Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 98
________________ भावार्थ-एकासन वा द्विआसनमें द्विविध वा त्रिविधके आहारका प्रत्याख्यान करे किन्तु उपर कहे आगारोंके सयुक्त प्रत्याख्यान करे। अथ एकलठाण करनेका पाठ॥ उग्गयसूरे एगलठाणं पञ्चक्खामि चउव्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणा भोगेणं सहसागारेणं' गुरु अभ्भुठाणेणं सव्व समाहिवत्ति आगारेणं वोसिरामि ॥ हिंदी पदार्थ-(उग्गयसूरे) सूर्य उदयसे (एगलठाण) एक स्थानके विना अन्य स्थानपर गमन करके आहार करनेका (पञ्चक्खामि) प्रत्याख्यान करता हूं, तथा प्रत्याख्यान करता हू (चउन्विहंपि) चतुर्विधिक आहारका जेसोक-(असण) अन्नकी जातिका (पाण) पानीकी जातिका (खाइम) खादिमकी जातिका (साइम) स्वादिमकी जातिका, किन्तु (अन्नत्थणा भोगणं) इतना विशेष है कि बिना उपयोग आहारादि आतेवन किया जाये (सहसागारेण) अकस्मात् (गुरु अम्भुठाणेग) गुरुकी विनयके लिए खडा होनेपर (सव समाहिवत्ति आगारेणं) सर्व प्रकारकी समाधिके रहनेपर (वोसिरामि) चारों आहारोंको छोडता हूं ॥ भावार्थ-एकलस्थानका प्रत्याख्यान एकासनके तुल्य ही है, किन्तु विशेष इतना ही है कि-एकासनमें अंगोपागके संकोचन पसारनका त्याग नहीं है, एकलस्थानमें अगोपागके सकोचने और पसारनेका परित्याग होता है। अथ आंबिल करनेका पाठ॥ उग्गयसूरे आंबिल पञ्चक्खामि तिविहंपि आ• १ सागारियागारेण । २ परिठावणियागारण, महत्तरागारे ।

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