Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Varunmuni, Sanjay Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 289
________________ ததததததததததததததததததததததததததததததததி ऐसा यह परिग्रह (रूप वृक्ष) राजा-महाराजाओं द्वारा भलीभाँति आदर पाया हुआ है, अनेक लोगों को अत्यन्त प्यारा लगता है और मोक्ष के निर्लोभता रूप मार्ग के लिए यह अर्गला के समान है। अर्थात् परिग्रह मुक्ति का बाधक है। ऐसा यह अन्तिम आस्रव परिग्रह रूप अधर्मद्वार है। 93. [2] The wants and desires are unlimited. There is no end to them. They are the root of such a tree which provides bad fruit. Its great trunk is greed, quarrel, passions and the like. Its continuously spreading branches are worries of hundreds of types and mental anxiety. Its stalks at the tips of large branches are prosperity, pleasure and worldly enjoyment. Its bark, leaves and flowers are deceit that cheats others, ego and crookedness. The amorous worldly enjoyments are its flowers and fruit. Its upper trembling part is the physical effort, the mental distress and quarrelsome attitude. Such a tree of attachment (parigraha) is treated with honour by great rulers and kings. Many people love it very much. It is like a hinderance (a speed breaker) in the path of selflessness that leads to liberation (moksha). In fact attachment is an obstacle to salvation. Such is parigraha, the last asrava (inflow of Karma ). विवेचन : अब्रह्म के साथ परिग्रह का सम्बन्ध बतलाते हुए श्री अभयदेव सूरि ने टीका में लिखा है- परिग्रह के होने पर ही अब्रह्म आस्रव होता है, अतएव अब्रह्म के अनन्तर परिग्रह का निरूपण किया जाना आवश्यक है । सूत्र का आशय सुगम है । सारांश इतना ही है कि नाना प्रकार की मणियों, रत्नों, स्वर्ण आदि मूल्यवान् अचेतन वस्तुओं का, हाथी, अश्व, दास-दासियों, नौकर-चाकरों आदि का रथ - पालकी आदि सवारियों का, नग (पर्वत) नगर आदि से युक्त समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण भरत क्षेत्र का, यहाँ तक कि सम्पूर्ण पृथ्वी के अखण्ड साम्राज्य का उपभोग कर लेने पर भी मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती है। 'जहा लाहो तहा लोहो' ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ अधिकाधिक बढ़ता जाता है। अतएव परिग्रह की वृद्धि करके जो सन्तोष प्राप्त करना चाहते हैं, वे आग में घी होमकर उसे बुझाने का प्रयत्न करना चाहते हैं । लोभ को शान्त करने का एक मात्र उपाय है शौच-निर्लोभता - मुक्ति धर्म का आचरण । परिग्रह का अर्थ है, किसी वस्तु के प्रति ममत्वभाव । आगम में कहा है-मुच्छा परिग्गहो बुत्तो - मूर्च्छा परिग्रह है । परिग्रह के दो भेद हैं- अन्तरंग परिग्रह तथा बाह्य परिग्रह । अथवा भाव परिग्रह और द्रव्य परिग्रह । अन्तरंग परिग्रह १४ प्रकार का है १. मिथ्यात्व ५. मान २. राग ६. माया श्रु. १, पंचम अध्ययन: परिग्रह आश्रव Jain Education International (225) ३. द्वेष ७. लोभ ४. क्रोध ८. हास्य Sh. 1, Fifth Chapter: Attachment Aasrava 65 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 59 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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