Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 55
________________ लड्डू बांटने और तो और बिस्कुट के पैकेट तक बांटने की परम्परा चल रही है। इसे हम प्रभावना का नाम दे देते हैं। मेरी नज़र में प्रवचन के बाद लड्डू बांटना प्रभावना नहीं होगी। हाँ, अगर प्रवचन से जीवन प्रभावित हो जाएगा. भीतर की कली खिल जायेगी तो यह प्रभावना अवश्य होगी। कल एक महानुभाव पूछ रहे थे, 'आप ज्ञान-पूजा, गुरु-पूजा में रुपये क्यों नहीं चढ़वाते हैं।' मेरे प्रभु ! रुपये चढ़ाते-चढ़ाते तो आप बूढ़े हो गए। कितना ज्ञान पा सके आप? मुझे पूछो तो रुपये चढ़ाने से कभी ज्ञान नहीं आ पाएगा। घर में बैठकर प्रतिदिन दस-पन्द्रह मिनट स्वाध्याय करो, जो तुम्हारी सबसे बड़ी ज्ञान की पूजा होगी। धर्म को धन के प्रलोभन से जितना दूर रखोगे, उतना ही अच्छा है। और मज़े की बात तो देखिये। मैंने देखा कि एक आचार्य महाराज के यहाँ एक व्यक्ति ने ज्ञान-पूजा करने के लिए जेब से रुपये निकाले । देखा कि सबसे ऊपर पाँच सौ का नोट था। उसने उसे नीचे दबाया। फिर सौ-सौ के नोट थे। उन्हें भी नीचे धकेल दिया। पचास के नोट आये, वे भी धकेल दिये गये। उसने महाराज और रुपये दोनों में मूल्यांकन करना चाहा। वह कहने को भले ही 'गुरु महाराज' कह दे, पर पचास का नोट निकाल नहीं पाया। फिर बीस के नोट वे भी नीचे गये और उसने दस का नोट निकाला और थाली में चढ़ा दिया। मैं पास में खड़ा-खड़ा उसके मन को पढ़ रहा था। वह चढ़ाता तो पाँच का ही नोट पर ऐसा नहीं कर पाया, शायद इससे कम का उसके पास न होगा। धर्म मूल्यवान है। धर्म को धर्म रहने दीजिए। वह कभी धंधा न हो जाए। अभी कुछ दिन पहले मद्रास के एक महानुभाव मेरे पास बैठे थे। और भी लोग बैठे थे मेरे पास में। बात बात में एक व्यक्ति ने कहा- 'साहब, मैं अभी कुछ दिन पहले अमुक आचार्य महाराज के दर्शन करने गया। मैंने तीन दफा 'वंदना' कहा, पर महाराज ने तो धर्मलाभ तक न दिया।' अब मैं भला उन्हें क्या कहता, मैंने कोई जवाब नहीं दिया। हाँ, उस समय मद्रास के जो महानुभाव मेरे पास बैठे थे, जो शायद बड़े-बड़े आचार्यों से मिलने के अभ्यस्त थे। उन्होंने कहा, 'भैया, तुम्हें आचार्यों से मिलना नहीं आता। सीधे सौ का नोट उनकी थाली में डाल देते, फिर तो कैसे भी आचार्य महाराज क्यों न हों, दस मिनट तुम्हें अवश्य दे देते।' मैंने सोचा, आखिर गहस्थ वर्ग में ऐसी भावना क्यों घर करती जा रही है। अगर यह सच है तो धर्म की इससे ज्यादा दयनीय हालत और क्या होगी ! आखिर कब तक खरीद-फरोख्त होती रहेगी धर्म की धन के हाथों में पड़ कर। ___ अब एक नया शब्द चला है हमारे यहाँ जो है 'गुरु-द्रव्य'। मैंने जैनों के किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका उल्लेख नहीं देखा। काफी वर्ष पूर्व वाराणसी में जब एक विद्वद्संगोष्ठी में मैं भी था तो इस शब्द की चर्चा चल पड़ी थी। विद्वानों ने इसे जैन-परम्परा में अपवाद शब्द माना। अब भला जैन-गुरु जो निर्ग्रन्थ होते हैं, श्रमण होते हैं, उनके नाम के साथ धन का क्या सम्बन्ध ? ___मैं इसीलिए कहता हूँ कि सबसे पहले दर्शन-विशुद्धि आवश्यक है, ताकि आप सत् को सत् और असत् को असत् रूप में पहचान सकें। एक बात पक्की है कि जीवन का रूपांतरण बाहर से नहीं, भीतर से ही होता है। अगर ऐसा हुआ तो फिर मास-क्षमण करने वाला तपस्वी कभी क्रोध करता हुआ दिखाई नहीं देगा। केवल बाहर से रूपांतरण हुआ तो 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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