Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 21
________________ लादि (तेइंदिया) त्रिइंद्रिय जीव जैसे कुंयुवा, जूं , लीखादि (चउरिंदिया) चतुरिंद्रिय जीव जैसे मत्सरादि ( पचिंदिया) पंचेद्रिय जीव जेसकि-जलचर, स्थलचर, खेचर, सर्व जातिके पचेंद्रिय इत्यादि जीवोंकी विराधनाके कारण शास्त्र वर्णन करते हैं जैसे कि-(अभिहया) सन्मुख आते हुए जीव विना उपयोग पीड़ित हुए हों ( वत्तिया) रज उनोपरि आच्छादन हो गई हो (लेसिया ) भूमिकामें मसले गए हों ( संघटिया ) परस्पर सहित हुए हों ( परियाविया) परितापना उन जीवोंको हुई हो (किलामिया ) वा किलामना ( उद्दविया ) अथवा उपद्रव उन जीवोको किया हो वा (ठाणा उठाणं) एक स्थानसे ( संकामिआ) दूसरे स्थानोपरि सक्रमण किया हो वा (जीविआउ) जावकी जो आयु हे (ववरोविया) उससे व्यवरोपित हुए हों अर्थात् वह जीव मृत्यु हो गये हों (जो) जो (मे) मैने ( देवसि ) दिन सम्बन्धि (अइयार) अतिचार (कओ) किया है (तस्स) उस अतिचाररूप (मिच्छा मि दुक्कड) पापसे मै पछि हटता है। भावार्थ-उक्त सूत्रमें प्रथम तो सामायिक कर्ताका विनय धर्म सिद्ध किया है, फिर सामायिक करनेवाला जीव यह विचार करता है कि मैने जो सामायिक करनेके लिए गमनागमन किया है, यदि उक्त क्रिया करते हुए कोई भी जीव मेरे विना उपयोग दुखित हुआ हो या रक्षा करते २ मेरेसे मृत्युको प्राप्त हो गया हो और मैंने उसको किसी प्रकारकी पीड़ा दी हो तो मैं उस पापका पश्चात्ताप करता हू, क्योंकि मै पाप कर्मको मिथ्या रूप मानता हू ॥ सो श्रावक उक्त सूत्रको पढ़के फिर कायोत्सर्गकी शुद्धिके वास्ते निम्न लिखिन मूत्र पढ़े ॥ अय मूल सूत्रम् ॥ तस्स उत्तरी करणेणं पायच्छिन करणेणं विसोदि करणेणं विसल्ली करणेणं पावाणं कम्माणं दिग्घाय. णहाय ठामि काउलग्गं अन्नत्य उसस्सिएणं निस

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