Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्राप्ति दार्शनिक चिन्तन का लक्ष्य है। भारत के सभी दर्शनों में इसके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और अपनी पद्धति से प्रत्येक ने उसकी व्याख्या की है।
भारतीय-दर्शनों में जिन तथ्यों का निरूपण किया गया है उन सबका जीवन के साथ निकट का सम्बन्ध रहा है। भारतीय दार्शनिकों ने मानव जीवन के समक्ष ऊँचे से ऊँचे आदर्श प्रस्तुत किये हैं। वे आदर्श केवल आदर्श ही नहीं रहते, उन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न भी किया जाता है। इसके लिए विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार की साधनाओं का भी प्रतिपादन किया है। ये साधन तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञान-योग, कर्म-योग और भक्ति-योग । जैनदर्शन में इन्हीं को रत्न-त्रय-सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र कहा जाता है। बौद्ध-दर्शन में इन्हें प्रज्ञा, शील और समाधि कहा गया है। इन तीनों की साधना से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में उच्च से उच्चतर एवं उच्चतम आदर्शों को भी प्राप्त कर सकता है । दर्शन का सम्बन्ध केवल बुद्धि से ही नहीं है, बल्कि हृदय और क्रिया से भी है। यही कारण है, कि भारतीय-दर्शन की परम्परा के प्रत्येक दार्शनिक-सम्प्रदाय ने श्रद्धान, ज्ञान और आचरण पर बल दिया है। भारतीय दर्शन केवल बौद्धिक विलास मात्र नहीं है, अपितु वह जीवन की वास्तविक स्थिति का प्रतिपादन करता है। अतः वह वास्ताविक अर्थ में दर्शन एवं धर्म है।
सूत्रकृतांग सूत्र : एक अनुचिन्तन वैदिक परम्परा में जो स्थान वेदों को मान्य है, तथा बौद्ध परम्परा में जो स्थान पिटकों का माना गया है, जैन परम्परा में वही स्थान आगमों का है। जैन परम्परा, इतिहास और संस्कृति की विशेष निधि आगम-शास्त्र ही है। आगमों में जो सत्य मुखरित हुआ है, वह युग युगान्तर से चला आया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते । परन्तु इस मान्यता में जरा भी सार नहीं है कि उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है । भाव-भेद, भाषा-भेद और शैलीभेद आगमों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। मान्यता-भेद भी कहीं-कहीं पर उपलब्ध हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है-समाज और जीवन का विकास । जैसे-जैसे समाज का विकास होता रहा, वैसे-वैसे आगमों के पृष्ठों पर विचार-भेद उभरते रहे है । आगमों की नियुक्तियों में, आगमों के भाष्यों में, आगमों की चूणियों में और आगमों की टीकाओं में तो विचार-भेद अत्यन्त स्पष्ट है । मूल आगमों में भी युग-भेद के कारण से विचार-भेद को स्थान मिला है। और यह सहज था । अन्यथा, उनके टीकाकारों में इतने भेद कहाँ से प्रकट हो पाते।
आगमों की रचना का काल : आधुनिक पाश्चात्य विचारकों ने भी इस बात को स्वीकारा है कि भले ही देवद्धिगणी ने पुस्तक लेखन करके आगमों के संरक्षण कार्य को आगे बढ़ाया, किन्तु निश्चय ही वे उनके कर्ता नहीं हैं । आगम तो प्राचीन ही हैं । देवद्धिगणी ने तो केवल उनका संकलन और संपादन ही किया है। यह माना जा सकता है कि आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंग हैं, पर उस प्रक्षेप के कारण समग्र आगम का काल देवद्धिगणी का काल नहीं हो सकता । सामान्य रूप में विद्वानों ने अंग आगमों का काल पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है । पाटलिपुत्र की वाचना इतिहासकारों के अनुसार भगवान महावीर के परिनिर्वाण के बाद पंचम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के काल में हुई। और उसका काल है ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी का द्वितीय दशक । अतएव आगम संकलन का काल लगभग ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा की पाँचवी शताब्दी तक माना जा सकता है। लगभग हजार वर्ष अथवा बारह सौ वर्षों का समय आगम संकलना का काल रहा है । कुछ विद्वान इस लेखन के काल का और अंग आगमों के रचना के काल का सम्मिश्रण कर देते हैं। और इस लेखन को आगमों का रचना काल मान लेते हैं । अंग आगम भगवान महावीर का उपदेश है और उसके आधार पर उनके गणधरों ने अंगों की रचना की है । अतः आगमों की संरचना का प्रारम्भ तो भगवान महावीर के काल से माना जाना चाहिए। उसमें जो प्रक्षेप अंश हो, उसे अलग करके उसका समय निर्णय अन्य आधारों से किया जा सकता है।