Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ स्थविर का अर्थ चूर्णिकार ने गणधर किया है और प्राचार्य शीलांक ने चतुर्दशपूर्वविद् किया है ! किन्तु स्थविर का नाम उल्लिखित नहीं है / यह माना जाता है प्रथम श्रुतस्कन्ध के गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए भद्रबाहु स्वामी ने प्राचारांग का अर्थ प्राचाराग्र में प्रविभक्त किया। सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि पांचों चूलाओं के निर्माता एक ही व्यक्ति हैं या अलग-अलग व्यक्ति हैं ? क्योंकि प्राचारांग निर्यक्ति में स्थविर शब्द का प्रयोग बहुवचन में हम है जिससे यह ज्ञात होता है कि उसके रचयिता अनेक व्यक्ति होने चाहिये / समाधान है कि 'स्थविर' शब्द का बहुवचन में जो प्रयोग हुमा है वह सम्मान का प्रतीक है। पांचों की चलाओं के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। आचारांग चणि में वर्णन है कि स्थ लिभद्र की बहन साध्वी यक्षा महाविदेह-क्षेत्र में भगवान सीमंधर स्वामी के दर्शनार्थ गयी थीं। लौटते समय भगवान ने उसे भावना और विमुक्ति ये दो अध्ययन दिये। आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में यक्षा साध्वी के प्रसंग का चित्रण करते हुए लिखा है कि भगवान् सीमंधर ने भावना और विमुक्ति, रतिवाक्या (रतिकल्प) और विविक्तचर्या के चार अध्ययन प्रदान किये / संघ ने दो अध्ययन प्राचारांग की तीसरी और चौथी चूलिका के रूप में और अन्तिम दो अध्ययन दशवकालिक चूलिका के रूप में स्थापित किये / आवश्यक चूणि में दो अध्ययनों का वर्णन है---तो परिशिष्टपर्व में चार अध्ययनों का उल्लेख है। आचार्य हेमचन्द्र ने दो अध्ययनों का समर्थन किस आधार से किया है ? प्राचारांग-नियुक्ति और दशवकालिक-नियुक्ति में प्रस्तुत घटना का कोई संकेत नहीं है। फिर वह आवश्यक चूणि में किस प्रकार आ गयी यह शोधार्थी के लिए अन्वेषणीय है। कितने ही निष्ठावान् विज्ञों का अभिमत है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचयिता गणधर सुधर्मा ही हैं क्योंकि समवायांग और नन्दी में प्राचारांग का परिचय है / उससे यह स्पष्ट है कि वह परिशिष्ट के रूप में बाद में जोड़ा हुअा नहीं है। नियुक्तिकार ने जो प्राचारांग का पद-परिमाण बताया है वह केवल प्रथम श्रतस्कन्ध का है। पाँच चूलाओं सहित प्राचारांग को पद संख्या बहुत अधिक है। नियुक्तिकार के प्रस्तुत कथन का समर्थन नन्दी चूणि और समवायांग वृत्ति में किया गया है / पर एक ज्वलन्त प्रश्न यह है कि प्राचारांग के समान अन्य प्राममों में भी दो श्रुतस्कन्ध हैं पर उन आगमों में प्रथम श्रुतस्कन्ध की और द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पद-संख्या कहीं पर भी अलग-अलग नहीं बतायी है / केवल प्राचाराग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का पदपरिमाण किस आधार से दिया है ? इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार व चूणिकार तथा वृत्तिकार मौन हैं। धवला और अंगपछणत्ति जो दिगम्बर परम्परा के माननीय-ग्रन्थ है, इनमें आचारांग की पद-संख्या भी श्वेताम्बर ग्रन्थों की तरह अठारह हजार बतायी है। उन्होंने जिन विषयों का निरूपण किया है वे द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रतिपादित विषयों के साथ पूर्ण रूप से मिलते है। समवायांग और नन्दी में, दृष्टिवाद में चौदह पूर्वो में चार पूर्वो के अतिरिक्त किसी भी अंग की चलिकाएँ नहीं बतायी हैं। जबकि प्रत्येक अग के श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक, पद और अक्षरों तक की संख्या का निरूपण है। वहाँ पर चार पूर्वो की चूलिकायें बतायीं हैं किन्तु प्राचारांग की चूलिकाओं का निर्देश नहीं है / इससे यह स्पष्ट होता है कि चार पूर्वो के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रागम की चूलिकायें नहीं थी। 1. प्राचारांग चूणि, पृष्ठ 326 / 2. प्राचारांग वृत्ति, पत्र 290 / 3. आचारांग नियुक्ति, गाथा 287 / 4. प्राचारांग चूणि, पृष्ठ 188 / 5. परिशिष्ट पर्व-९।९७-१०० पृष्ठ-९० / [31] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org