Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan
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तालाबों, पर्वतों, वनों, स्त्री-पुरुषों के क्रीड़ा करने के योग्य लतागृहों से युक्त बगीचों, फुलवाड़ियों और उद्यानों से सुशोभित थे। दक्षिण की ओर का अर्द्ध-भरत वैताढ्य पर्वत से विभक्त एवं लवणसमुद्र से घिरा हुआ तथा छह ऋतुओं के कार्यों से क्रमशः प्राप्त होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त थे।
वे धैर्यवान और कीर्तिमान पुरुष थे । उनमें प्रवाहरूप से निरन्तर बल पाया जाता था। वे अत्यन्त बलवान थे। दूसरों के बलों से वे कभी मात नहीं खाते थे । वे अपराजित माने जाने वाले शत्रुओं का भी मानमर्दन करने वाले और हजारों शत्रुओं का अभिमान चूर-चूर करने वाले थे। उनका स्वभाव दयालु, मात्सर्यरहित यानी परगुणग्राही, चंचलता से रहित था। वे अकारण क्रोध न करने वाले, परिमित और मृदुभाषी तथा मुस्कान के साथ गम्भीर और मधुर वचन बोलने वाले थे । वे पास आये हुए व्यक्ति के प्रति वत्सल थे तथा शरणागत को शरण देने वाले थे। सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए शरीर के उत्तमोत्तम लक्षणों (चिह्नों) और तिल मस्से आदि व्यंजनों से युक्त थे। उनके शरीर के समस्त अंग और उपांग मान एवं उन्मान प्रमाण से परिपूर्ण थे। उनकी मुखाकृति चन्द्रमा के समान सौम्य थी, वे देखने वालों को मनोरम और सुहावने लगते थे। वे अपराध को नहीं सह सकते थे अथवा कर्त्तव्य पालन में आलस्य नहीं करते थे।
वे अपनी प्रचण्ड या प्रकाण्ड दण्डशक्ति का प्रसार-प्रचार करने में बड़े गम्भीर दिखाई देते थे । बलदेव की ध्वजा पर ताड़ वृक्ष का चिह्न तथा कृष्ण की ऊँची फहराती हुई ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न अंकित था। उन्होंने घमण्ड से गर्जते हुए अत्यन्त बलशाली मौष्टिक और चाणूर नामक मल्लों का दर्प चूर कर दिया था। रिष्ट नामक दुष्ट बैल का भी दमन कर दिया था । वे सिंह के मुँह में हाथ डालकर उसे चीर डालने में समर्थ थे। उन्होंने गर्वोद्धत भयंकर कालीयनाग के अभिमान को नष्ट कर दिया था और विक्रिया से वृक्षरूपधारी यमलार्जुन को खण्डित कर दिया था। वे कंस पक्ष की महाशकुनी और पूतना नाम की दो विद्याधरियों के शत्रु थे। उन्होंने कंस का मुकुट मोड़ा था, यानी मुकुट पकड़कर उसको नीचे पटका और मारा था। उन्होंने जरासन्ध के मान का मर्दन कर दिया था।
वे ऐसे छत्रों से सुशोभित रहते थे, जो सघन, समान तथा ऊँची की गई सलाइयों, ताड़ियों से बनाये गये थे और चन्द्रमण्डल के समान प्रभा वाले थे । वे सूर्य किरण के प्रभामण्डल की तरह अपने चारों ओर तेज को बिखेरते थे । विशाल होने के कारण उनमें अनेक दण्ड लगे हुए थे।
इसी तरह अत्यन्त श्रेष्ठ पहाड़ों की गुफाओं में घूमने वाली नीरोगी चमरी गायों की पूँछ के निर्मल श्वेतकमल, उज्ज्वल रजतगिरि के शिखर एवं निर्मल चन्द्रमा की किरणों के समान शुभ्र, चाँदी के समान स्वच्छ तथा हवाओं से चंचल हिलते और लीलापूर्वक नाचते हुए एवं थिरकती हुई लहरों वाले क्षीरसमुद्र के जलप्रवाह के समान चंचल, मान सरोवर के विस्तार में परिचित आवास वाली और श्वेत रूप वाली, स्वर्णगिरि पर बैठी हुई तथा ऊपर-नीचे गमन करने में दूसरी चंचल वस्तुओं को मात करने जैसे शीघ्र वेग वाली हंसनियों के समान श्वेत चँवरों से वे युक्त थे। उन चँवरों के डण्डे (मुठें) नाना प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों से जटित होते हैं, कई लाल रंग के तपे हुए, महामूल्यवान् सोने के बने हुए तथा कई पीले सोने के होते हैं। वे (चँवर) सौन्दर्य से परिपूर्ण और राजलक्ष्मी के अभ्युदय को प्रगट करने वाले हैं, वे कुशल कारीगरों द्वारा बनाये जाते हैं । समृद्धिशाली राजवंशों में उन (चँवरों) का उपयोग किया जाता है। काला अगर, उत्तम चीड़ की लकड़ी और तुरुक्क नामक सुगन्धित द्रव्य की धूप श्रु. १, चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्म आश्रव
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(195) Sh.1, Fourth Chapter: Non-Celibacy Aasrava
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