Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 498
________________ फफफफफफ 卐 फ्र and the body. He practices complete control (gupti) in respect of mental, vocal and physical activities. He subdues the senses that have any worldly attraction towards the activities of their field. He practices all the restrictions concerning vow of Chastity (brahmcharya). He is detached from all worldly contacts. He is as straight-forward as a string. He practices austerities. He is forgiving as he is benevolent. He has control over his senses. He is famous for his good qualities. He is free from any desire of worldly benefits for his activities. He does not allow his heart to go beyond the circles of ascetic restraint. He is free from all worldly attachments. He is completely without any money. He has shattered all the worldly bondages. He is free from all covering of Karmas. विवेचन : इस सूत्र पाठ में शास्त्रकार ने अपरिग्रही साधु के आन्तरिक जीवन की परिभाषा दी है ताकि एक आम आदमी भी अपरिग्रही साधक को पहचान सके । साधु के समग्र आचार को यहाँ सार के रूप में समाविष्ट कर दिया गया है। साधु के जीवन का अत्यन्त सुन्दर और भव्य चित्र प्रस्तुत किया गया है। कुछ विशिष्ट पदों का तात्पर्य इस प्रकार है 卐 खंतिखमे - साधु अनिष्ट प्रसंगों को, वध - बन्धन आदि उपसर्गों या परीषहों को सहन करता है, किन्तु असमर्थता अथवा विवशता के कारण नहीं। उसमें क्षमा की वृत्ति इतनी प्रबल होती है अर्थात् ऐसी सहनशीलता होती है कि वह प्रतीकार करने में पूर्णरूपेण समर्थ होकर भी अनिष्ट प्रसंगों विशिष्ट कर्मनिर्जरा के हेतु सह लेता है। छिण्णगंथे- मन में पड़ी हुई ममत्व की गांठ को छिन्न भिन्न करने वाला अथवा अनन्तानुबन्धी कषाय की गांठ को नष्ट करने वाला। 'छिन्नगंधे' के स्थान पर टीकाकार ने 'छिन्नसोए ' पाठान्तर का उल्लेख किया है। इसका 15 अर्थ छिन्नशोक अर्थात् शोक को छेदन कर देने वाला - किसी भी स्थिति में शोक का अनुभव न करने वाला 5 छिन्नश्रोत अर्थात् स्रोतों को स्थगित कर देने वाला है। जो संसार में भटकाने वाले आश्रवश्रोत नष्ट कर अथवा चुका है। निरुपलेप - का आशय है - कर्मलेप से रहित । किन्तु मुनि कर्मलेप से रहित नहीं होते। सिद्ध भगवान ही कर्मलेप से रहित होते हैं। ऐसी स्थिति में यहाँ मुनि के लिए 'निरुपलेप' विशेषण का प्रयोग किस अभिप्राय से 5 किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर टीका में दिया गया है - ' भाविनि भूतवदुपचारमाश्रित्योच्यते' अर्थात् ऐसा साधक फ्र भविष्य में कर्मलेप से रहित होगा ही, अतएव भावी अर्थ में भूतकाल का उपचार करके इस विशेषण का प्रयोग 5 किया गया है। Elaboration—In the present lesson, a beautiful picture has been drawn of the inner life of a monk, so that even a common man may recognize a detached aspirant. In brief the entire ascetic conduct has been narrated. Most of the words in aphorism are easy to understand. 5 श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55 Jain Education International (410) ***** 5 5 5 Shri Prashna Vyakaran Sutra For Private & Personal Use Only 5 फ्र 卐 卐 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 595555 55 ~ www.jainelibrary.org

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