Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 320
________________ 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ) ) i ) ) )) )) ) )) ) ) ) )) Here one should further understand that simultaneously with the 4 stopping of inflow of water in the boat one has to remove the water that has already entered the boat. So it is essential to destroy the already collected Karma through Nirjara. But that is the subject of nirjara and not of Samvar (stoppage of inflow). Here only Samvar is being discussed. The word anupuvviye in the first verse indicates that the gateways of Samvar shall be discussed in their respective order and that order has been classified in the second verse. First gateway of Samvar is nonviolence, second is truth, third is what is given (to discard stealing), fourth is chastity and fifth is non-attachment. In this order the first place is of non-violence because non-violence is the primary vow. The 4 other four vows namely truth and others are to assist it in its practice. The commentator has also said. All the Tirthankars have laid stress on the vow of avoiding violence to life force. The other four vows are for its yi support. By calling Ahimsa (non-violence) as thavar-savrabhiya khemakari its unique importance has been depicted. Ahimsa is meritorious for all the living beings. It incorporates the protection and welfare of all. 卐 संवरद्वारों की महिमा IMPORTANCE OF SAMVAR १०६. ताणि उ इमाणि सुब्बय ! महव्वयाई लोयहियसव्वयाइं सुयसागर-देसियाइं तवसंजममहब्बयाई ॐ सीलगुणवरब्बयाई सच्चज्जवब्बयाई णरय-तिरिय-मणुय-देवगइ-विवज्जगाइं सवजिणसासणगाई कम्मरयविदारगाइं भवसयविणासगाई दुहसयविमोयणगाइं सुहसयपवत्तणगाइं कापुरिसदुरुत्तराई सप्पुरिसणिसेवियाई णिव्वाणगमणसग्गप्पयाणगाइं संवरदाराइं पंच कहियाणि उ भगवया। १०६. श्री सुधर्मा स्वामी अपने अन्तेवासी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे सुव्रत ! हे उत्तम व्रतों के मधारक और पालक जम्बू ! पहले जिन नामों का उल्लेख किया जा चुका है ऐसे ये अहिंसादि पाँच महाव्रत समस्त लोक के लिए हितकारी हैं या लोक का सर्वहित करने वाले हैं। श्रुतरूपी सागर में इनका + वर्णन किया गया है। ये तप और संयमरूप व्रत हैं या इनमें तप एवं संयम का कभी क्षय नहीं होता है। इन महाव्रतों में शील और उत्तम गुणों का समूह सन्निहित है। सत्य और ऋजुता-सरलता-निष्कपटता ॐ इनमें मुख्य है। ये महाव्रत नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति में परिभ्रमण करने से रक्षा + करने वाले हैं, अर्थात् मुक्ति को देने वाले हैं। समस्त तीर्थंकरों ने इनका उपदेश दिया है। ये कर्मरूपी रज का क्षय करने वाले हैं। सैकड़ों भवों-जन्म-मरणों का अन्त करने वाले हैं। सैकड़ों दुःखों से छुटकारा 卐 दिलाकर सैकड़ों सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं। कायर पुरुषों के लिये इन महाव्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करना दुष्कर है। सत्पुरुषों के द्वारा सेवित है, अर्थात् धीर-वीर पुरुषों ने इनका सेवन किया है )) ) )) )) ) )) ) )) ) )) ) )) ) ) |श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (250) Shri Prashna Vyakaran Sutra ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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