशकीर्ति होती है इस लिये कोई दिन और भी जीता रहू तो अच्छा हो ( मरणा संसप्प ओगे ) तथा रोगादिकी प्रबलता के कारणसे मृत्युकी इच्छा करना वा ( कामभोगा संसप्पओगे) काम भोगकी आशा करना कि मृत्युके पीछे मुझे विशिष्ट कामभोग प्राप्त होगे ( जो मे देवसि अइयार कओ) जो मैंने दिवस सम्बन्धि अतिनार किया हुआ है ( तस्स मिच्छा मि दुक्कड ) उन अतिचार रूप दोषोंसे मैं पीछे हटता हू क्योकि वे दुष्कृत मेरे अकरणीय हैं |
भावार्थ - उक्त पाठका यह आशय है कि जब मृत्यु समीप आ जावे तव पौषधशाला में दर्भादिका असन बिछाकर पूर्व तथा उत्तर दिशाकी ओर मुख करके (नमात्ण) के पाठ से सिद्धों वा वर्तमानकालके अरिहंतों को नमस्कार करके फिर सर्व प्राणीमात्रको क्षमावणा करके फिर जो व्रत ग्रहण किए हुए है उनकी आलोचना निंदना करके तीन करण और तीन योगों से अष्टादश पापोंका परित्याग करके चतुर्विध आहारका परित्याग करे । फिर जो प्रिय मनोहर यह शरीर है इसकी ममताको त्याग अपितु पाचो ही अतिचारोंको परिहार करके शुद्ध अनशन करे किन्तु श्राद्धान प्रतिपादनताकी शुद्धिके लिये नित्य ही पाठ करना चाहिये किन्तु अन्तिम समयके निकट आनेपर स्पर्शना द्वारा शुद्ध करे |
एम समतिपूर्वक बार व्रत संलेखणा सहित एदने विषय जे कोई अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अणाचार जाणतां अजाणतां मन वचन कायायें करी सेव्यो होय सेवरात्र्यो दोय सेवता प्रत्यें अणुमोद्यो होय ते अनंता सिद्ध केवलोनी साखें मिच्छा मि दुक्कर्ड |