Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
( २३ )
को आत्मसात करता है और एक नया शरीर धारण कर लेता है । बौद्ध मत के अनुसार वासना को संस्कार मी कहा गया है। इस प्रकार बौद्ध दार्शनिक आत्मा को नित्यता तो नहीं मानते लेकिन विज्ञान-सन्तान की अविच्छिन्नता को अवश्य ही स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक आत्मा को केवल नित्य नहीं, परिणामी नित्य मानते हैं । आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य है, और पर्याय दृष्टि से अनित्य । क्योंकि पर्याय प्रतिक्षण बदलता रहता है। इसके बदलने पर भी द्रव्य का द्रव्यत्व कभी नष्ट नहीं होता। जैन दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने कर्मों के अनुसार अनेक गति एवं योनियों को प्राप्त होती रहती है । जैसे कोई एक आत्मा, जो आज मनुष्य शरीर में है, भविष्य में वह अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार देव और नारक भी बन सकता है। एक जन्म के बाद दूसरे जन्म को धारण करना इसी को जन्मान्तर अथवा भवान्तर कहा जाता है। इस प्रकार समस्त आस्तिक भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं।
भारतीय दर्शन में मोक्ष एवं निर्वाण :
आस्तिक दार्शनिकों के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ, कि क्या कभी आत्मा की इस प्रकार की स्थिति भी होगी, कि उसका पुनर्जन्म अथवा जन्मान्तर मिट जाये ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है, कि मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण ही वह स्थिति है, जहाँ पहुँच कर आत्मा का जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म मिट जाता है । यही कारण है, कि आत्मा की अमरता में आस्था रखने वाले आस्तिक दर्शनों ने मोक्ष की स्थिति को एक स्वर से स्वीकार किया है । चार्वाक दर्शन का कहना है कि मरण ही अपवर्ग अथवा मोक्ष है। मोक्ष का सिद्धान्त सभी आस्तिक भारतीय दार्शनिकों को मान्य है। भौतिकवादी होने के कारण एक चार्वाक ही उसे स्वीकार नहीं करता क्योंकि आत्मा को वह शरीर से भिन्न सत्ता नहीं मानता। अतः उसके दर्शन में आत्मा के मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता। चार्वाक की दृष्टि में इस जीवन में और इसी लोक में सुखभोग करना मोक्ष है। इससे भिन्न इस प्रकार के मोक्ष की कल्पना वह कर ही नहीं सकता जिसमें आत्मा एक लोकातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है ।
बौद्ध दर्शन में आत्मा की इस लोकातीत अवस्था को मोक्ष न कहकर निर्वाण कहा गया है । यद्यपि निर्वाण शब्द जैन ग्रन्थों में भी बहुलता से उपलब्ध होता है, फिर भी इसका प्रयोग बौद्ध दर्शन में ही अधिक रूढ़ है । बौद्ध दर्शन के अनुसार निर्वाण शब्द सब गुणों के आत्यन्तिक उच्छेद की अवस्था को अभिव्यक्त करता है। निर्वाण शब्द का अर्थ है— बुझ जाना। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए, कि निर्वाण में आत्मा का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है । बौद्ध दर्शन के अनुसार इसमें आत्यन्तिक विनाश तो अवश्य होता है, लेकिन दुःख का होता है, न कि आत्म-सन्तति का । कुछ बौद्ध दार्शनिक निर्वाण को विशुद्ध आनन्द की अवस्था मानते हैं। इस प्रकार बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी होकर भी जन्मान्तर और निर्वाण को स्वीकार करता है ।
जैन- दार्शनिक प्रारम्भ से ही मोक्षवादी रहे हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की स्वाभाविक अवस्था ही मोक्ष है अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति का प्रकट होना हीं मोक्ष है आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को तब प्राप्त करता है, जबकि वह सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की साधना के द्वारा कर्म पुद्गल के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है। जैन परम्परा के महान् अध्यात्मवादी आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने समयसार में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-' एक व्यक्ति लम्बे समय से कारागृह में पड़ा हो और अपने बन्धन की तीव्रता और मन्दता को तथा बन्धन के काल को भली-भांति समझता हो परन्तु जब तक वह अपने बन्धन के वशीभूत होकर उसका छेदन नहीं करता, तब तक लम्बा समय हो जाने पर भी वह छूट नहीं सकता । इसी प्रकार कोई मनुष्य अपने कर्म बन्धन का प्रदेश, स्थिति और प्रकृति तथा अनुभाग को भली-भांति समझता हो, तो भी इतने मात्र से वह कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। वही आत्मा यदि राग एवं द्वेष आदि को दूर हटा कर विशुद्ध हो जाये, तो मोक्ष प्राप्त कर