Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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छोटी-सी जिंदगी में इतने लम्बे-चौड़े अरमान मनुष्य बना लेता है कि उसकी पूरी जिंदगी अरमानों को पूरा करने में पूरी हो जाती है, पर अरमान ! उनमें शायद बढ़ोतरी ही होती है ।
इंसान को कैलास पर्वत जैसे सोने के असंख्य पर्वत भी दे दिए जाएँ, फिर भी उसकी तृष्णा समाप्त नहीं होगी। उसकी तृष्णा और बढ़ेगी। इच्छाएँ आकाश की तरह अनंत हैं। आकाश का तो फिर कोई ओर-छोर हो भी शायद, लेकिन इच्छाओं का कोई ओर-छोर नहीं होता । जीवन पल-पल खाली हो रहा है, मगर आदमी नहीं सँभलता, उसकी इच्छाएँ और फैल रही हैं। जरा देखो, पेड़ पर आज हरे पत्ते नजर आते हैं, कुछ दिन बाद ये पत्ते पीले हो जाएँगे और एक दिन जमीन पर आ गिरेंगे। क्या इन्हें कोई रोक पाएगा ?
जीवन का रहस्य ऐसा ही है। आदमी इसे सुलझा नहीं पाता । कोई पत्ता हमेशा हरा नहीं रहता। एक-नएक दिन तो उसे पीला पड़कर पेड़ से नीचे गिरना ही होगा। तभी तो नए पत्ते आएँगे और जीवन का चक्र चलेगा। दुनिया में कोई यदि यह कहे कि दुनिया में कोई काम असंभव नहीं है, उसके लिए जवाब मेरे पास है। दुनिया में मृत्यु से बचना असंभव काम है। जीवन की नदिया को सूखने से बचाना असंभव है। यह तो सूखेगी, तभी नया पानी आएगा ।
सूर्य उदय होता है। यह हमारा जन्म है। सुबह हमारा बचपन, दोपहर जवानी, सांझ बुढ़ापा और रात्रि जीवन की समाप्ति। यह सब जानते - बूझते हुए भी मनुष्य जगत् की कहानी नहीं समझता, अध्यात्म को अपने जीवन में नहीं उतार पाता। उसकी बाह्य-संसार की तृष्णाएँ बढ़ती जाती हैं। आदमी को जो मिल रहा है, उससे उसे संतोष नहीं है । वह और पाना चाहता है।
मनुष्य की असीम आकांक्षाओं के चलते जिंदगी, जो आनंद और उल्लासपूर्ण होनी चाहिये, वह संघर्ष और प्रतिस्पर्धापूर्ण हो गयी है । जीवन वैसा ही बनता है, जैसा हम उसे बनाते हैं। हम अपने जीवन को आनन्दित भी कर सकते हैं और दलदल में ले जाकर फँसा भी सकते हैं। एक अनगढ़ पत्थर, चाहो तो उससे किसी का सिर फोड़ सकते हो और चाहो तो इसी पत्थर से प्रतिमा भी गढ़ सकते हो । एक कोरी किताब की तरह है ज़िन्दगी ! इसमें गीत भी लिख सकते हो और गालियाँ भी। और यह परम सत्य है कि जो व्यक्ति लोभ में जीता है, आकांक्षा और तृष्णा में जीता है, उसकी जिन्दगी एक प्रतिसंघर्ष बन जाती है। एक ऐसा प्रतिसंघर्ष, जिसमें हर विजय के बावजूद पराजय ही है। अपनी बेलगाम तृष्णाओं के चलते दौड़ेंगे बहुत, लेकिन पहुँचेंगे कहीं नहीं। जीवन महज एक संघर्ष बनकर रह जाएगा, जिसमें सिवाय तिल-तिल जलने के और कुछ न बचेगा ।
क्या आपको पता है कि प्रकृति कभी भी मनुष्य को दुःखी नहीं करती है, दुखी करती है उसकी असीम लालसाएँ । पता नहीं, हमारे भीतर दिन-प्रतिदिन कितने अरमान उपजते हैं। एक को पूरा करें, तब तक न जाने कितने अन्य उपज जाते हैं । हमारी इन्हीं इच्छाओं के चलते ईर्ष्या पैदा होती है। दिखने में भले ही हमारे परिचितों के साथ दोस्ती चल रही हो, पर मन ही मन तो ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा का दावानल जलता है । मित्रता तो मानो औपचारिकता भर रह जाती है। दोस्त की नई कार को देखकर कहने में भले ही खुशी व्यक्त कर दी जाये, पर भीतर ? भीतर शायद ईर्ष्या की एक और चिंगारी ही पैदा होती है। और ऐसी अब तक अनेक चिंगारियां हमारे
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