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जीवन की बहुत बड़ी क्रांति नहीं है। क्रांति तो मन को बदलने में है। अगर मन न बदला तो सब कुछ छोड़कर भी क्या छोड़ पाए? अतिमुक्त पानी छूकर भी पा गया, वह तो पानी में पात्र बहाकर भी कैवल्य पा गया और हम.....? शायद हर साधक के मन में ये प्रश्न कौंधते हैं, पर हृदय की आवाज सुनकर भी अनसुनी कर दी जाती
फकीर
अन्तर में इतनी गहरी आसक्ति पल रही है कि हमारा जीवन, जो एक जलती हुई ज्योति बनना चाहिये था, दुर्भाग्यवश आज मात्र धुंआ बनकर रह गया है। सब कुछ क्षण-भंगुर है इस जग में, पानी के बुदबुदे की तरह, फिर किस बात की मूर्छा, कैसी आसक्ति?
अन्तर्-अस्तित्व को उपलब्ध करने के लिए एक प्यास जगाओ। देखो, चारों ओर आँखें खोलकर-सब कुछ अध्रुव, अशाश्वत है यहाँ । अर्थी को गुजरते देखो और गहरे उतरकर सोचो, तो लगेगा यह अर्थी किसी और की नहीं, स्वयं हमारी है।
एक फकीर. जो गाँव के बाहर कटिया में रहता था, किसी एक राह साहब! बस्ती जाने का रास्ता किधर है ?' फकीर ने कहा, 'दायें बस्ती है और बायें कब्रिस्तान।' राहगीर दायीं
ओर चला गया, पर उसे बस्ती तो न मिली, हाँ, वहाँ कब्रिस्तान अवश्य मिल गया। वह गलत मार्ग बताने के कारण फकीर पर झल्लाया। फकीर ने कहा, 'भैया! जैसा मैंने जाना, वैसा तुम्हें बता दिया। तुमने बस्ती के बारे में पछा, तो जो कब्र में बसे हैं, वे सदा को बस गये हैं इसलिए उसे मैंने बस्ती कहा और जो गाँव में बसे हैं, वे कब्रिस्तान के रास्ते पर हैं। अब मैं कब्रिस्तान को बस्ती और बस्ती को कब्रिस्तान न कहूँ, तो क्या कहूँ ?'
देखो जगत को, गहराई में जाकर देखो, उसकी व्यर्थता को देखो। कहीं कोई अर्थ न मिलेगा। उसकी व्यर्थता को देखकर तुम्हारे भीतर स्वत: प्रेरणा पैदा होगी। एक कसक उठेगी। कितने झूठे बंधन हमने बना रखे हैं, बांध रखे हैं। इन बंधनों की कहीं कोई मूल्यवत्ता नहीं है, किसी और ने नहीं बांधा है तुम्हें, तुम स्वयं बंधे हो।
मने बन्धनों का निर्माण किया है और बंधे हो। जीवन में जो ये अंगारे दिखाये दे रहे हैं. किसी और ने नहीं बिछाये हैं, तुमने खुद अपने ही हाथों बिछाये हैं और जीवन को कंटकाकीर्ण किया है। पर आश्चर्य, इन झूठे बन्धनों के प्रति हमारी इतनी गहरी आसक्ति हो गयी है कि ये हमें जीवन के सत्य प्रतीत होने लग गये हैं। हम जैसे जी रहे हैं, यह सब महज एक नाटक है। आज आपका नाम राजेन्द्र कुमार है, पर जब पैदा हुए तब तो आपका नाम राजेन्द्र कुमार नहीं था। आप बिना नाम के आये थे। लेकिन अब आपका नाम राजेन्द्र कुमार हो गया। अब इस नाम के साथ अगर कोई अपशब्द कह दे, गाली-गलौच कर बैठे, तो आप झगड़ा कर बैठेंगे। जब पैदा हुए थे तब अगर किसी ने राजेन्द्र कुमार को सैकड़ों गालियाँ दी होंगी, तब तुमने कोई प्रतिक्रिया थोड़े ही की थी! सामने वाला गाली देता तब भी तुम खिलौनों से खेलते रहते। नाम का तादात्म्य तुमने खुद बनाया। इसी तरह तुम्हारी जिंदगी के जितने आसक्ति के सूत्र हैं, सब तुमने बनाये हैं और सच्चाई तो यह है कि ये सब मिथ्या हैं। भ्रमवशात् यह झूठ ही तुम्हें सच नजर आ रहा है। हमें पुनर्विचार करना होगा। आसक्ति में फँसने के कारण जीवन सिवाय एक दुःख की गांठ के और क्या बचा है। इसलिए जो टूटेगा, वह झूठ टूटेगा, सत्य कभी टूटता
अपने ही हाथों
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