Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 463
________________ ))))))))))))) )))))) ))))))) )5555555 4 Here it is essential to clarify one thing. Agams have been written $i keeping in mind the importance of the man. So it is laid down that the person who practices chastity, he should avoid contact with women, talk about women, staring at women and looking at her limbs. It should be understood that the woman practitioner of chastity should avoid contact with men, talk about men and the like. Both the male and female practitioners of the vow should avoid seeing activities of eunuch. 卐 उपसंहार CONCLUSION १५३. एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं जमण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं। णिच्चं आमरणंतं च एसो जोगो णेयवो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सब्वजिणमणुण्णाओ। एवं चउत्थं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ। एवं अ णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। त्ति बेमि॥ ॥ चउत्थं संवरदारं समत्तं॥ १५३. इस प्रकार ब्रह्मचर्यव्रतरूप यह संवरद्वार सम्यक् प्रकार से संवृत और सुरक्षित-पालित होता है। मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से परिरक्षित इन (पूर्वोक्त) पाँच भावनारूप कारणों से सदैव, आजीवन यह योग धैर्यवान् और मतिमान् मुनि को पालन करना चाहिए। यह संवरद्वार आस्रव से रहित है, मलिनता से रहित है और भावछिद्रों से रहित है। इससे कर्मों का आस्रव नहीं होता। यह संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। इस प्रकार यह चौथा संवरद्वार स्पृष्ट-विधिपूर्वक अंगीकृत, पालित, शोधित-अतिचार-त्याग से निर्दोष किया गया, पार-किनारे तक पहुँचाया हुआ, कीर्तित-दूसरों को उपदिष्ट किया गया, आराधित म और तीर्थंकर भगवान की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है, ऐसा ज्ञात वंश में उत्पन्न मुनि भगवान (महावीर) ने कहा है, युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध-जगद्विख्यात है, प्रमाणों से सिद्ध है। यह ॐ भवस्थित सिद्धों-अर्हन्त भगवानों का शासन है। सुर, नर आदि की परिषद् में उपदिष्ट किया गया है और मंगलकारी है। जैसा मैंने भगवान से सुना, वैसा ही मैं (सुधर्मा स्वामी) कहता हूँ। ॥ चतुर्थ संवरद्वार समाप्त॥ विवेचन : इस प्रकार मन-वचन-काया को परिरक्षित करने पर यह चौथा ब्रह्मचर्य रूप संवरद्वार सम्यक् प्रकार से सुरक्षित हो जाता है और धैर्यवान विवेकवान साधक जब इसकी पांचों भावनाओं का निरन्तर प्रयोग करता रहता है तो ब्रह्मचर्य उसके मूल संस्कारों में जम जाता है। इस प्रकार सुगम्य | व्याख्या सहित यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य संवरद्वार पूर्ण होता है। ))))))))))) 卐555555555555))))))))))))))))))))))))))) )))))))))) 卐))) श्रु.२, चतुर्थ अध्ययन : ब्रह्मचर्य संवर (375) Sh.2, Fourth Chapter : Chastity Samvar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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