Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 364
________________ 5555555555555555555555555555555555558 17. Fifth sentiment of the major vow of non-violence is equanimity in E keeping and picking of things. Its nature is as follow : The items of use in ascetic life are small seat, small table, board, 4 bedding of hay, cloth to sit, cloth to wear, pots, blanket, wooden rod, ki broom, cloth to cover the body, mukhvastrika (cloth at the mouth) piece of cloth for cleaning the feet and other suchlike articles used to save 5 oneself from wind, sun, mosquito bite and cold. He should accept them 4 only for advancement in ascetic life and not for outward grandeur. A monk should always be vigilant in inspecting these articles, in spreading them, in cleaning them during the day and at night. He should place his articles carefully and pick them up in a very careful manner Thus a monk who practices equanimity in keeping them and in y picking them up, his inner self remains free from pollution, or si disturbance. He has the sentiment of practicing faultless ascetic conduct. He is non-violent and strict in ascetic discipline. He is the true monk. 4. Only such a monk can be fully non-violent. विवेचन : पूर्वोक्त पाठ में अहिंसा महाव्रत के परिपूर्ण पालन के लिए आवश्यक पाँच भावनाओं के स्वरूप 卐 • का दिग्दर्शन कराया गया है और यह स्पष्ट किया है कि इन भावनाओं के अनुसार आचरण करने वाला ही पूर्ण अहिंसक हो सकता है, वही सुसाधु कहलाने योग्य है, वही चारित्र को निर्मल-निरतिचार रूप से पालन कर सकता है। अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ पाँच समितियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम ईर्यासमिति भावना- साधु को अनेक प्रयोजनों से गमनागमन करना पड़ता है। किन्तु उसका गमनागमन विशिष्ट विधि के अनुसार होना चाहिए। गमन करते समय उसे अपने महाव्रत को ध्यान में रखना चाहिए और पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक स्थावर जीवों को तथा कीड़े-मकोड़े आदि छोटे-मोटे त्रस जीवों को किंचित् मात्र भी आघात न लगे, उनकी विराधना न हो जाये, इसके ओर सतत सावधान रहना चाहिए। उसके सामने यह सिद्धान्त स्पष्ट होना चाहिये कि “मैं विश्व में प्राणिमात्र की रक्षा और दया के लिये साधु बना हूँ।" उसे छोटे-बड़े सभी प्राणियों के प्रति दया परायण रहना चाहिये। साधु फ़ को वार्तालाप में चित्त न लगाते हुए गन्तव्य मार्ग पर ही दृष्टि रखनी चाहिए। आगे की साढ़े तीन हाथ प्रमाण भूमि को देखते हुए एकाग्र भाव से चलना चाहिए। इस प्रकार का चिन्तन और प्रयोग इस भावना के साथ होना, ॐ चाहिये। दूसरी मनःसमिति भावना- अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करने के लिए मन में उठने वाले बुरे विचार या 9 भावों से सदा बचते रहना चाहिए। मन आत्मा का सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली साधन है। वह कर्मबन्ध का ऊ और कर्मनिर्जरा का भी प्रधान हेतु है। उस पर नियन्त्रण रखने के लिए सतत् जागरूक रहने की आवश्यकता %%%%%%%%%%%%%%%%%%%步步步步步步步步步步男%% )))))49559 卐5)))))))) %%%%%%%%%%%% श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (290) Shri Prashna Vyakaran Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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