Book Title: Adhyatma ka Amrut
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 106
________________ बाइबल आखिर हमें यही तो समझाती है कि देह में होने का अर्थ एक विराट् अस्तित्व को एक संकीर्ण स्थान में बंद करना है। जो लोग जीवन की काफी गहराई में पहुँचे हैं, वे जानते हैं कि जीवन एक कारागृह है । जीवन की साधना यही है कि व्यक्ति इस कारागृह से शाश्वत रूप से मुक्ति पाए। अगर मृत्यु से बचने की कोशिश करते रह गये, मृत्यु पर विजय पाने की कोशिश करते रह गये तो इस कारागृह से कभी बाहर नहीं निकल पाओगे। इसी किनारे रह जाओगे और उस किनारे का कभी स्पर्श भी नहीं कर पाओगे। अगर कुछ पाना है तो उस किनारे जाना पड़ेगा। यहाँ तो मनुष्य के लिए खोने के सिवाय पड़ा ही क्या है ? बाहर के अस्तित्व में रहस्यों के उद्घाटन के लिए काफी कोशिश कर चुके हो, पर अन्तर अस्तित्व, अन्तर का विज्ञान, जीवन की महागुफा, आखिर, कब इसकी खोज करोगे? कब इसमें प्रवेश करोगे? छोड़ो मृत्यु की झूठी बातों को। मौत हमेशा सच्चाई नहीं होती, सच्चाई हमेशा जिंदगी ही होती है। एक क्षण के लिए घटने वाली घटना का भार जिंदगी भर तक ढोना अज्ञान नहीं तो और क्या है ? अगर जागरूकता के साथ जीवन जीया तो, मृत्यु मित्र की तरह आएगी, नया जीवन, नई देह, नया बचपन और नयी ताजगी लिये हुए। जिस व्यक्ति ने जीवन को समग्रता के साथ जीया, ध्यानपूर्वक जीया, जीवन को समाधि में रूपान्तरित किया, उसके लिए भी मृत्यु मित्र बनकर आएगी। वह मृत्यु कहीं उसे विराट् आकाश में लीन कर देगी। गंगा को गंगा-सागर का रूप दे देगी और उस परम शून्य के करीब पहुँचा देगी, जहाँ सत्य है, चैतन्य है, परम आनंद है। वहां देह नहीं होगी, केवल बोध होगा, चिन्मात्र होगा। एक बात तय है कि हर आदमी की मौत है। हर कोई मृत्यु की 'क्यू' में खड़ा है। इस पंक्ति में किसी का नम्बर आज, किसी का कल, किसी का मंगलवार को, किसी का गुरुवार को, लेकिन बारी सबकी आनी है। जब अनिवार्य है तो जाने से पहले कुछ ऐसा हो जाए कि जाना भी यादगार बन जाय। हमारी मृत्यु भी जीवन का इतिहास बना जाये। मृत्यु की यात्रा पूरी तरह एकाकी होती है। मृत्यु के बाद परिजन नहीं, वरन् जीवन में किये हुए शुभ या अशुभ कर्म ही साथ निभाते हैं। आखिर जो हर आखिर में हमारा साथ निभाएगा, हमें उसकी ओर ध्यान देना चाहिये। या तो परी तरह से कार्यों से ही मक्त हो जायें और या फिर जीवन में इतने पण्योपार्जन हमारी अगली यात्रा सुखद रहे। हम ही नहीं, हमारी परछांई भी सुखी रहे, गौरवान्वित बने। परिजनों के बीच रहकर भी यह बोध सदैव रखना चाहिये कि आखिर मैं अकेला हूँ। दुनिया का मेल कितना भी क्यों न हो, पर मैं तो आखिर अकेला हूँ। जो इस भीड़ भरे जीवन में अपने अकेलेपन का शाश्वत बोध रखते हैं, वे स्वयं शाश्वत हो जाते हैं । मृत्यु उन्हें मिटाने का भले ही प्रयास करे, पर वे अमिट हो जाते हैं। मृत्यु जीवन का समापन नहीं है। वह तो जीवन का आखिरी पड़ाव है। यात्रा शुरू हुई है, तो जीवन के इस आखिरी पड़ाव से भी गुजरना ही होगा। देहरी तक जाने के लिए सीढ़ियों को पार करना ही होगा और जब देहरी तक पहुँचना ही है तो सीढ़ियों से व्यामोह कैसा? पड़ावों से राग कैसा? मेरा 'मैं' मुझमें है, तेरा '' तुझमें है। मैं' मुझमें रहे और 'तू' तुझमें रहे- बस इतना ही काफी है। 'मैं' मुझमें और तू तुझमें, यही सार है। सुख की कहीं 107 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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