Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan
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(३) घ्राणेन्द्रियसंवर भावना - अपरिग्रही साधक जब अपने नित्यकृत्य में प्रवृत्त होता है तो कई मनोज्ञ भोज्य क पदार्थों या कई अन्य सुगंधपूर्ण पदार्थों की सुगन्ध उसके नाक से आकर टकराती है, उस समय उन भीनी-भीनी मधुर मनोमोहक सुगन्धों को पाकर यदि वह असावधान होकर उन पर रागभाव लाता तो यहीं साधक अन्तरंग परिग्रह के जाल में फंस जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ विशेष मनोज्ञ गंधों के नाम गिनाकर अन्त में उन्हीं की किस्म के विभिन्न सुगन्धों के घ्राणगोचर होने पर अपने मन को नियत्रंण में रखने का निर्देश दिया है। वैसे ही साधक जब इन सुगन्धों से ठीक विपरीत मन को बुरे लगने वाले अमनोज्ञ दुर्गन्धों का नाक से स्पर्श होने पर क्रोध से तिलमिला उठता है, भर्त्सना करता है या घृणा करता है तो वह अन्तरंग परिग्रह की चपेट में 5
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आकर द्वेषरूपी दुश्मन से दब जाता है। शास्त्रकार ने कुछ अमनोज्ञ गन्धों के नाम बताकर अन्त में यह निर्देश 5 दिया है कि इनके सम्पर्क में आने पर भी साधक को समभाव में स्थिर रहना चाहिये ।
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(४) रसनेन्द्रियसंवर भावना - परिग्रह से सर्वथा मुक्त होने वाला साधक जब भिक्षाचर्या में प्रवृत्त होता है तो 5 उसकी जीभ के सामने कई स्वादिष्ट मनोज्ञ रसीली चीजें या रस आते हैं अथवा उसे भिक्षा में भी कई मनोज्ञ
और जो अमनोज्ञ अशुभ रस हैं, उनका जीभ से स्पर्श होने पर यदि साधक रोष से तिलमिला उठता है,
चीजें प्राप्त होती हैं, वह उनका आस्वादन करने में प्रवृत्त होता है; यदि उस समय वह मनोज्ञ स्वादिष्ट रसयुक्त फ पदार्थों को देखकर मन में आसक्ति लाता है, तो वह विविध मनोज्ञ रसों के मोहक जाल में फँसकर अपनी आत्मा को पतन के गहरे गड्ढे में गिरा देता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ विशेष मनोज्ञ रसों या रसयुक्त पदार्थों के नाम गिनाकर अन्त में उन्हीं की किस्म के विभिन्न रसों या पदार्थों के रसनेन्द्रियगोचर होने पर अपनी रसनेन्द्रिय पर नियंत्रण रखने का संकेत दिया है।
वह साधक अन्तरंग परिग्रह की चपेट में आकर द्वेष भाव से पराजित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार साधक
को सूचित करते हैं कि वह अमनोज्ञ रसों या रसयुक्त पदार्थों से जिह्वेन्द्रिय का स्पर्श होने पर क्रोध से तमतमाए नहीं, अपना मन अनियंत्रित न कर बैठें। यानी शास्त्रकार अशुभ पदार्थों के प्रति रोष करने, द्वेष करने, चिढ़ने या घृणा करने, ठुकराने या छेदन-भेदन करने आदि से आत्मा को बचाने का निर्देश करते हैं।
अपरिग्रही साधक जिह्वेन्द्रिय के साथ नीरस, रुक्ष, अमनोज्ञ पदार्थों का सम्पर्क होने पर यही सोचे कि ये सब वस्तुएँ या रस नाशवान हैं, स्वादिष्ट पदार्थ भी पेट में जाकर तो विकृत बन ही जाते हैं। फिर इन विकृत पदार्थों से मुझे क्यों घबराना चाहिए ?
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अशुभ अमनोज्ञ स्पर्शो के शरीर से स्पर्श होने पर जो साधक रोष से भर उठता है तो समझना चाहिये कि निर्बल मन पर द्वेषरूपी शत्रु ने घेरा डाल दिया है। इसीलिए शास्त्रकार साधक को समझाते हैं कि अमनोज्ञ स्पर्शो या स्पर्शयुक्त पदार्थों का संयोग मिलने पर क्रोधित न हो ।
श्रु.२, पंचम अध्ययन : परिग्रहत्याग संवर
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(५) स्पर्शनेन्द्रियसंवर भावना - अपनी दिनचर्या में प्रवृत्त होते समय प्रतिदिन साधक की त्वचा से ठंडे, गर्म, फ्र हलके, भारी, खुर्दरे, कोमल, रुक्ष और स्निग्ध अनेक पदार्थों का स्पर्श होता है। उन रुचिकर मनोज्ञ पदार्थों का स्पर्श पाकर यदि साधु आसक्ति करता है, मोह करता है तो वह उन विविध अनुकूल स्पर्शो के मोहक जाल में फंसकर अपने आपको पतन की खाई में धकेल देता है। इसीलिए शास्त्रकार कुछ विशेष स्पर्शों का उल्लेख करके अन्त में उन्हीं के जैसे विभिन्न मनोमोहक स्पर्शो या स्पर्शयोग्य पदार्थों के स्पर्शनेन्द्रियगोचर होने पर आत्म नियंत्रण व सुसयंमित रहने की बात कहते हैं।
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Sh. 2, Fifth Chapter: Discar... Samvar
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