Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 36
________________ कीधा होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिः च्छा मि दुकडं ॥२॥ अर्थ-यदि दर्शन (सम्यक्त्व) के विषय कोई अतिचार लगा हो तो मै उसकी भी आलोचना करता हूं जैसेकि-जिनवचनों में शंका की हो १ अथवा परमतकी आकांक्षा करी हो कि-अमुक मत बहुत ही सुंदर है-निसके उपासक सदैव काल ही सुखी रहते है इस प्रकारके भाव करनेसे सम्यक्त्वमें द्वितीय अतिचार लगता है २ और कर्मो के फल विषय संशय किया हो ३ तथा पर पाषंडियोंकी स्तुति करी हो जिसके द्वारा बहुतसे प्राणियोंको मिथ्यात्वकी रुचि हो जाये इस प्रकारसे कर्म किया हो ४ और अन्य मतावलम्बि नास्तिकादि लोगोंसे संस्तव-परिचय किया हो ५ क्योंकि-दुष्ट जनोंकी संगति अवश्य ही विकृति भावको उत्पन्न कर देती है इस लिए दुष्ट जनोकी संगति कदाचित् भी न करनी चाहिये । सो यदि इस प्रकारसे सम्यक्त्वमें कोई भी अतिचार लग गया हो तो मै उस दोपसे पीछे हटताहूं और फिर ऐसा न करूंगा इस प्रकार भाव रखता हूँ॥ पहिला थूल प्राणातिपात वेरमण व्रतने विषय जे कोई अतिचार लागा होय ते आलोउं रीसवसे गाढ़ा बंधण बांध्या होय १ गाढ़ा घाव घाल्या होय २ अवयवना विच्छेद कीधा होय ३ अति भार घाल्यो होय ४ भात्त पाणीका विच्छेद कीधा होय ५ जो मे देवसि अइयार कओ तस्त मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-जो प्रथम अनुव्रत है उसमे यदि कोई अतिचार रूप दोप लग गया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूं जैसेकि-क्रोधके वश होकर जीवोको कठिन वधनोसे वाधा हो १ निर्देयके साथ उनको प्रहारोंसे घायल किया हो २ उनके अवयवोको काट दिया हो ३ उनपर प्रमाणरहित

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