Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 25
________________ २२ पुनः (संत ) शान्तिनाथजीको (वंदामि ) वदन करता हूं ॥ ३ ॥ (कुंथु) कुंथुनाथजीको (अरं) अरनाथजीको (च) और (मल्लिं) मल्लिनाथजीको (वदे) वदना करता हूं (मुणिसुन्वयं) मुनि सुव्रत स्वामीजीको (नमिजिणं) नमिनाथजीको रागद्वेपके जीननेवाले (च) और (वंदामि) वंदना करता हूं (अरिष्टनेमि) अरिष्टनेमिनीको (पास) पार्श्वनाथजीको (तह) तया ( वरमाण) वर्द्धमानस्वाभीनीको अर्थात् श्री महावीरजीको वंदना करता हूं। (च) पाद पूर्णाथै है ॥ ४ ॥ (एवं) इस प्रकारसे मैने (अभित्युआ) अरिहंतोंकी स्तुति की है क्योंकि अरिहंत कैसे है (विहुय) जिन्होंने दूर करी है (रयमला) कर्मोंकी रज तथा मल फिर (पहीण) क्षय किया है ( जरमरणा) जरा और मृत्यु ऐसे जो (चउवीसंपि) चतुर्विंशति तीर्थकर है वा अन्य केवली भगवान् है वे सर्व (जिणवरा) जिनवर (तित्थयरा) वा सर्व तीर्थंकर देव (मे) मेरे ऊपर (पसीयंतु) प्रसन्न हों। यह सर्व व्यवहार नयके मनसे प्रार्थनारूप वचन है ॥५॥ श्री तीर्थंकर देव (कित्तिय) कोर्तित (वंदिय) वदिन ओर (महिय) पूज्य है, अपितु महिड् धातु पूजा वा वृद्धि अर्थमे व्यवद्वत है सो इस स्थानोपरि भावपूजाका ही विधान है, (ज) जो (ए) यह प्रत्यक्ष ( लोगस्स) लोगों ( उत्तमा) उत्तम (सिद्धा) सिद्ध हैं सो मुझको (आरोग्ग) रोगरहित निर्मल ऐसा जो सिद्ध भाव है वा (बोहिलाभ) बोधवीज सम्यक्त्वका लाम और (उत्तम) उत्तम (समाहि) समाधि (वरं) जो प्रधान है सो मुझको (दितु) दो ॥ ६ ॥ क्योंकि आप कैसे है.? ( चंदेसु ) चन्द्रमासे ( निम्मलयरा) अधिक निर्मल और (आइचेसु) मूर्यसे भी अत्यंत ( पयासयरा) प्रकाश करनेवाले हो ( सागरवर ) प्रधान सागर जो कि स्वयंभू रमण समद्र हे तिसकी तरह (गभीर) गुणोंमें गम्भोर है मो हे सिद्धो ( सिद्धा ) कार्य सिद्ध हुए है जिनके ऐसे जो श्री सिद्ध प्रभु है सो हे सिहो (सिडिं ) मुक्ति जो है सो ( मम ) मुझको (दिमत ) दो ॥ ७॥ भावार्थ-इम सूत्र में जो सम्यक्त्वकी विशुद्धिके लिए पाठ है उनका गृहस्थी ध्यान करे जैसे कि २४ नीर्थंकरों के नाम हैं, फिर उनके गुणोंका

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