Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 396
________________ 89595555555555555555555555555555 तृतीय अध्ययन : दत्तानुज्ञात THIRD CHAPTER : TO GET WITH PERMISSION EEEEEEE IE IFirir" 5555555F 55听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 द्वितीय संवरद्वार के विविध पहलुओं का भलीभांति निरूपण करने के पश्चात् अचौर्य नामक तृतीय संवरद्वार का विवेचन प्रस्तुत है। सत्य के पश्चात् अचौर्य के विवेचन के टीकाकार ने दो कारण बतलाये । हैं-प्रथम यह कि सूत्रक्रम के अनुसार अब अस्तेय का निरूपण ही संगत है, दूसरा असत्य का त्यागी । वही हो सकता है जो अदत्तादान का त्यागी हो। अदत्तादान करने वाले सत्य का निर्वाह नहीं कर सकते। अतएव सत्यसंवर के अनन्तर अस्तेयसंवर का निरूपण करना उचित है। सर्वप्रथम अस्तेय का स्वरूप । बताया गया है। ___After discussing the second gateway of Samvar, non-stealing, the third gateway, is described here. The commentator has given two reasons for stating non-stealing after truth. The first reason is that according to the order in text non-stealing is discussed at this stage. The second reason is that only that person can discard falsehood who discards nonstealing. One who is engaged himself in stealing, he cannot follow truth. So it is appropriate to discuss non-stealing after discussing truth. First of all stealing has been defined. म अस्तेय का स्वरूप NATURE OF NON-STEALING १२९. जंबू ! दत्तमणुण्णाय-संवरो णाम होई तइयं सुब्बया ! महव्वयं गुणव्वयं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तंअपरिमियमणंततण्हाणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाणसुणिग्गहियं सुसंजमिय-मण-हत्थ-पायणिहुयं णिग्गंथं णिट्ठियं णिरुत्तं णिरासवं णिभयं विमुत्तं उत्तमणरवसभपवरवलवगसुविहियजणसम्मतं परमसाहुधम्मचरणं। १२९. हे उत्तम व्रतों के धारक जम्बू ! तीसरा 'दत्तानुज्ञात' नामक संवरद्वार है। यह महान् व्रत है म तथा यह गुणव्रत- इहलोक-परलोक सम्बन्धी उपकारों का कारणभूत भी है। यह पराये द्रव्य-पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, अर्थात् इस व्रत में परायी वस्तुओं के अपहरण का त्याग किया जाता है। यह व्रत अपरिमित-असीम, अनन्त तृष्णा से युक्त महा-अभिलाषा वाला मन एवं वचन द्वारा 卐 पापमय परद्रव्य हरण का भलीभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन इतना संयमशील बन जाता है कि परधन को ग्रहण करने में प्रवृत्त हुए हाथ और पैर रुक कर निश्चल हो जाते हैं, यह बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की ग्रन्थियों से रहित है, सब धर्मों की पराकाष्ठा तक पहुंचा हुआ है। सर्वज्ञ भगवन्तों ने इसे उपादेय कहा है। यह आस्रव का निरोध करने वाला है। निर्भय है-इसका पालन करने वाले को राजा या शासन आदि का भय नहीं रहता और लोभ उसका स्पर्श भी नहीं करता। यह प्रधान ॐ बलशालियों तथा शास्त्रोक्त विधि से आचरण करने वाले साधुजनों द्वारा सम्मत है, श्रेष्ठ साधुओं का 卐 धर्माचरण है। 卐))))))))))))))))))))))))))))) श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (320) Shri Prashna Vyakaran Sutra 89595555555555555555555558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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