Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 107
________________ और खोज करना ही मृगतृष्णा है। सभी अपने में डूबें, अपने में जीयें । यही जीवन से मैत्री है और यही मृत्यु से भी मैत्री है। मत्य क्या है? यह भयभीत भी करती है और भयमक्त भी। वह न तो मंगल है और न अमंगल है। वह व्यक्ति के लौकिक जीवन का समापन करती है। चाहे राजा हो या रंक, युवा, बाल या वृद्ध, यह सबको मंच से उखाड़ देती है। मज़े की बात तो देखो, यह सबके लिए आती है, सबको लेकर जाती है। यह कइयों को शांति देती है और कइयों की शांति छीन लेती है। चाहे स्वर्ग हो या नरक, चाहे मोक्ष भी क्यों न हो, बिना मत्य के द्वार से गुज़रे कोई कहीं नहीं पहुंच पाया। अब तक ऐसा कोई भी तो नहीं हुआ है जो इस द्वार से न गुज़रा हो। ईमानदारी तो यह है कि इस दुनिया में सब कुछ नश्वर हो सकता है, पर मृत्यु शाश्वत है । मृत्यु कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। यह कालातीत है। मृत्यु पूरी तरह से तटस्थ है । यह अमीर-गरीब का भेद नहीं करती है। जात-पाँत का कोई भी फर्क इसके सामने नहीं चलता है। राम-कृष्ण, महावीर-बुद्ध, ईसा-सुकरात, कोई उससे लोहा न ले पाये। इसलिए एक मात्र यही अपराजेय है पर फिर भी है। जो लोग अनासक्तमन होकर निष्कांक्ष कर्म करते हैं, जीवन की सांध्यवेला में मृत्यु उनका बलात् अपहरण नहीं करती अपितु सुगंधित फूलों से उसका स्वागत करती है। मृत्यु संसार से मुक्ति दिलाकर दिव्य ज्योति प्रकट करती है। 108 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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