Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 23
________________ २० किन्तु इन प्रतिज्ञाओं करके (हुज्ज) होवे (मे) मेरा ( काउसग्गं ) कायोत्सर्ग । सो कायोत्सर्गके कालका परिमाण निम्न प्रकारसे है जैसेकि - (जाव ) यावत् काल मै ( अरिहंताणं) श्री अरिहंतों (भगवंताण) भगवंतोंको (नमोक्कारेणं) नमस्कार न करूं तावत्काल पर्य्यन्त ( कार्य ) कायाको ( ठाणे ) एक स्थान में रक्खूंगा, पुन (मोणेणं) मोन वृत्तिमें तथा (ज्याi) एकाग्र ध्यानवृत्ति में ( अप्पाणं ) अपनी कायाको वा अपनी आत्मा से पापकर्मको ( वोसिरामि ) [ व्युत्सृजामि] छोड़ता हूं ॥ भावार्थ - उक्त सूत्रमें यह विधान है कि - पापकर्मके नाश करने के वास्ने ध्यान करे और जो प्रतिज्ञाएं सूत्रमें वर्णन को गई है उनके विना ध्यानमें कायाको संचालन न करे । पुनः ध्यानका नियम यावत् काल नमो अरि हताण ऐसा पाठ न पढ़े तावत् काल ध्यान ही रक्खे। यह सर्व उक्त सूत्रमें आत्माकी त्रिशुद्धिके लिए ध्यानावेधि प्रतिपादिन की गई है अपितु ध्यानमें निम्न लिखित सूत्र पढे ॥ अथ मूल सूत्रम् ॥ लोगस्स उज्जोयगरे' धम्मतित्ययरे जिणे अरिदंते कित्तस्तं चउवीसंपि केवली ॥ १ ॥ उतभ म जियं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमई च पउमप्पदं सुपासं जिणं च चंदप्पदं वंदे ॥ २॥ सुविहिं च पुप्फदंत्तं सीयल सिज्जंस वासुपुजं च विमल मणतं च जिणं ૨ १ टाणं- शस्येत् ॥ टादेशेणेशसिचपरे अस्य एकारो भवति ॥ टाणवच्छेण-श-बच्छे - वृक्षान् । इसी प्रकार टोकस्य उद्योतकरान् ॥ सो आगे भी इस प्रकार जानना चाहिये || २ मेस्स || प्रा० पा० अ० ८ पा० ३ । सू० १६९ । धानो पो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्स वा प्रयोक्तव्यः ॥ किइस्स इत्यादि ॥

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