Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan
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विवेचन : शास्त्रकार ने अब्रह्मचर्य के विविध स्थानों से साधक की आत्मा को बचाने तथा ब्रह्मचर्य पालन के + संस्कारों को हृदय में जमाने हेतु ये पांच भावनायें बताई हैं
१. विविक्तशयनासन, २. स्त्रीकथा का परित्याग, ३. स्त्रियों के रूपादि को देखने का परिवर्जन, ४. पूर्वकाल में भुक्त भोगों के स्मरण से विरति, ५. सरस बलवर्द्धक आदि आहार का त्याग।
१. विविक्तशयनासन भावना : सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य के विघातक तत्वों पर रोक लगाई गई है अर्थात् ब्रह्मचारी को ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए जहाँ नारी जाति का सामीप्य हो-संसर्ग हो. जहाँ स्त्रियाँ उठती-बैठती हों.
बातें करती हों, और जहाँ वेश्याओं का सान्निध्य हो। ऐसे स्थान पर रहने से ब्रह्मचर्यव्रत के भंग का खतरा ॐ रहता है, क्योंकि ऐसा स्थान चित्त में चंचलता उत्पन्न करने वाला है। यही इस भावना का प्रयोग है।
२. स्त्रीकथा का परित्याग : इस भावना स्त्रीकथा विरति समिति का प्रयोग है। इसका अभिप्राय यह है कि * ब्रह्मचर्य के साधक को स्त्रियों के बीच बैठकर वार्तालाप करने से बचना चाहिए। यही नहीं, स्त्रियों सम्बन्धी 卐 कामुक चेष्टाओं का, विलास, हास्य आदि का, स्त्रियों की वेशभूषा आदि का, उनके रूप-सौन्दर्य, जाति, कुल,
भेद-प्रभेद का तथा विवाह आदि का वर्णन करने से भी बचना चाहिए। ऐसी बातें कामवर्द्धक एवं तप-संयम
ब्रह्मचर्य विघातक होती हैं। दूसरा कोई इस प्रकार की बातें करता हो तो उन्हें सुनना नहीं चाहिए और न ही ऐसे ॐ विषयों का मन में चिन्तन करना चाहिए। यही इस भावना का प्रयोग है, जो साधक को ब्रह्मचर्यनिष्ठ एवं इन्द्रिय ! 卐 विजेता बना देता है।
३. स्त्रियों के रूपादि को देखने का परिवर्जन : तीसरी भावना का सम्बन्ध चक्षुरिन्द्रिय के साथ है। जो दृश्य । 卐 काम-राग को बढ़ाने वाला हों, मोहजनक हों, आसक्ति जागृत करने वाला हों, ब्रह्मचारी उससे बचता रहे। !
स्त्रियों के हास्य, बोल-चाल, विलास, क्रीड़ा, नृत्य, शरीर, आकृति, रूप-रंग, हाथ-पैर, नयन, लावण्य, यौवन __ आदि पर तथा उनके स्तन, गुप्त अंग, वस्त्र, अलंकार एवं टीकी आदि भूषणों पर ब्रह्मचारी को दृष्टिपात नहीं ऊ करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जो दृश्य तप, संयम और ब्रह्मचर्य को अंशतः अथवा पूर्णतः विघात करने
वाले हों, उनसे ब्रह्मचारी को सदैव बचते रहना चाहिए। इस प्रकार की भावना के चिन्तन और प्रयोग से साधु : के अन्तःकरण में ब्रह्मचर्य के संस्कार सुदृढ़ हो जाते हैं।
४. पूर्वकाल में भुक्त भोगों के स्मरण से विरति : चौथी भावना में पूर्व काल में अर्थात् गृहस्थावस्था में भोगे हुए । भोगों के चिन्तन न करने की प्रेरणा की गई है। बहुत से साधक ऐसे होते हैं जो गृहस्थदशा में दाम्पत्य जीवन यापन करने के पश्चात् मुनिव्रत अंगीकार करते हैं। उनके मस्तिष्क में गृहस्थ जीवन की घटनाओं के संस्कार या स्मरण संचित होते हैं। वे संस्कार यदि निमित्त पाकर उभर उठे तो चित्त को विभ्रान्त कर देते हैं, चित्त को विकृत बना देते हैं और कभी-कभी मुनि अपने कल्पना-लोक में उसी पूर्वावस्था में पहुँचा हुआ अनुभव करने
लगता है। वह अपनी वर्तमान स्थिति को कुछ समय के लिए भूल जाता है। यह स्थिति उसके तप, संयम एवं ॐ ब्रह्मचर्य का विघात करने वाली होती है। अतएव ब्रह्मचारी पुरुष को ऐसे प्रसंगों से निरन्तर बचना चाहिए, 卐 जिनसे कामवासना को जागृत होने का अवसर मिले।
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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
(372)
Shri Prashna Vyakaran Sutra
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