Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Lala Munshiram Jiledar

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Page 16
________________ ॥ णमोत्थूर्ण समणस्स भगवतो महावीरस्सणं ॥ श्रावक प्रतिक्रमण | तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि नम॑सामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेंइयं पज्जुवासामि मत्यरण वंदामि ॥१॥ हिंदी पदार्थ - ( तिक्खुत्तो) तीन वार ( आयाहिणं) गुरु महारा-. जजीकी दक्षिण ओरसे लेकर ( पयाहिण) प्रदक्षिणा ( करेमि ) करता हूं ( वदामि ) स्तुति करता हू (नमसामि ) नमस्कार करता हूं (सक्कारेमि ) सत्कार देता हू (सम्माणेमि ) सन्मान देता हू । गुरुदेव कैसे है (कलां) कल्याणकारी (मंगल ) मगलकारी (देवयं ) धर्मदेव ( चेइय ) ज्ञानवत, यह चारो ही नाम गुरु महाराजके है, सो मै (पज्जुवासाभि ) ऐसे गुरु महाराजकी मन वचन काया करके सेवा करता हूं और ( मत्थएण ) मस्तक करके ( वदामि ) वदना करता हू ॥ भावार्थ -- उक्त सूत्रमें यह वर्णन है कि गुरु महाराजके दक्षिण पासेसे लेकर तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करे और गुरु महाराजको सन्मानादि भली प्रकार से देवे, मस्तक नमाकर वंदना करे, किन्तु ( तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं) यह दो सूत्र वदनाके विधि विधान कर्ता है, अपितु (करेमि ) जो कि संस्कृत भाषा में 'करोमि' शब्द उत्तम पुरुषका एक वचन है, वहांसे ही वदना करनेका मूल सूत्र जानना । और इस सूत्र के द्वारा गुरु 8 चिति सज्ञाने धातुसे तद्धितका व्य प्रत्यय लगकर चैत्य शब्द बनता है और प्राकृतमें चेइय ऐसे रूप होता है किन्तु चेइय शब्द द्वितीयाका एक वचन ही है ॥ 1

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