Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 490
________________ 25 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 - 卐 卐 卐 卐 卐 卐 卐 फ्र श्रमणार्थ - श्रमण पाँच प्रकार के माने गये हैं- (१) निर्ग्रथ, (२) बौद्धमतानुयायी, (३) तापस-तपस्या की विशेषता वाले, (४) गेरुक-गेरुआ वस्त्र धारण करने वाले, और (५) आजीविक - गोशालक के अनुयायी । इन पांचों प्रकार के श्रमणों के लिए बनाया गया आहार श्रमणार्थ कहलाता है। वनीपकार्थ - याचक भिखारियों के अर्थ बनाया गया। टीकाकार ने वनीपक का पर्यायवाची शब्द 'तर्कुक' लिखा है। पश्चात्कर्म - दान के पश्चात् सचित्त पानी से बर्तन धोना आदि सावद्य क्रिया वाला आहार । पुरः कर्म - दान से पूर्व सचित्त पानी से हाथ धोना आदि सावध कर्म वाला आहार । नित्यकर्म - प्रतिदिन एक ही घर से लिया जाने वाला आहार । प्रक्षित- सचित्त जल आदि से लिप्त हाथ अथवा पात्र से दिया जाने वाला आहार । अतिरिक्त प्रमाण से अधिक आहार । मौखर्य - वाचालता-अधिक बोलकर प्राप्त किया जाने वाला। स्वयंग्राह- दाता के अभाव में स्वयं अपने हाथ से लिया जाने वाला। आहत - अपने गाँव या घर से साधु के समक्ष लाया गया। मृत्तिकालिप्त - मिट्टी, गोबर आदि से लिप्त हाथ से दिया आहार । आच्छेद्य-निर्बल से जबरदस्ती छीनकर दिया जाने वाला। अनिसृष्ट-दाता का अपने अधिकार का नहीं। अनेकों के स्वामित्व की वस्तु उन सबकी अनुमति के बिना दी जाये । उपरोक्त आहार सम्बन्धी दोषों में से अनेक दोष उद्गम - उत्पादना सम्बन्धी दोषों में गर्भित हैं । तथापि स्पष्टता के लिए यहाँ उनका भी निर्देश कर दिया गया है। पूर्वोक्त दोषों में से किसी भी दोष से युक्त आहार सुविहित साधुओं के लिए निषिद्ध है। अधिक Elaboration-In the earlier aphorism, it was mentioned that a monk should not store the food because storage represents attachment for possessions. It is against the vow of non-attachment. In the present y aphorism it has been established that even if the food being accepted by the monk is not for storage and it is for his immediate consumption, it is prohibited if it has any one of the faults mentioned in this aphorism. The meanings of each fault has bean clarified side by side. कल्पनीय भिक्षा ACCEPTABLE OFFERING १५९. [ प्र. ] अह केरिसयं पुणाइ कप्पइ ? [उ.] जं तं एक्कारस- पिंडवायसुद्धं किणण- हणण- पयण श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (402) Jain Education International -कयकारियाणुमोयण- णवकोडीहिं 5555 For Private & Personal Use Only Shri Prashna Vyakaran Sutra Y 4 4 ***** www.jainelibrary.org

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