Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे
तथा च
मूलम् -नो सक्कियमिच्छेई नं पूर्य, णो विर्य वंदणेगं कुओ पससं । से संजय सुब्वैए तस्सी, सहिए आयगवेसए से भिक्खूं ॥५॥ छाया- - न सत्कृतमिच्छति न पूजां नापि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम् ? | स संयतः सुत्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः ||५|| टीका- 'नो सक्किय' इत्यादि ।
( यो मुनिः सत्कृतं = सत्कारम् - अभ्युत्थानादिरूपं न इच्छति = नाभिलपति, पूजां = वखपात्रादिप्राप्तिरूपां नापि च वन्दनकं चन्दनं वाञ्छति । यो मुनिरेताशोऽस्ति स प्रशंसां स्वगुणोत्कीर्त्तनरूपां कुतः कस्मात्कारणादिच्छेत् न कदा चिदपीच्छेदिति भावः । पूर्वोक्तरूपः सहितः = द्वितीयादिमुनिसहितः, यद्वा - सहितः = हितेन सह, सहित: - षट्कायरक्षापरायणः, आत्मगवेषकः = कर्मरजोऽपनयनात् 'नो सक्किय' इत्यादि ।
अन्वयार्थ - जो मुनि ( सक्कियं - सत्कृतम्) सत्कारको - अभ्युत्थानादिकरूप विशेष प्रतिपत्ति को (न इच्छई-न इच्छति ) नहीं चाहता है ( न पूयं - न पूजाम् ) न पूजा को वस्त्रपात्र आदि की प्राप्तिरूप प्रतिष्ठा को चाहता है ( णो वि वंदणगं - नापि वंदनकम् ) और न " लोग मुझे वंदना करे" इस प्रकार अपने विशेष सत्कार को ही चाहता है वह (पसंसं कुओ - प्रशंशाम् कुतः) अपने गुणोत्कीर्तनरूप प्रशंसा का अभिलाबी कैसे हो सकता है। नहीं हो सकता। ऐसा (से-सः) वह साधु सदा (सहिए - सहित) द्वितीयादि मुनियों के ही साथ रहता है अथवा बह ( सहिए - स-हित) हित सहित अर्थात् षट्काय के जीवों की रक्षारूप हित करने में परायण रहता है (आयगवेसए - आत्मगवेषकः) कर्मरज के
"नो सक्किय" धत्याहि.
अन्वयार्थ - मुनि सक्कियम् - सत्कृतम् सत्हारने - अभ्युत्थानाद्वि४३५ विशेष પ્રતિપત્તિને न इच्छइ - न इच्छति व्याहता नथी, न पूयम्-न पूजाम् न पूलने आाहे छे, न वस्त्रपात्र याहिनी प्राप्ति इस प्रतिष्ठाने याहे छे. णो वि वंदणगंनापि वंदनकम भ न तो बोओ भने बहन रे." या प्रमाणे पोताना विशेष सत्कारने या छे, ते पसंस कुओ-प्रसंशाम् कुतः पोतानी गुणगाननी प्रशंसाना अभिवाषी तो अर्ध रीते मनी राई ? नथी जनता मेवा से सः ते साधु सहा सहिए - सहितः मीन मुनियोनी साथै ४ रहे थे, अथवा ते षट्ायना भवानी २क्षा ३५ हित १२वामां पराय रहे छे. आयगवेसए - आत्मगवेषकः २ ना
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩